देश की न्याय व्यवस्था चरमरा तो लंबे अर्से से रही है, अब उसके हालात इतने विकट हो चले हैं कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तक को सार्वजनिक तौर पर अपनी चिंता जाहिर करनी पड़ रही है
देश की तमाम अदालतों में साढ़े चार करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। इसके पीछे जजों की संख्या कम होने से लेकर सरकारी मुकदमेबाजी तक तमाम वजहें गिनाई जाती हैं। आइए, एक नजर डालते हैं उन कारणों पर, जिनके चलते इंसाफ की आस लगाने वालों का इंतजार लंबा होता जा रहा है। पहले यह देख लेते हैं कि देश में कहां कितने मामले लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर उपलब्ध एक अप्रैल 2022 तक के आंकड़ों के मुताबिक कुल 70 हजार 632 मामले सुप्रीम कोर्ट में अभी लंबित हैं। वहीं अटार्नी जनरल के मुताबिक देशभर के उच्च न्यायालयों में अभी 42 लाख मामले लंबित हैं।
इनमें 16 लाख केस क्रिमिनल मामलों से जुड़े हैं। देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमन्ना ने कहा है कि देशभर में 2016 में 2 करोड़ 65 लाख मामले पेंडिंग थे लेकिन अब लंबित मामलों की संख्या 4 करोड़ से ज्यादा हो चुकी है। इस तरह से करीब 54 फीसदी मामलों की संख्या बढ़ गई है।
जजों के इतने पद हैं खाली
इन करोड़ों मामलों की सुनवाई जजों को ही करनी है। लेकिन देश की आबादी और मुकदमों की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए जजों की संख्या काफी कम है। यहां तक कि पहले से मंजूर कई पदों पर भी नियुक्तियां नहीं हो सकी हैं। देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमन्ना का कहना है कि साल 2016 में 20 हजार 811 पदों के लिए मंजूरी थी और तब से लेकर अब तक स्वीकृत पदों में केवल 16 फीसदी बढ़ोतरी की गई है। अब देशभर में जजों के कुल स्वीकृत पद 24 हजार 112 हैं। हमारे देश में अभी प्रति 10 लाख लोगों पर 20 जज हैं।
सुप्रीम कोर्ट में जजों के कुल स्वीकृत पद 34 में से 32 पदों पर जज कार्यरत थे हालांकि अब इसी हफ्ते खाली पड़े दो पर नियुक्ति कर दी गई है। इनमें अभी लेकिन उच्च न्यायालयों की तस्वीर काफी अलग है। भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं। सभी हाईकोर्ट के आंकड़ों को मिलाकर देखें तो इनमें पहली अप्रैल 2022 तक जजों के कुल एक हजार 104 पद स्वीकृत थे। सभी उच्च न्यायालयों को मिलाकर अभी 715 जज कार्यरत हैं। यानी हाईकोर्ट में जजों के 387 पद खाली हैं। जहां तक उच्च न्यायालयों की बात है तो सबसे ज्यादा कम जज इलाहाबाद हाईकोर्ट में हैं। वहां जजों के कुल 160 पद स्वीकृत हैं। अभी वहां 94 जज हैं। यानी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 66 जजों की कमी के साथ काम कर रहा है। बॉम्बे हाईकोर्ट की बात करें तो वहां 94 जज नियुक्त किए जा सकते हैं। अभी लेकिन 57 पद ही भरे हुए हैं। इस तरह बॉम्बे हाईकोर्ट भी 37 जजों की कमी के साथ काम कर रहा है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ओर देखें तो दिल्ली हाईकोर्ट में जजों के 60 पदों की मंजूरी है। अभी यहां 35 जज काम कर रहे हैं। यानी 25 पद दिल्ली हाईकोर्ट में भी खाली हैं। अब बात करते हैं देश के सबसे पुराने हाईकोर्ट यानी कलकत्ता हाईकोर्ट की। वहां जजों के 72 पद स्वीकृत हैं लेकिन 39 ही भरे हुए हैं। इस तरह कलकत्ता हाईकोर्ट में जजों के 33 पद खाली हैं। अटार्नी जनरल ने हाल में कहा था कि देश में कई उच्च न्यायालय ऐसे हैं, जहां 50 फीसदी क्षमता के हिसाब से ही काम हो रहा है।
निचली अदालतें
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की बात तो हो गई लेकिन न्याय व्यवस्था की पूरी सीरीज में सबसे अहम कड़ी हैं निचली अदालतें, जिनके दरवाजे आम आदमी सबसे पहले खटखटाता है। देशभर की निचली अदालतों में जजों के कुल स्वीकृत पद हैं लगभग 24 हजार। लेकिन अभी इनमें से 5 हजार पद खाली हैं। आंकड़े खुद बता रहे हैं कि जजों पर काम का किस तरह का बोझ है और मामलों के निपटारे में देरी क्यों होती है।
क्या कानून बनाने की प्रक्रिया भी है जिम्मेदार?
देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमन्ना ने मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों की साझा कॉन्फ्रेंस में लंबित मुकदमों की बड़ी संख्या का जिक्र किया। चीफ जस्टिस ने कहा कि विधायिका जब कानून बनाती है तो कई बार उसकी बातें ठीक से स्पष्ट नहीं हो पाती है। पर्याप्त बहस किए बिना बिल पास कर दिए जाते हैं। इस कारण भी मुकदमेबाजी बढ़ी है। जस्टिस रमन्ना ने कहा कि अगर कानून पर्याप्त बहस के बाद पास हों, उनमें लोगों के वेलफेयर पर जोर दिया जाए और कानून में तमाम बातें साफ तरीके से कही जाएं तो मुकदमेबाजी कम होगी।
जस्टिस रमन्ना ने मुकदमेबाजी बढ़ने के लिए कार्यपालिका की तमाम ईकाइयों की भूमिका पर भी सवाल किया। उन्होंने कहा कि कार्यपालिका की कई शाखाएं ऐसी हैं, जो काम नहीं करती हैं और इसकी वजह से भी अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ी है। जस्टिस रमन्ना ने कहा कि अगर अथॉरिटी कानून के हिसाब से काम करे तो लोगों को कोर्ट आने की जरूरत कम पड़ेगी। प्रशासनिक सुस्ती के कारण भी मुकदमेबाजी बढ़ रही है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अगर तहसीलदार अपने काम सही तरीके से करे तो शायद किसानों को कोर्ट न आना पड़े। इसी तरह अगर म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के अधिकारी अपना काम कानून के मुताबिक करें तो लोगों को कोर्ट के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। उन्होंने कहा कि पुलिस अगर सही तरह से मामले की छानबीन करे, किसी को प्रताड़ित न करे और कस्टडी में उत्पीड़न न करे तो फिर पीड़ित को कोर्ट जाना ही नहीं पड़ेगा। चीफ जस्टिस ने कहा कि यही हालत दूसरे विभागों का भी है। इनसे जुड़े 66 फीसदी मामले लंबित हैं।
चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना का कहना है कि 50 फीसदी मामलों में तो खुद सरकार लिटिगेंट हैं। कई बार अदालत के फैसलों पर सरकार अमल नहीं करती और ऐसा देखा गया है कि अदालती फैसले लागू करने में सरकार जान-बूझकर सुस्ती दिखाती है। कई बार तो वह सालों तक आदेश पर अमल नहीं करती। यह बात लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। चीफ जस्टिस ने कहा कि ऐसा भी देखने में आ रहा है कि कई लोग व्यापारिक होड़ के चलते जनहित याचिका को एक टूल की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं और कई बार पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (पीआईएल) को पर्सनल इंटरेस्ट लिटिगेशन के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।