कुछ दिन पहले कैग ने दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी की है। इसमें बताया गया है कि दिल्ली सरकार के पास अतिरिक्त राजस्व है।इसके बावजूद दिल्ली सरकार पर 2,268.93 का कर्ज है। दिल्ली सरकार के कई सरकारी योजनाएं भी विफल रही हैं।
दिल्ली में वर्ष 2002 में दिल्ली बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर बोर्ड की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य राज्य में निर्माण क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों के कल्याण के लिए मदद करना है अर्थात दुर्घटना के समय मदद करना, 60 वर्ष से ज्यादा उम्र के श्रमिकों को पेंशन देना, श्रमिकों के बच्चों को पढ़ने के लिए आर्थिक मदद देना, बीमा योजना, श्रमिकों को घर बनाने के लिए कर्ज देना आदि । इसके लिए सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड अधिनियम-1996 के तहत श्रमिकों के कल्याण की परिकल्पना की गई। इस अधिनियम के जरिए दिल्ली में हर नए निर्माण पर एक प्रतिशत सेस लगाने का प्रावधान है। इस सेस के जरिए डीबीओसीडब्ल्यू बोर्ड श्रमिकों के कल्याण के लिए काम करता है। वर्ष 2002 से 2019 के बीच दिल्ली सरकार को इस सेस के जरिए 3,273.64 करोड़ मिले लेकिन श्रमिकों के ऊपर इस दौरान सिर्फ 182.88 करोड़ ही खर्च किए गए।
वर्ष 2002 से 2013 के दौरान दिल्ली में कांग्रेस की दीक्षित सरकार थी। उस दौरान करीब 2,217 करोड़ रुपए जमा हुए थे जबकि वर्ष 2016 से वर्ष 2019 के बीच केजरीवाल सरकार के कार्यकाल में लगभग 1,056.55 करोड़ रुपए इस सेस के जरिए जुटाए गए । अगर खर्च के नजरिए से देखें तो दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सरकार में इसमें से सिर्फ 61.41 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। जबकि वर्ष 2016 से 2019 के बीच केजरीवाल के कार्यकाल में 121.47 रुपए खर्च किए गए। इसका मतलब सेस के तौर पर जमा कुल राशि में से सिर्फ 5.59 प्रतिशत ही श्रमिकों के कल्याण पर खर्च हुआ। लेकिन अब एक ओर जहां यह सेस श्रमिकों के कल्याण पर खर्च नहीं किया जा रहा है वहीं दिल्ली सरकार दिल्ली की सरकारी बस में श्रमिकों को मुफ्त यात्रा करवाने का प्रचार ज़ोर-शोर से कर रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक,आम आदमी पार्टी विधायक आतिशी का कहना है कि फ्री बस यात्रा से श्रमिक प्रतिमाह 1500-2000 रुपये की बचत कर पाएंगे, जिसका इस्तेमाल वे अपने परिवार के बेहतर भरण-पोषण के लिए कर सकेंगे।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 18 जनवरी 2010 को सभी राज्यों को आदेश दिया था कि मीडिया, ऑल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन आदि का उपयोग कर, निर्माण श्रमिकों के रजिस्ट्रेशन कर इस योजना के फायदों को लेकर श्रमिकों को जागरूक किया जाए ताकि इसका फायदा श्रमिकों को मिल सके,लेकिन नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट बताती है कि श्रमिकों को जागरूक करने को लेकर कोई कदम नहीं उठाए गए हैं ।साथ ही कैग को श्रमिकों को जागरूक करने के लिए कैंप लगाए जाने या कोई पर्चा बांटे जाने से संबंधित कोई रिकॉर्ड भी नहीं मिला है ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जागरूकता नहीं होने के कारण ही श्रमिकों को बोर्ड से फायदा नहीं मिल पा रहा है, और न ही बोर्ड नए श्रमिकों को जोड़ने की कोई कोशिश कर रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा अन्य योजनाओं का विज्ञापन दिया जा रहा है लेकिन जिन श्रमिकों की बात सरकार करती है उनकी जागरूकता का प्रचार-प्रसार नहीं हो रहा है। हालांकि दिल्ली सरकार ने एक मार्च, 2020 से 30 जुलाई 2021 के बीच श्रमिकों की जागरूकता के लिए 490.72 करोड़ खर्च किए हैं। वंही बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर बोर्ड के मुताबिक दिल्ली में 10 लाख भवन निर्माण से जुड़े श्रमिक हैं लेकिन बोर्ड के आंकड़े कुछ और ही हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि साल 2019 में बोर्ड में केवल 17,339 श्रमिक ही रजिस्टर हुए, जो कि कुल अनुमान का 1.73 प्रतिशत है। वर्ष दर वर्ष , रजिस्टर्ड श्रमिकों की संख्या में गिरावट आ रही है। वर्ष 2016-17 में 