“न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना,मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना। करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख,अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना।” ये पंक्तियां सिर्फ एक कविता नहीं है लहू के कण-कण के उस हौसले की कहानी है जो देश के वीरों ने अपनी जान देकर लिखी है।9 अगस्त 1924 को काकोरी कांड को अंजाम देने वाले क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिशएन के सदस्य थे। इस संगठन की स्थापना 1923 में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने की थी। इस क्रांतिकारी दल का काम देश की लड़ाई के लिए पैसे का इंतजाम करना था। इसके लिए इसके सदस्य डकैती तक डालने से परहेज नहीं करते थे। इस काम के कारण सरकार क्रांतिकारियों को चोर या डाकू कह कर उन्हें समाज से अलग करने का प्रयास कर रही थी। सरकार के ऐसे प्रयास के बाद क्रांतिकारियों ने सिर्फ सरकारी खजाना लूटने का प्रयास किया। काकोरी कांड इसकी एक अहम कड़ी बनी। 9 अगस्त 1925 को अंग्रेजी सत्ता से पौने पांच हजार रुपए की डकैती हुई थी। जिसके बाद इस घटना को लोग काकोरी कांड के नाम से जानने लगे। इस घटना को भले ही 90 साल से अधिक गुजर गए हों, लेकिन आज भी उस समय के निशान दिखाई देते हैं। ![]() ट्रेन लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही आगे बढ़ी तभी क्रांतिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया। इसके बाद भाग कर गार्ड के डब्बे के पास पहुंचे। सभी को पता था सरकारी खजाना वहीं है। गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा खींच कर नीचे गिरा दिया और खोलने की कोशिश में लग गए। काफी कोशिश के बाद भी जब बाक्स नहीं खुला, तब अशफाक उल्ला खां ने अपना तमंचा मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए। इसी वक्त एक हादसा हुआ। मन्मथनाथ गुप्त की गलती से तमंचे का घोड़ा दब गया और ट्रेन में यात्रा कर रहे अहमद अली नाम के मुसाफिर की मौत हो गई। बक्सा तोड़ने के बाद क्रांतिकारियों ने खजाने को चादर में समेट कर भागने लगे। इसी दौरान क्रांतिकारियों की एक चादर घटनास्थल पर ही छूट गई। जिसके बाद अंग्रेज पुलिस पड़ताल करते हुए शाहजहांपुर पहुंच गई, जहां चादर पर लगे निशान से पता चला कि यह चादर बनारसीलाल की है। इसके बाद तो सारा भेद पुलिस के सामने खुल गया। बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से जानकारी लेकर पुलिस ने देश भर मेें छापेमारी शुरू कर दी। काकोरी कांड का दिल्ली कनेक्शन भी है। काकोरी कांड के बाद जब देश भर से छापेमारी का दौर शुरू हो गया। इसके बाद पुलिस ने देश भर के करीब डेढ़ दर्जन शहरों से 50 लोगों को गिरफ्तार किया था। इसी में एक शख्स था जो इस कांड को अंजाम देने में आगे रहा था, वह था अशफाक उल्ला खां। अशफाक पुलिस की नजरों से बचने के लिए दिल्ली की गलियों में छुपे थे, मगर किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और वह पकड़े गए। 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी कांड का मुकदमा 10 महीने तक चला था। इसके बाद राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह को फांसी के तख्त पर लटका दिया। आजादी के प्रेमी इन तीनों दीवानों को 19 दिसंबर, 1927 को ही फांसी की सजा सुनाई गई थी, जिसे हम बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं। सचिंद्र सान्याल और सचिंद्र बख्शी को कालापानी की सजा दी गई थी।बाकी क्रांतिकारियों को 4 साल से 14 साल तक की सजा सुनाई गई थी। 25 साल की उम्र में अशफाक ने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार की नाक के नीचे से सरकारी खजाना लूट लिया था। जिसके बाद पूरी ब्रिटिश सरकार को मुंह की खानी पड़ी। इस घटना के सबसे बड़े नाम रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला अपनी शायरी और कविताओं के लिए भी काफी प्रसिद्ध थे। रामप्रसाद बिस्मिल की शायरी ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,’ आगे चलकर आजादी के दीवानों का पसंदीदा गीत बन बन गया और आज भी इसे गुनगुनाने जाता है। वहीं अशफाक उल्ला भी शायरी में पीछे नहीं थे।उनकी लिखी कई कविताएं और शायरियां देशभक्ति में डूबी हुई रहती थी जैसे कि पढ़ने वाले के दिलों अंदर से झकझोर कर रख देती हैं।
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जरा याद करो कुर्बानी….
