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लक्षु लोहरा के पास नहीं था आधार कार्ड, राशन न मिलने से भूख से मर गई पत्नी

लक्षु लोहरा के पास नहीं था आधार कार्ड, राशन न मिलने से भूख से मर गई पत्नी

देश में कोरोना से बचाव के लिए लॉकडाउन करने का फैसला सही था। लेकिन आज के तारीख में लोग कोरोना से कम और भूख से अधिक मर रहे हैं। झारखंड राज्य के गढ़वा जिले के भंडरिया गांव से एक दिल दहला देने वाली खबर आई है। यहां सोमरिया देवी नाम की एक वृद्ध महिला की भूख से मौत हो गई। इनके परिवार को लॉकडाउन में राशन और पेंशन दोनों योजनाओं का लाभ नहीं मिला। सोमरिया देवी 70 वर्ष थीं। सोमरिया देवी और उनके पति परिवार में थे। उनका कोई संतान नहीं है। पति लक्षु लोहरा का कहना है कि उनकी पत्नी की मौत भूख की वजह से हुई है।

पंचायत प्रतिनिधि और जिला पार्षद ने बताया कि लक्षु लोहरा के घर में तीन दिन से खाना नहीं बना था। घर में अनाज का एक दाना तक नहीं था। लोगों का कहना है कि सोमरिया देवी के पति लछु लोहरा के पास आधार कार्ड नहीं है। इस वजह से उन्हें कोई सरकारी मदद और राशन आदि नहीं मिलता था। पड़ोसियों ने चार दिन तक खाना खिलाया था। लेकिन बाद में लॉकडाउन के कारण उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिली और न ही वे दोनों कहीं जा सके कि कहीं कुछ मांग कर पेट भर सके।

दूसरी तरफ प्रशासन भूख से मौत होने की बात से साफ इनकार कर रही है। फिर सवाल उठता है कि प्रशासन के तरफ से पति लछु लोहरा को छह हजार रुपये नकद और 50 किलो चावल मदद के तौर पर फिर किस लिए दिया गया था। अगर भूख मुद्दा नहीं था तो चावल क्यों दिया गया? भूख से मरने वाली सोमरिया जैसे मात्र एक मामला नहीं है। हज़ारों-लाखों मजदूरों के सामने अब भूख से मरने जैसी नौबत है। कई तो ऐसे मामले पहले भी आ चुके हैं जहां भूख से आत्महत्या लोग कर रहे हैं। इसमें बच्चे भी शामिल हैं। माता-पिता अपने बच्चे को मारने और खुद को मारने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि सरकार राशन नहीं पहुंचा पा रही।

मजदूरों पर किए गए एक टेलिफोनिक सर्वे में एक चौका देने वाला मामला सामने आया है। सर्वे के मुताबिक, 42.3 प्रतिशत मजदूरों के पास अब खाने के लिए एक भी दिन का राशन नहीं है। वहीं 80 प्रतिशत से ज्यादा मजदूरों के पास तय 21 दिन का लॉकडाउन यानी 14 अप्रैल तक से पहले ही पूरी तरह राशन खत्म होने की पूरी आशंका जताई गई है। बता दें यह सर्वे 27 से 29 मार्च के बीच उत्तरी और मध्य भारत के 3,127 प्रवासी कामगारों पर किया गया।

21 दिनों के लॉकडाउन की वजह से देश के लाखों मजदूर पैदल ही अपने गांव की ओर भूखे-प्यासे निकल गए। कुछ अपने गांव पहुंचे तो कुछ दूसरे राज्यों में ही फंसे रह गए। दोनों ही स्थितियों में इन मजदूरों के पास राशन-पानी की पर्याप्त व्यवस्था नहीं। सरकार ने राहत पैकेज के कई ऐलान किए। इसके बावजूद इनके सामने खाने को लाले हैं।

उदाहरण के तौर पर बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर फण्ड (BOCW) के तहत श्रमिकों को आय सहायता प्रदान की जाती है। केंद्र सरकार ने राज्यों के मजदूरों की मदद करने की अपील की। लेकिन यह सहायता आय मजदूरों को तभी मिल सकती है जब उनके पास बीओसीडब्लू का कार्ड होगा।