1,11,352 श्रमिक रजिस्टर हुए जो वर्ष 2017-18 में घटकर 67,823 हो गए थे। वहीं वर्ष 2018-19 में घटकर 5,409 हो गए। इसके अलावा निर्माण श्रमिकों के रिकॉर्ड को लेकर जिला स्तर पर भी ढिलाई देखने को मिली है। दिल्ली के दक्षिण पश्चिम जिले में मार्च 2019 तक 1,44,325 भवन निर्माण से जुड़े श्रमिक रजिस्टर्ड हैं, जिनमें से 1,43,904 श्रमिकों का आवेदन जिले के पास नहीं है इसलिए कैग जिले में रजिस्टर्ड श्रमिकों का ऑडिट नहीं कर पाई। इसी तरह दिल्ली उत्तर पश्चिमी जिले में वर्ष 2016 से 2019 तक 1,19,082 श्रमिक रजिस्टर हुए। जिसमें से 45,545 आईडी कार्ड श्रमिकों को नहीं बल्कि कंस्ट्रक्शन वर्कर्स यूनियनों के नाम पर जारी हो गए, जो श्रमिकों की सही संख्या पर सवाल खड़े करते हैं।
दिल्ली के उपराज्यपाल ने वर्ष 2018 में श्रमिकों के रजिस्ट्रेशन संख्या को बढ़ाने और फर्जी आवेद को रोकने तथा निर्माण स्थल पर काम कर रहे श्रमिकों को रजिस्टर करने के लिए एनडीएमसी, पीडब्ल्यूडी, सीपीडब्ल्यूडी, डीजेबी, एमसीडी, डीडीए और अन्य विभागों को आदेश दिया था। लेकिन इनमें से किसी भी विभाग ने निर्माण स्थल पर काम कर रहे किसी भी श्रमिक को जनवरी 2020 तक रजिस्टर नहीं किया था। दो वर्ष में जितने भी निर्माण कार्य दिल्ली में हुए उस दौरान वहां काम कर रहे किसी श्रमिक को आदेश के बावजूद रजिस्ट्रेशन करने के लिए विभागों ने कोई पहल नहीं की है।
सबसे ज्यादा लंबित मामले
नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक ने अपनी रिपोर्ट में आगे बताया है कि वर्ष 2016-19 के बीच श्रमिकों के कल्याण पर 121.27 करोड़ रुपए खर्चा किया गया, वहीं इस अवधि में सरकार को 1056.55 करोड़ रुपए का सेस मिला यानी की कुल सेस का मात्र 11.50 प्रतिशत ही खर्च हुआ है। जुलाई 2019 तक करीब 3,919 आवेदन मुआवजे राज्य के कई जिलों में लंबित हैं लेकिन अभी तक इन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। वर्ष 2015 की कैग रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र किया गया था लेकिन फिर भी केजरीवाल सरकार ने श्रमिक के आवेदनों के निर्णय पर कोई तत्परता नहीं दिखाई दी है।
वर्ष 2016-19 के बीच कुल श्रमिकों के लिए 19 कल्याणकारी योजनाओं में से छह में कोई भी खर्च नहीं किया गया है। तीन वर्षो में कुल 121.47 करोड़ नौ अलग-अलग योजनाओं पर खर्च किए गए है जिसमें से 104.74 करोड़ रुपए श्रमिकों के बच्चों को पढ़ाई के लिए आर्थिक मदद के तौर पर दिए गए। लेकिन बोर्ड के पास कितने श्रमिकों के बच्चों को आर्थिक मदद दी गई इसका कोई आंकड़ा नहीं है। जिन मामलों में मदद दी भी गई वह भी संदेह में है। कैग की रिपोर्ट में बताया गया कि श्रमिकों मृत्यु के बाद उनके परिवार को दिए जाने वाली आर्थिक मदद में भी कई तरह की नियमहैं। एक उदाहरण के लिए 54 मृत श्रमिक, जिनके परिवार को 46.94 लाख रुपए की मदद दी गई। लेकिन इन मज़दूरों के पास रजिस्ट्रेशन कराने से पहले से ही श्रमिक आईडी कार्ड था लेकिन कई मज़दूर ऐसे भी थे जिनको को मदद दी गई थी इतना ही नहीं इन सबका रजिस्ट्रेशन मौत के बाद हुआ था।
ऐसा ही कुछ पेंशन स्कीम में भी हुआ है। इस योजना के मुताबिक पेंशन 60 साल की उम्र पूरा करने के बाद ही दी जाती है लेकिन 7 ऐसे श्रमिकों को पेंशन दी गई है। जिनका रजिस्ट्रेशन ही 60 साल की उम्र के बाद किया गया है।वहीं चार श्रमिक ऐसे भी थे जिनको 60 वर्ष पूरा किए बिना ही पेंशन जारी कर दी गई।रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि बीओसीडब्ल्यू श्रम विभाग के अधिनियम के अनुसार एक राज्य एडवाइजरी बोर्ड का गठन होना चाहिए, जो सरकार को सलाह देने का काम करे। वर्ष 2002 में एक एडवाइजरी बोर्ड का गठन भी हुआ था, जिसका कार्यकाल वर्ष 2005 में ख़त्म हो गया। वर्ष 2005 से खाली पदों को 14 वर्ष बाद वर्ष 2019 में भरा गया था। इसके साथ ही इस दौरान बोर्ड की कोई बैठक भी नहीं हुई।
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि बोर्ड का गठन जिस उद्देश्य से किया गया, वह उसे पूरा नहीं कर पा रहा है। इसलिए दिल्ली सरकार इस बोर्ड के कामकाज की समीक्षा करे और साथ ही मज़दूरों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और उनके सामाजिक संरक्षण को लेकर कदम उठाए।