देश में कॉलेजियम के जरिए जजों की नियुक्ति का मसला गहराता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट और सरकार एक-दूसरे पर खुलकर बयानबाजी करने लगे हैं। संविधान में भी कॉलेजियम सिस्टम के जरिए जजों की नियुक्ति के प्रावधान का कोई जिक्र नहीं है। वहीं सरकार भी इस संबंध में आज तक कोई कानून लेकर नहीं आई है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि इस समस्या का समाधान कैसे निकलेगा?
भारतीय लोकतंत्र के दो स्तंभ न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर टकराव बढ़ता ही जा रहा है। जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केंद्र सरकार का सिस्टम सही से काम नहीं कर रहा है। कॉलेजियम ने जजों की सिफारिश कर दी है, इसके बावजूद केंद्र सरकार ने अभी तक जजों की नियुक्ति नहीं की है।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति पर सुनवाई के दौरान कहा कि लगता है कि सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के रद्द किए जाने से नाखुश है। केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति पर बैठी रहेगी तो सिस्टम कैसे काम करेगा। हमें न्यायिक पक्ष पर फैसला करने को विवश ना करें। अदालत ने सरकार के प्रतिनिधि यानी अटॉर्नी जनरल को कहा है कि वे सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए सलाह दें कि देश के कानून का पालन किया जाए।
ऐसे में उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच जो गतिरोध चल रहा है उससे क्या यह माना जाए कि अब यह मामला निर्णायक दौर में पहुंच गया है? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि उच्च अदालतों और सर्वोच्च अदालत में जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम जब से बना है तभी से सरकार और सर्वोच्च अदालत में टकराव चलता आ रहा है। लेकिन इससे पहले कभी किसी कानून मंत्री ने ऐसे दो टूक अंदाज में अदालत को जवाब नहीं दिया था, जैसा किरेन रिजीजू ने दिया है। इससे पहले कभी टकराव में ऐसी निरंतरता भी नहीं रही है और न कभी सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम की इतनी सिफारिशें एक साथ लौटाई गई हैं। सरकार ने एक साथ 19 सिफारिशें लौटा दी हैं, जिनमें 10 सिफारिशें तो ऐसी हैं, जो दोबारा भेजी गई थीं। सुप्रीम कोर्ट ने सेकेंड जज केस में 1993 में जो फैसला दिया था और जिसके आधार पर कॉलेजियम बना था, उसके मुताबिक दोबारा भेजी गई सिफारिश को मानने के लिए सरकार बाध्य है लेकिन सरकार ने ऐसी 10 सिफारिशें सुप्रीम कोर्ट को वापस भेज दी हैं।
देश के कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना करते हुए इसे भारतीय संविधान के लिए ‘एलियन’ जैसी चीज कहा और पूछा कि संविधान के किस अनुच्छेद में इसका प्रावधान किया गया है? इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि अगर न्यायपालिका को लगता है कि सरकार उसकी सिफारिशों को लटका कर रखती है तो वह सरकार को नाम मत भेजे, खुद नियुक्ति करे और सब कुछ खुद करे। कानून मंत्री की इस टिप्पणी से नाराज सुप्रीम कोर्ट के दो जजों- जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस अभय ओका की बेंच ने कहा कि बहुत उच्च स्तर से यह बात कही गई है, ऐसा नहीं होना चाहिए। यह सही है कि कॉलेजियम सिस्टम का संविधान में जिक्र नहीं है और संविधान सभा की बहस में जजों को नियुक्ति के अधिकार देने के सुझाव को खारिज करके यह अधिकार कार्यपालिका को दिया गया था। लेकिन पिछले करीब 30 साल से कॉलेजियम सिस्टम देश में लागू है।
ऐसी स्थिति एक तरफ सरकार की है, जो सर्वोच्च अदालत की ओर से जजों की नियुक्ति के लिए भेजी गई सिफारिशों को वापस लौटा रही है और कॉलेजियम सिस्टम को ‘एलियन’ बता कर उसे संविधान विरुद्ध साबित कर रही है। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के लिए नियुक्ति की यह व्यवस्था ऐसा पवित्र प्रावधान है, जिस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
गौरतलब है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद इस व्यवस्था को बदलने का एक सुविचारित प्रयास हुआ था। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी का बिल 2015 में संसद से पास किया गया था, जिसमें उच्च अदालतों में जजों की नियुक्ति के लिए पांच लोगों का आयोग बनाने का प्रावधान था। इसमें सुप्रीम कोर्ट के दो जज, देश के कानून मंत्री और सरकार की ओर से नामित दो प्रख्यात नागरिकों या कानूनविदों को रखने का प्रावधान था। लेकिन एक साल बाद 2016 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने इसे खारिज कर दिया। उसके बाद सरकार ने दोबारा इसकी विधायी पहल नहीं की।

इसीलिए सवाल सरकार की मंशा और उसके प्रयासों पर उठ रहा है। भले संविधान में कॉलेजियम सिस्टम का प्रावधान नहीं है लेकिन देश में जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम लागू है। यह ‘लॉ ऑफ द लैंड’ है कि नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की कॉलेजियम की सिफारिश पर होगी। केंद्र की मौजूदा सरकार ने भी इसे स्वीकार किया है तभी आठ साल से नियुक्ति की यह प्रक्रिया जारी है। इसलिए अचानक ऐसा नहीं हो सकता है कि सरकार यह कानून न माने। दूसरा पहलू यह है कि अगर कॉलेजियम सिस्टम असंवैधानिक है तो उसके जरिए हुई तमाम नियुक्तियां असंवैधानिक हो जाएंगी और इस काम में केंद्र की सरकार भी बराबर की भागीदार मानी जाएगी क्योंकि अंतिम तौर पर नियुक्ति उसकी मंजूरी और राष्ट्रपति के वारंट से ही होती है। हालांकि सरकार को कानून बदलने और नया कानून बनाने का अधिकार है। इससे पहले कितनी बार सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलटने के लिए कानून बनाए हैं। लेकिन यह नहीं हो सकता है कि जब तक कानून लागू है तब तक सरकार उसका पालन न करे। अगर सरकार ही किसी कानून का पालन नहीं करेगी तो लोगों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे कानून का पालन करें? इसलिए कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाना अपनी जगह है लेकिन जब तक वह सिस्टम सरकार बदलती नहीं है तब तक उसे उसका पालन करना चाहिए। इसलिए यह सिस्टम बदलना चाहिए। लेकिन सवाल है कि इसकी जगह कौन-सा सिस्टम हो?
