मध्यप्रदेश में हुए उपचुनाव में कांग्रेस को 28 सीटों में से महज 9 सीटें ही मिली है। राज्य में कुल 355 उम्मीदवार मैदान में थे। इस बार भाजपा और कांग्रेस के अलावा बसपा ने सभी 28 विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवार मैदान में उतारे। उसके अलावा सपा ने भी 14 क्षेत्रों के लिए उम्मीदवार तय किए थे। 19 सीटें जीतने के बाद शिवराज सिंह चौहान की सरकार राज्य में बनी रहेगी, और कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिधिंया का कद भाजपा में और बढ़ गया। एक तरफ ज्योतिरादित्य सिधिंया का कद बढ़ा तो दूसरी तरफ कांग्रेस नेता कमलनाथ का कद छोटा पड़ गया। उपचुनाव की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने कमलनाथ पर छोड़ी हुई थी। लेकिन कमलनाथ वो कमाल नहीं दिखा पाए। कमलनाथ सिंधिया और उनके समर्थकों को संभाल नहीं पाए, इससे हाईकमान पहले से नाराज था। जब चुनाव की बारी आई तो, हाईकमान ने सारी जिम्मेदारी कमलनाथ के जिम्मे डाल दी। शायद यह कहते हुए कि आपने ही बिगाड़ा, आप ही सुधारिये।
सस्ते बिजली बिल और माफिया के खिलाफ अभियान को लोगों ने जरूर पसंद किया था, लेकिन बिकाऊ नहीं-टिकाऊ चाहिए लोगों को कनेक्ट नहीं कर पाया। उपचुनाव में कमलनाथ से पार्टी के शीर्ष नेता काफी नाराज नजर आए थे। राहुल गांधी ने उपचुनाव में एक भी रैली नहीं कि और न ही कांग्रेस को कोई बड़ा नेता कमलनाथ के समर्थन में वोट मांगने मध्यप्रदेश गया। उपचुनाव में मिली करारी हार के बाद कमलनाथ ने सोनिया गांधी से दिल्ली में मीटिंग की थी। सोनिया ने इस दौरान कमलनाथ को संगठन में बदलाव करने के दिशा-निर्देश भी दिए हैं। चुनाव के दौरान अक्टूबर कमलनाथ द्वारा इमरती देवी पर की गई टिप्पणी से सोनिया गांधी नाराज बताई गई हैं। कमलनाथ के आइटम वाले बयान के बाद राहुल गांधी ने भी उन्हें माफी मांगने के लिए कहा था लेकिन कमनलाथ ने माफी नहीं मांगी थी। कमलनाथ साल 1980 में 34 साल की उम्र में छिंदवाड़ा से पहली बार सांसद का चुनाव जीते। वह 9 बार लोकसभा के लिए चुने जा चुके हैं। 1991 से 1995 तक वह नरसिम्हा राव सरकार में पर्यावरण मंत्री रहे। इसके बाद वह कपड़ा मंत्री रहे। मनमोहन सरकार में वह वाणिज्य मंत्री चुने गए। इसके बाद उन्हें सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय मिला। साल 2012 में कमलनाथ संसदीय कार्यमंत्री बने। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कमलनाथ को राजीव गांधी और संजय गांधी के बाद अपना तीसरा बेटा मानती थीं। संजय गांधी से दोस्ती के कारण ही कमलनाथ राजनीति में आए थे। 1993 में भी कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने की चर्चा थी। बताया जाता है कि तब अर्जुन सिंह ने दिग्विजय सिंह का नाम आगे कर दिया। इस तरह कमलनाथ उस समय सीएम बनने से चूक गए थे।
आपातकाल के दौरान जब जनता पार्टी की सरकार थी, तब संजय को तिहाड जेल में जाना पड़ा था। तब इंदिरा को संजय की सुरक्षा को लेकर चिंता होने लगी। तभी कमनलाथ जज से लड़ गए, तब जज ने उन्हें सात दिन के लिए तिहाड जेल भेज दिया था। 2108 में कमनाथ प्रदेश मुख्यमंत्री बने थे। 5 जून 2018 को कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। सबसे पहले मार्च में सिंधिया समर्थक छह मंत्रियों व 19 विधायकों समेत कांग्रेस के कुल 22 विधायक भाजपा में शामिल हुए थे। फिर 12, 17 और 23 जुलाई को क्रमश: प्रद्युम्न सिंह पटेल, सुमित्रा कास्डेकर और नारायण पटेल ने भी भाजपा का दामन थाम लिया। इस दौरान प्रदेश में कांग्रेस की कमान कमलनाथ के पास ही थी। जब पहली बार 22 विधायक पार्टी छोड़कर गए तब कमलनाथ मुख्यमंत्री और प्रदेशाध्यक्ष थे। फिर जब एक-एक करके तीन विधायक और पार्टी से टूटे, तब भी वे प्रदेशाध्यक्ष और सदन में नेता प्रतिपक्ष थे। राज्य में कांग्रेस को एकजुट रखने और निर्णायक फैसले लेने वाले पद कमलनाथ के ही पास थे। लेकिन, पार्टी टूटती