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जयंती विशेष:कुशल वक्ता व उच्च कोटि के लेखक थे लाला हरदयाल

पगड़ी अपनी संभालिए मीर| बस्ती नहीं, ये दिल्ली है ,का नारा देने वाले प्रसिद्ध क्रन्तिकारी लाला हरदयाल की आज जयंती है। लाला हरदयाल ने ग़दर पार्टी की स्थापना की थी। विदेशो में भटकते हुए अनेक कष्ट सहकर लाला हरदयाल ने देशभक्तों  को भारत की आजादी के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित किया। देश की आजादी को लेकर उनके तेवर शुरूआत से ही साफ थे। ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के दौरान ही 1907 में उन्होंने ‘इंडियन सोशलिस्ट’ मैगजीन में लिखे एक लेख में अंग्रेजी सरकार पर सवाल उठाये थे। उसी वक्त उन्हें आईसीएस यानी  ‘इंडियन सिविल सर्विस’ (उस वक्त की आईएएस) का पद ऑफर हुआ था, उन्होंने ‘भाड़ में जाए आईसीएस’ कहते हुए ऑक्सफोर्ड की स्कॉलरशिप तक छोड़ दी और अगले साल भारत वापस आ गए, यहां वो पूना जाकर तिलक से और लाहौर में लाला लाजपत राय से मिले। उस वक्त कांग्रेस के यही दो बड़े नेता थे, जो गरम दल की अगुवाई करते थे।

लाला हरदयाल कुशल वक्ता व उच्च कोटि के लेखक थे। गदर पत्रिका की लोकप्रियता और प्रभाव को देखते हुए इसकी संस्थापक संस्था हिन्द एसोसिएशन ऑफ अमेरिका को ही धीरे-धीरे लोग गदर पार्टी या गदर आंदोलन के नाम से संबोधित करने लगे। लाला हरदयाल ने लाला लाजपत राय की बात समझकर भारत छोड़ दिया और 1909 में वो पेरिस जा पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने जिनेवा से निकलने वाली पत्रिका ‘वंदेमातरम’ का सम्पादन शुरू कर दिया। ये मैगजीन दुनियाभर में बिखरे भारतीय क्रांतिकारियों के बीच क्रांति की अलख जगाने का काम करती थी।

हरदयाल के लेखों ने उनके अंदर आजादी की आग जला दी।  हालांकि पेरिस में उन्हें लगा था कि भारतीय समुदाय मदद देगा, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने दुखी होकर पेरिस छोड़ दिया और वो अल्जीरिया चले गए, वहां भी उनका मन नहीं लगा, जहां से वो क्यूबा या जापान जाना चाहते थे लेकिन फिर मार्टिनिक चले आए। यहां आकर वो एक सन्यासी की तरह जीवन जीने लगे, कि भाई परमानंद उन्हें ढूंढते हुए पहुंचे और उनसे भारतभूमि को आजाद करवाने, भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए मदद मांगी। भाई परमानंद एक आर्यसमाजी थे। जब दिल्ली में रास बिहारी बोस, बसंत विश्वास और अमीचंद ने लॉर्ड हॉर्डिंग पर दिल्ली में घुसते वक्त बम फेंक दिया तो अमेरिका में लाला हरदयाल ने उत्साहित होकर एक जोरदार भाषण दिया, जिसमें मीर तकी मीर की दो लाइनें पढ़ डालीं—
पगड़ी अपनी सम्भालिएगा मीर,

ये और बस्ती नहीं.. दिल्ली है!!
खेलने कूदने की उम्र से ही लाला हरदयाल को मेरा देश, मेरी भूमि, मेरी संस्कृति, मेरी भाषा पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था | जबकि वो मंदिर तक नहीं जाते थे। पूजा नहीं करते थे, मित्र उन्हें नास्तिक बोलते थे लेकिन उनको भारतीय भूमि से निकले हर धर्म, सम्प्रदाय, महापुरुष में काफी आस्था थी, भारतीय परम्पराओं से खासा लगाव था। 
हिन्दुस्तान के लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि लाला जी स्वदेश आयेंगे भी या नहीं, किन्तु इस देश के दुर्भाग्य से लाला जी के शरीर में अवस्थित उस महान आत्मा ने फिलाडेफिया 8 मार्च 1937को अपने शरीर त्याग दिया। लाला जी जीवित रहते हुए भारत नहीं लौट सके। उनकी अकस्मात् मृत्यु ने सभी देशभक्तों को असमंजस में डाल दिया। तरह-तरह की अटकलें लगायी जाने लगीं। परन्तु उनके बचपन के मित्र लाला हनुमंत सहाय जब तक जीवित रहे बराबर यही कहते रहे कि हरदयाल की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी, उन्हें विष देकर मारा गया।

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