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अरुणाचल में पीआरसी की सिफारिश स्थानीय जनजातियों को रास नहीं आई। उनका आक्रोश आग उगलने लगा तो सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा
उ गते हुए सूरज की धरती पिछले 22 फरवरी से रह-रहकर तमतमा रही है। वजह है वर्तमान सरकार के मंत्री नावम रेविया के नेतृत्व में संयुक्त उच्च अधिकार समिति द्वारा छह अनुसूचित जनजातियों को स्थानीय प्रमाण पत्र (पीआरसी) देने की सिफारिश। यह सिफारिश वहां के स्थानीय जनजातीय के संगठनों को रास नहीं आई। इस प्रस्ताव के खिलाफ नाराज लोगों ने न केवल अपना विरोध दर्ज करवाया, बल्कि हिंसक प्रदर्शन की जो तस्वीर पेश की है, उससे राज्य की वर्तमान सरकार सकते में आ गई। यह मसला इस हद तक गरमाया कि बात मुख्यमंत्री पेमा खांडू के इस्तीफे तक पहुंच गई। हिंसक बेकाबू प्रदर्शनकारियों ने दर्जनों गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया। पुलिस फायरिंग में दो लोग मारे गए। दो दर्जन पुलिसकर्मियों सहित 34 लोग घायल हुए।
क्या है मामला?
अरुणाचल प्रदेश के नामसाई और चॉन्गलांग जिले में दशकों से देवरिस, सोनोवाल कछारी, मोरान, आदिवासी, मिशिंग और गोरखा समुदाय रह रहे हैं।  इन समुदाय को वहां की स्थानीयता का दर्जा हासिल नहीं है। राज्य सरकार ने इन समुदाय को स्थानीय प्रमाण पत्र देने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव से वहां के कई जनजाति संगठनों ने रोष व्यक्त करते हुए दो दिनों के बंद का आह्नान किया। बंद के सुबह सब कुछ शांत था, लेकिन शाम होते-होते यह बंद हिंसक रूप धारण करते हुए बेकाबू होने लगा। प्रशासन ने हिंसा को काबू करने के लिए कर्फ्यू लगा दिया। कर्फ्यू के दौरान भी लोग सड़कों पर उतर आए। बात सिर्फ यहीं तक नहीं जाकर थमी। इस पीआरसी प्रस्ताव की चिंगारी इतनी तेज थी कि अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर में डिप्टी सीएम चाउना मीन के घर तक जा पहुंची। उनके घर में जबर्दस्त तोड़-फोड़ की गई। मुख्यमंत्री पेमा खांडू के घर पर भी हमलावर पहुंचे और वहां भी तोड़-फोड़ करने की कोशिश की। डिप्टी कमिश्नर का घर भी सुरक्षित न रह सका। गुस्साई भीड़ ने वहां भी जाकर तोड़-फोड़ कर अपना रोष व्यक्त किया।
पीआरसी मिलने का अर्थ 
पीआरसी मतलब स्थायी निवासी प्रमाण पत्र। यह एक सरकारी दस्तावेज है। इस दस्तावेज के जरिए वे लोग भारतीय होने का प्रमाण पेश कर सकेंगे जिनके पास कोई सबूत नहीं था कि वे भारतीय हैं। इस प्रमाण पत्र का इस्तेमाल वे किसी भी सरकारी कामों तथा सरकारी सुविधाओं के लिए कर सकेंगे।
पीआरसी का विरोध क्यों? 
