किसान आंदोलन के जोर पकड़ते ही राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ गई है। विपक्षी पार्टियों को आंदोलन के चलते नई संभावनाएं दिखाई दे रही हैं, तो भाजपा इसकी काट में जुट गई है
कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन आज राजनीतिक अखाड़े के रूप में तब्दील होता जा रहा है। किसान नेता राकेश टिकैत की मंशा भले ही राजनीतिक न हो और वे किसानों के हित में संघर्ष को जारी रखना चाहते हैं, लेकिन यूपी के मुजफ्फर नगर में हुई किसान महा पंचायत में उन्होंने साफ संदेश दिया है कि वे आगामी लोकसभा चुनाव में केंद्र सरकार को बख्शने के मूड़ में नहीं हैं। टिकैत की हुंकार में राजनीतिक दल शुरू से ही अपने हित तलाशते आ रहे हैं, लेकिन अब कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, वो उनकी सक्रियता बढ़नी स्वाभाविक है।
राजनीतिक पार्टियों को किसान आंदोलन के शुरू होते ही इसमें अपने भविष्य की संभावनाएं दिखाई देने लगी थी। अतीत का इतिहास रहा है कि जब-जब भी सत्ता के खिलाफ आंदोलन हुए विपक्ष को इसका फायदा मिला हैं अब मुजफ्फरनगर की महा पंचायत में किसान नेता टिकैत ने जो सख्त तेवर दिखाएक उसके बाद न विपक्षी पार्टियों की सक्रियता और बढ़ जाएगी टिकैत ने साफ कहा है कि वह राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर देंगे। हालांकि टिकैत के लिए भी यह काम इतना आसान नहीं है। उनकी भूमिका या रणनीति को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। किसान यूनियन सम्मान के राष्ट्रीय अध्यक्ष भानु प्रताप ने उन्हें चुनौती दी है कि वे टिकैत से चार गुना ज्यादा किसानों की पंचायत करेंगे। भानु ने तो यहां तक कह दिया कि टिकैत को कांग्रेस की फंडिंग हो रही है। किसान नेता भानु प्रताप की बात को टिकैत यह कहकर टाल सकते हैं कि वे तो उनके विरोधी हैं और भाजपा के साथ हैं लेकिन यह अहम टिकैत का पीछा करता रहेगा कि पंजाब में कॉन्टेªक्ट का पालन न करने पर किसानों को जेल की सजा है। आखिर टिकैत ने इस बारे में क्यों नहीं मुखर हैं? क्या इसलिए कि वहां कांग्रेस की सरकार हैं?
गौरतलब है कि देश में जब से तीन नए कृषि कानून पारित हुए हैं तब से लगातार इन कानूनों के खिलाफ टिकैत के नेतृत्व में विरोध-प्रदर्शन जारी है। अगले दो-तीन महीनों में पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में केंद्र के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों ने अपना आंदोलन और तेज कर दिया है। पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव प्रचार तेज हो रहा है, लेकिन सबकी निगाहें खासकर उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई हैं। ऐसा इसलिए कि जिस तरह हाल ही में हुई किसानों की
महापंचायत में किसानों का शक्ति प्रदर्शन देखने को मिला उससे केंद्र और राज्य की योगी सरकार की अगली रणनीति क्या होगी? फिलहाल अभी राज्य के कई विधानसभा क्षेत्रों में योगी सरकार का जनसंवाद कार्यक्रम जारी है।
किसान आंदोलन के तेज होते ही सवाल उठ रहा है कि क्या यह यूपी के सियासी समीकरण बदल देगा? राज्य में किसान आंदोलन का सर्वाधिक असर पश्चिम के कुछ जिलों में है। यह वह भूमि है, जहां कभी किसान नेता चौधरी चरण सिंह का डंका बजता था, लेकिन धीरे-धीरे उनका यह गढ़ कमजोर होता चला गया। हालात यह हो गए कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) का यह गढ़ ध्वस्त हो गया। चौधरी चरण सिंह के उत्तराधिकारी चौधरी अजीत सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी लोकसभा चुनाव हार गए। क्या किसान आंदोलन से राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव आएगा? आज कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या इस बार बीजेपी का किला पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धराशायी हो जाएगा? क्या किसान आंदोलन उत्तर प्रदेश की राजनीति में वह परिवर्तन ला पाएगा, जो केंद्र की सत्ता को भी हिला दे? हालांकि इन तमाम सवालों के जवाब तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि इस बार पश्चिम उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त मुकाबला होगा। इस राजनीतिक महाभारत के लिए मैदान अभी से सजने लगा है।