भारतीय जनता पार्टी के नेता हर साल इमरजेंसी की बरसी के मौके पर इंदिरा गांधी सरकार की आलोचना करते हुए बताते हैं कि कैसे कई वरिष्ठ जजों को दरकिनार करके उन्होंने जस्टिस अजित नाथ रे को चीफ जस्टिस बनाया था। आज भी इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती है कि न्यायिक नियुक्तियां सरकार के हाथ में चली जाएं तो वैसा नहीं होगा, जैसा इंदिरा गांधी के समय हुआ था। एक संतुलित व्यवस्था की जरूरत है, जो सिफारिश, जांच और मंजूरी के मामले में पूरी तरह से स्पष्ट और पारदर्शी हो और जिसमें न्यायपालिका या सरकार में से किसी का वर्चस्व न हो। ऐसा सिस्टम न्यायपालिका और कार्यपालिका के टकराव से नहीं बनेगा, बल्कि दोनों के बीच सार्थक संवाद से बनेगा, जिसमें विपक्ष को भी शामिल किया जाना चाहिए।
कब-कब आमने-सामने आए कार्यपालिका-न्यायपालिका
¹ यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर टकराव हो रहा है। इससे पहले भी न्यायिक नियुक्ति आयोग और जस्टिस केएम जोसेफ की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने आ चुके हैं।
* पिछले साल बेंगलुरु एडवोकेट एसोसिएशन ने एक याचिका दाखिल करते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिशों के बावजूद 11 नामों को केंद्र सरकार ने जानबूझकर मंजूरी नहीं दी है। इस याचिका में केंद्र सरकार पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की ‘जानबूझकर अवज्ञा’ करने का आरोप लगाया गया था।
* इसी तरह साल 2018 में कॉलेजियम ने इंदू मल्होत्रा और केएम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने की सिफारिश की थी। केंद्र सरकार ने इनके नाम पर भी दोबारा विचार करने को कहा था। कुछ दिन बाद केंद्र सरकार ने इंदु मल्होत्रा के नाम को तो मंजूरी दे दी, लेकिन जस्टिस जोसेफ के नाम पर फिर सोचने को कहा था। हालांकि बाद में सरकार ने जस्टिस केएम जोसेफ के नाम को भी मंजूर कर दिया था।
* साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने 74 जजों की नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश की थी, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा समय बीतने के बाद भी केंद्र सरकार ने इन्हें मंजूरी नहीं दी थी।
* वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया था कि अगर सरकार ने मजबूर किया तो अदालत उससे टकराव लेने से नहीं हिचकेगी।
* इसी महीने 25 नवंबर को केंद्र सरकार ने कॉलेजियम से हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति से जुड़ी 20 फाइलों पर दोबारा विचार करने को कहा है। इनमें 11 नए मामले हैं और 9 मामलों को दोहराया गया है। इन मामलों में एक नाम एडवोकेट सौरभ किरपाल का भी है, उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट में जज नियुक्त करने की सिफारिश की गई है।
क्या है कॉलेजियम
देश में कॉलेजियम का गठन वर्ष 1993 में हुआ था। इसमें पांच जजों की एक कमेटी होती है। इसके अध्यक्ष चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया होते हैं। कॉलेजियम जजों की नियुक्ति और प्रमोशन से जुड़े मामलों पर फैसला लेती है। इनके ही सिफारिस पर जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में होती है। इसके लिए कॉलेजियम केंद्र सरकार को नाम भेजती है, जिसे सरकार राष्ट्रपति के पास भेजती है। राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद
ही जज की नियुक्ति होती है।
एनजेएसी क्या है?
देश में कॉलेजियम सिस्टम को केंद्र सरकार ने वर्ष 2014 में निरस्त कर दिया था। जिसका काम जजों की नियुक्ति करना था। इस कानून के तहत, इस आयोग के अध्यक्ष देश के चीफ जस्टिस होते थे। इसके अलावा इसमें सुप्रीम कोर्ट के दो सीनियर जज, कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का होना जरूरी था। इन दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन तीन सदस्यों की समिति को करना था, जिसमें प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और लोकसभा में नेता विपक्ष शामिल थे। इसमें दिलचस्प बात यह थी कि किसी जज के नाम की सिफारिश तभी की जा सकती थी, जब आयोग के 5 सदस्य इस पर सहमत हों, अगर दो सदस्य किसी की नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए तो फिर उस नाम की सिफारिश नहीं हो सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साल 2015 में इस कानून को रद्द कर दिया था और न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक बताया था।