रही पर कमलनाथ अपने पदों पर बने रहे जबकि सिंधिया की बगावत के बाद प्रदेश प्रभारी दीपक बाबरिया को इस्तीफा देना पड़ा। राजनीतिक विश्लेषक मानते है कि सिधिंया ने अगर कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थामा था तो उसके पीछे की वजह भी कमलनाथ थे। ऊपर से जितने भी विधायक या मंत्री पार्टी छोड़कर गए, सभी ने समान आरोप लगाए कि कमलनाथ मिलने तक भी समय नहीं देते थे, कमलनाथ के दरबार में उनकी सुनवाई नहीं होती थी। जिन विधायकों ने काग्रेंस छोड़ी उन पर ये आरोप लगा कर टाल दिया जाता रहा कि उन्होंने पैसे और पद के लालच में आकर भाजपा को चुना है। पंरतु कमलनाथ ने कभी अपने गिरेबां में झांककर नहीं देखा। जिसका नतीजा आज कांग्रेस भुगत रही है। कमलनाथ के काम करने के तरीकें, विधायकों से मतभेद और विधायकों को मिलने का समय नहीं देने के कारण ही कांग्रेस मध्यप्रदेश में टूट गई है। कांग्रेस ने कमलनाथ को प्रदेश का जिम्मा इसलिए दिया था कि वो राज्य में टूटे कांग्रेस के नेताओं को मना ले, क्योंकि वह वरिष्ठ नेता है। लेकिन हुआ इसके उलट सुधार की बजाय प्रदेश कांग्रेस में और दरारें आने लगी। इसी के चलते राज्य में कांग्रेस की सरकार 15 महीनों में ही गिर गई। सबसे पहले कमलनाथ के खिलाफ बगावत का बिगुल पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव ने फूंका। अरुण को मनाने का काम दिग्विजय सिंह ने किया। उसके बाद कमलनाथ द्वारा की गई नियुक्तियों के चलते पूर्व केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी नटराजन नाराज हुईं तो उन्हें भी दिग्विजय ने ही मनाया। विधानसभा चुनावों से पहले जब-जब पार्टी में बगावत फूटी, उसे दिग्विजय सिंह ने ही दबाया। कमलनाथ की पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ गोपनीय बैठकों के अनेक वीडियो लीक हुए, जिनमें कभी वे अपराधियों को चुनाव लड़ाने का समर्थन करते दिखे तो कभी महिला विरोधी बयान देते। गांधी परिवार के ज्यादा नजदीक होने के कारण ही कांग्रेस नेता उनके बड़बोलेपन को सहन कर रहे है। किसान मुद्दे पर सरकार बनाने वाले कमलनाथ बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में न तो स्वयं जमीनी दौरे पर गए और न ही उनका कोई प्रतिनिधि पहुंचा। पंरतु तब मौके पर चौका मारकर पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते शिवराज सिंह ने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। आज शिवराज मुख्यमंत्री हैं।
कमलनाथ के नेतृत्व पर उठती उंगुलियां और उन पर लगते आरोपों की सूची तो बहुत लंबी है। जैसे मीडिया के साथ उनके सुरक्षाकर्मियों की बदसलूकी, क्षेत्रीय मीडिया को तवज्जो न देना, दिग्विजय के इशारे पर फैसले लेना, उनकी सरकार में उपजे अंदरूनी विवादों को संभाल न पाना, उनके ही मंत्रियों द्वारा उन पर भेदभाव का आरोप लगाने पर मंत्रियों से उनका मुंहवाद हो जाना आदि। कांग्रेस विधायकों और अन्य नेताओं का आरोप है कि कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के सभी पदों पर इसलिए धरना लगाए हुए हैं ताकि आने वाले विधानसभा चुनाव में अपने बेटे नकुलनाथ के लिए पार्टी में जगह बना सकें। राजनीति के जानकार मानते हैं कि कमलनाथ और दिग्विजय के बीच प्रतिस्पर्धा वास्तव में अपने-अपने बेटों को आगे बढ़ाने की है। अगर दोनों इसी तरह परिवारवाद को बढ़ावा देते रहे तो प्रदेश में कांग्रेस के खत्म होने की नौबत आ सकती है। कमलनाथ को सभी कार्यकर्ताओं से ईर्ष्या छोड़कर पार्टी को मजबूत करने पर ध्यान देना होगा। ताकि आगामी 2023 के विधानसभा चुनाव में पार्टी अच्छा प्रदर्शन कर सकें। फिलहाल कमनलाथ को उपचुनाव में मिली हार का ब्यौरा कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को देना है। उसके बाद उनके खिलाफ पार्टी क्या एक्शन लेती है यह तो आने वाला समय ही बताएगा। बहरहाल राजनितिक गलियारों में चर्चा है कि उन्हें राज्य से दरकिनार किया जाएगा।