किसान पंचायत में जुटी भारी भीड़ से आंदोलन को तो मजबूती मिलेगी ही, इससे विपक्षी दलों का हौसला भी बढ़ेगा। किसान नेताओं को लगता है कि मुजफ्फरनगर की किसान पंचायत केंद्र सरकार को बातचीत के लिए मजबूर कर देगी, लेकिन चुनाव की तैयारी में लगे राजनीतिक दल इसमें अपने लिए सुनहरा मौका तलाश रहे हैं। विपक्षी दलों को भरोसा है कि किसान आंदोलन उनके लिए वरदान साबित होगा। कांग्रेस, सपा, बसपा, सभी को नई उम्मीदें जगी हैं। सबसे ज्यादा आश्वस्त आरएलडी है कि उसे अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस मिल जाएगी।
जमीनी स्तर पर देखने से भी लगता है कि किसान आंदोलन के समर्थक और उनके कर्ता-धर्ता आरएलडी के साथ हैं। उनका झुकाव न तो ज्यादा कांग्रेस की तरफ है और ना ही बीएसपी की ओर। इसलिए आरएलडी को इस आंदोलन से कहीं ज्यादा उम्मीदें हैं। भारतीय किसान यूनियन से जुड़े नेता वे सारे प्रयास कर रहे हैं, जिससे वह गठजोड़ फिर कायम किया जा सके, जो चौधरी चरण सिंह ने मजबूती से तैयार किया था। यानी मुस्लिम और जाट गठजोड़। किसान पंचायत में ‘अल्लाह हू अकबर’ और ‘हर-हर महादेव’ के जोर नारे लगे उनके पीछे की यही सियायी रणनीति बताई जा रही है। दरअसल, यह गठजोड़ 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के कारण टूट गया था। तब जाटों और मुसलमानों के बीच दरार पड़ गई थी। आज ये दोनों समुदाय एक दूसरे से जुड़ते हुए दिख रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में एसपी, बीएसपी और आरएलडी के गठबंधन के बावजूद अजीत सिंह और जयंत चौधरी का अपने क्षेत्रों मुजफ्फरनगर और बागपत से हार जाना बहुत बड़ी राजनीतिक घटना थी। उस वक्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ा और सवर्ण मतदाता बीजेपी के साथ था। इसीलिए इतने मजबूत जातीय समीकरणों से बने महागठबंधन से बीजेपी ने कांटे की लड़ाई लड़ी थी। पिछले दो वर्ष में क्या इस समीकरण में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है? यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन एक बात साफ है, कि जाट मतदाता पिछली बार से कहीं ज्यादा इस बार आरएलडी के साथ खड़े हैं। उत्तर प्रदेश के बाद हरियाणा में किसानों का आंदोलन तेज है। राज्य के करनाल जिले में पिछले हफ्ते संयुक्त किसान मोर्चा ने महापंचायत बुलाने के साथ ही मिनी सचिवालय का घेराव भी किया। अभी बड़ी संख्या में किसान वहां डटे हुए हैं। इससे पहले संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं से प्रशासन की बातचीत नाकाम रही। जिला प्रशासन ने पहले ही शहर में धारा 144 लगा दी है और करनाल सहित पांच जिलों में इंटरनेट सेवाओं को बंद कर दिया गया है।
भाजपा साबित करने में जुटी है कि यह बड़ी-बड़ी जोत वाले कुछ लोगों का आंदोलन है और इसका आम किसानों से कुछ लेना देना नहीं है। वह समझाने में लगी है कि किसान पंचायतों में जुटने वाली भीड़ किसानों की नहीं, बल्कि विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं की है। उसका कहना है कि अगर ये लोग किसान होते तो आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी
होता। पिछड़ों और सवर्ण बहुल गांव में जाने से आंदोलन के बारे में सुर बदले दिखते हैं। इसमें दो राय नहीं है कि पिछड़ों के बीच बीजेपी की पकड़ अभी भी मजबूत बनी हुई है।
आंदोलन का भविष्य
वर्ष 2019 और आज की चुनावी परिस्थितियों के बीच एक अंतर भी है। बीएसपी अकेले ही मजबूती से यहां चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसका जनाधार है। 2019 में तो यह साफ दिखता था कि बीएसपी समर्थित वोट चुनावी गठजोड़ के कारण एकजुट होकर महागठबंधन के साथ गया था। इस बार ऐसी संभावनाएं बहुत कम हैं।
2019 में मुसलमानों के सामने भी कोई उलझन नहीं थी क्योंकि बीजेपी का मुकाबला सीधे महागठबंधन से था। इस बार ऐसी स्थिति नहीं है। किसान आंदोलन इस क्षेत्र की राजनीति को प्रभावित जरूर कर रहा है, लेकिन सामाजिक समीकरण बहुत उलझे हुए हैं। फिर भी यहां चुनावी जंग तीखी भी होगी और रोचक भी। यह भी तय है कि चुनावी नतीजे ही तय करेंगे कि किसान आंदोलन सफल रहा या असफल।