अरुणाचल प्रदेश अपेक्षाकøत अत्यंत पिछड़ा हुआ राज्य है। 1987 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। प्रकृति सौंदर्य का इसे वरदान तो इस प्रदेश को पहले से हासिल था। लेकिन विकास की सीढ़ी चढ़ने में यह लगातार पिछड़ता गया। इसकी एक वजह भौगोलिक स्थिति को भी माना जाता है। पहाड़ी इलाकों में बसे अरुणाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था का अधिकतम हिस्सा कøषि पर निर्भर है। ऐसे में सरकारी और गैर सरकारी अवसर कम है। असंतुष्ट संगठनों का मानना है यदि गैर अरुणाचल प्रदेश की जनजातियों को भी स्थानीयता का दर्जा दे दिया गया तो वहां के स्थानीय लोगों के वाजिब हक का अनुपात घट जाएगा।
सरकार की मंशा
पहले नागरिकता संशोधन विधेयक और फिर स्थायी निवासी प्रमाण पत्र जैसे प्रावधानों के जरिए भाजपा उन वोटरों को लुभाने का प्रयास कर रही है जो पड़ोसी देशों से आए हिंदू शरणार्थी हैं। इन हिंदू शरणार्थियों को भाजपा पहले ही भारतीय नागरिकता देने का वादा कर चुकी थी। स्थायी निवासी प्रमाण पत्र का मामला केवल अरुणाचल प्रदेश तक ही सिमटा हुआ है। असल में सरकार जिन छह जनजातियों को स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र देना चाहती है, वे असम से ताल्लुक रखते हैं। बाद में वे जनजातियों अरुणाचल प्रदेश के नामसाई और चॉन्गलांग जिलों में आकर बस गए। बात यह भी है कि ये जनजातियां यहां लंबे समय से रह रही हैं। भाजपा का यह प्रस्ताव भले ही पूर्वोत्तर में अपनी जड़ें जमाना हो, लेकिन यह मसला इतना सरल नहीं है। यह बात भाजपा जल्दी समझ गई। पेमा खांडू ने अरुणाचल प्रदेश की जनता से शांति बनाए रखने की अपील करते हुए कहा है कि सरकार इस मुद्दे को आगे नहीं बढ़ाएगी।
विपक्ष का राग
विपक्ष को भलीभांति मालूम है कि भाजपा का यह फैसला भावनात्मक स्तर पर अपना रंग दिखा सकता है। इसलिए वह इस प्रस्ताव का जमकर विरोध कर रहा है और भाजपा सरकार को दम लगाकर कोस भी रहा है। कांग्रेस मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगते हुए राष्ट्रपति शासन लगाने की वकालत कर रही है।
क्या कहती है जनता?
पीआरसी को लेकर स्थानीय जनता दो हिस्सों में बंट चुकी है। एक हिस्सा इसके विरोध में है, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके हितों के साथ समझौता होगा और वे हिंसक कार्रवाई को जायज ठहरा रहे हैं। दूसरी तरफ जिन छह जनजातियों को स्थानीय प्रमाण पत्र दिए जाने पर की बात कही जा रही है, वे अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कह रही हैं कि वे बांग्लादेशी नहीं हैं, न ही किसी दूसरे देश के घुसपैठिए। फिर इतनी उग्रता दिखाने की जरूरत क्यों?
हिंसा का असर
जिन संगठनों के द्वारा अरुणाचल प्रदेश में हिंसक घटनाओं को बढ़ावा दिया गया, उन लोगों ने पहले तो आगजनी व पत्थरबाजी की और फिर सरकारी गाड़ियों को निशाना बनाया। इस माहौल पर काबू पाने के लिए प्रशासन ने कर्फ्यू का ऐलान किया। प्रदर्शनकारी कर्फ्यू को धता बताते हुए सड़क पर उतर आए। पहले उपमुख्यमंत्री चाउना मीन के घर में घुसकर तोड़-फोड़ की, फिर मुख्यमंत्री पेमा खांडू के घर पर हमला बोल दिया। स्थिति को काबू में करने के लिए पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी। इस झड़प में दो लोग मारे गए और दर्जनों घायल हो गए। आईटीबीपी की 10 कंपनियां यहां तैनात कर दी गई। इंटरनेट सेवा को बंद कर दिया गया। ईटानगर में होने वाले फिल्म फेस्टिवल को रद्द करने की घोषणा कर दी गई। जहां पर यह फेस्टिवल होना था, वहां प्रदर्शनकारियों ने काफी नुकसान पहुंचाया और जबर्दस्त तरीके से तोड़-फोड़ की।
सरकार बैकफुट पर
इस प्रस्ताव के भारी विरोध को देखते हुए भाजपा सरकार ने अपना कदम पीछे हटाने में ही भलाई समझी है। वह जिस मंशा से इस प्रस्ताव को लाना चाहती थी, वह मंशा फिलहाल पूरी होते नहीं नजर आ रही है। चुनाव से ऐन पहले यह कोई बड़ी घटना घटती है तो इसका सीधा- सीधा नुकसान लोकसभा चुनाव में भाजपा के हिस्से चली जाएगी। पूरे पूर्वोत्तर में 25 लोकसभा सीट हैं जिसमें आठ भाजपा के खाते में है। इस प्रस्ताव को वहां की स्थानीय जनजातियां भावनात्मक रूप से देख रही हैं। भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि स्थानीय जनजातियों की नाराजगी का पारा और चढ़े। भाजपा के पास सिर्फ एक ही विकल्प है कि फिलहाल वे इस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल स्थानीयता के मुद्दे पर एक तालमेल बिठा कर ऐसा मॉडल तैयार करे जिससे वहां की स्थानीय जनता को स्वीकार हो सके। भाजपा को इस बात का ख्याल रखना है कि उगते सूरज की धरती में अमन बरकरार रहे।

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