जन साहस के सर्वे से यह सामने आया कि बीओसीडब्लू कार्ड सिर्फ 18.8 प्रतिशत श्रमिकों के पास ही है। ऐसे में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर आवश्यक दस्तावेज न होने से राहत पैकेज का लाभ नहीं उठा सकते। 60% मजदूरों को इस राहत पैकेज के बारे में जानकारी तक नहीं।

आजीविका पर पड़ा असर

लॉकडाउन की वजह से प्रवासी मजदूरों की आजीविका पर बड़ा असर पड़ा है। सर्वे के अनुसार, लॉकडाउन की वजह से 92.5 प्रतिशत मजदूर एक से तीन सप्ताह तक अपना काम खो चुके हैं। सर्वे में सामने आया कि 55 प्रतिशत मजदूरों को सिर्फ 200 से 400 रुपये ही मजदूरी मिलती है जबकि उनके परिवार में औसतन चार लोग हैं। वहीं 39 प्रतिशत मजदूरों को 400 से 600 रुपये ही मजदूरी के मिलते रहे हैं। मजदूरी दरों पर गौर करें तो दिल्ली में जहां कुशल मजदूरों की मजदूरी 692 रुपये है, वहीं अर्द्ध कुशल और अकुशल की मजदूरी दर क्रमशः 629 और 571 रुपये है। ऐसे में मजदूर कम मजदूरी में अपने और अपने परिवार का पेट पालने को मजबूर हैं।

कर्ज चुका पाने में असक्षम

मजदूरों के पास पर्याप्त राशन न रहने और रोजगार खोने की वजह से कर्ज लेकर गुजारा करने में विवश हैं। सर्वे में यह बात भी सामने आया है कि 78.7 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों को इस बात का डर है कि रोजगार नहीं रहा तो जो उन्होंने परिवार के लिए कर्ज ले रखा है, वे आगे नहीं चुका पाएंगे। वहीं 48.1 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों ने अपने स्थानीय सूदखोरों से पैसा ले रहे हैं। उनको डर है कि अगर वे कर्ज नहीं चुका पाए तो सूदखोर उनके साथ मारपीट करेंगे।

देश में अगर निर्माण श्रमिकों से जुड़े दिहाड़ी मजदूरों की बात करें तो 5.50 करोड़ श्रमिकों के साथ इनकी संख्या सबसे ज्यादा है। ये देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में 9 फीसदी का योगदान देते हैं। सर्वे से पता चला है कि हर साल इनमें से 90 लाख श्रमिक काम के लिए गांव छोड़कर शहर की ओर पलायन करते हैं।

परिवार का खर्च उठाने के लिए पैसे नहीं

सर्वे में ये भी सामने आया है कि अगर लॉकडाउन 14 अप्रैल से ज्यादा दिनों के लिए बढ़ाया गया तो 66% ऐसे मजदूर हैं जिनके पास अपने परिवार का खर्चा निकालने के लिए एक सप्ताह से ज्यादा पैसे नहीं हैं। हालांकि, 22 % ऐसे मजदूर हैं जिन्होंने माना कि वे एक महीने तक परिवार का खर्चा निकाल पाने में सक्षम होंगे।

गुजरात के नरेगा संघर्ष मोर्चा से जुड़े निखिल शिनॉय बताते हैं, “लॉकडाउन के दो हफ्ते से ज्यादा दिन बीत चुके हैं और अभी भी कई गांव ऐसे हैं जहां अभी तक सरकारी मदद नहीं पहुंच सकी है। कई गांव में लोगों को राशन नहीं मिला है, हम कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम उन तक सूखा राशन पहुंचाया जाए, मगर लॉकडाउन बढ़ता है तो इनकी मुश्किलें और भी बढ़ जाएँगी।”

कई जगह फंसे मजदूरों ने वीडियो बनाकर सरकार से मदद की अपील भी की। लेकिन सरकार ने अब तक उनकी कोई सुध नहीं ली। मजदूरों की ऐसी स्थिति में अगर लॉकडाउन बढ़ाया जाता है तो मजदूरों के सामने भूख की समस्या घातक रूप ले सकती हैं। सरकार इसपर ध्यान नहीं देती है तो यह लोकतंत्र और मानवीयता की हार है।

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