छह सौ से अधिक मौत
आंदोलनकारियों पर आतंकी होने के आरोप
लखीमपुर खीरी, लाल किला कांड, सिंधु बॉर्डर मर्डर केस….
अमेरिका के राष्ट्रपति रहे प्रसिद्ध मानवतावादी नेता अब्राहम लिंकन ने कहा था ‘ यदि आप एक बार अपने देशवासियों का विश्वास खो देते हैं तो दोबारा फिर कभी उनका सम्मान नहीं अर्जित कर सकते हैं। यह सच है कि अन्य सभी लोगों को कुछ समय के लिए मूर्ख बना सकते हैं, यहां तक कि आप कुछ लोगों को सारे समय तक मूर्ख बना सकते हैं, लेकिन आप सभी लोगों को हमेशा ही मूर्ख नहीं बना सकते।’ लिंकन का कथन वर्तमान में तीन कृषि कानूनों पर सटीक बैठता है। लगभग एक बरस चले किसान आंदोलन के समक्ष आखिरकार केंद्र सरकार को झुकना ही पड़ा। आंदोलन की जीत हुई लेकिन भारी कीमत चुकाकर। छह सौ से अधिक किसानों की मौत, आतंकवादी, देशद्रोही जैसे आरोपों के बाद मिली जीत निश्चित ही केंद्र सरकार और भाजपा नेतृत्व की करारी हार के साथ ही लोकतंत्र में जन की जीत के बतौर इतिहास में दर्ज की जाएगी।
करीब एक साल से किसान केंद्र सरकार के खिलाफ तीन कृषि कानून को लेकर विरोध कर रहे थे, लेकिन सरकार किसानों की समस्या समझने के बजाए अपनी जिद पर अड़ी थी। इस आंदोलन में सैकड़ों किसानों की जान भी गई लेकिन किसानों ने अपनी लड़ाई जारी रखी। यह जंग दरअसल, किसान और मोदी सरकार के बीच वर्चस्व की लड़ाई में बदल गई थी। सरकार ने आंदोलन को खत्म करने के लिए कई हथकंडे भी अपनाए जिससे किसान मान जाए, लेकिन किसान अंत तक लड़ते रहे। मोदी सरकार किसी भी कीमत पर यह कानून वापस नहीं लेना चाहती थी, लेकिन किसानों के हठ के आगे सरकार को झुकना पड़ा।
एंटी इन्कम्बेंसी के कारण वापस लेना पड़ा कानून
कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश, पंजाब सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा के लिए किसानों के वोट बहुत महत्वपूर्ण हैं। किसानों के बिना तो किसी भी राज्य में सरकार बनाना मुश्किल है। इस आंदोलन में इतने किसानों की मौत हुई, लेकिन तब मौजूदा सरकार ने इसे निरस्त करने का निर्णय नहीं लिया। और अब जब बात चुनाव की आई तो सरकार ने यह कानून वापस ले लिया। बहरहाल जो भी परिस्थिति रही हो लेकिन सरकार के इस फैसले का हर कोई समर्थन कर रहा है, किसानों के साथ-साथ अन्य राजनीतिक पार्टियां भी सरकार के इस फैसले से खुश नजर आ रही हैे।
किसानों ने 26 नवंबर, 2020 को नए कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन शुरू किया था। हालांकि इसकी भूमिका काफी पहले से बननी शुरू हो गई थी। पिछले साल 4 सितंबर को सरकार ने संसद में किसान कानूनों संबंधी विधेयक पेश किया। 17 सितंबर को यह विधेयक लोकसभा में पास हो गया। इसके बाद 20 सितंबर को राज्यसभा में भी इसे ध्वनिमत से पारित कर दिया। इसके बाद से ही देश भर में किसान मुखर होने लगे। 24 सितंबर को पंजाब में तीन दिन के लिए रेल रोको आंदोलन शुरू हुआ। वहीं 25 सितंबर को ‘ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी’ की पुकार पर देशभर के किसान दिल्ली के लिए निकल पड़े। 25 नवंबर को देश भर में नए किसान कानूनों का विरोध शुरू हो गया। पंजाब-हरियाणा में ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया गया। इसके बाद 28 नवंबर, 2020 को देश के गृहमंत्री अमित शाह ने किसानों के साथ बातचीत करने को कहा। किसानों ने उनकी बात मानने से इंकार कर दिया और जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन की बात कही। 29 नवंबर को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों ने किसानों से वादा किया था, लेकिन केवल उनकी सरकार ने वादा पूरा किया।
तीन दिसंबर को सरकार और किसानों के बीच पहले दौर की बातचीत हुई। इस बातचीत के दौरान किसी तरह का कोई परिणाम नहीं निकल सका। इसके बाद पांच दिसंबर को केंद्र सरकार की किसानों के साथ दूसरे दौर की बातचीत हुई। इसमें भी किसी तरह का कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका। यहां तक कि किसानों ने बातचीत के दौरान सरकार की तरफ से दिया गया खाना भी नहीं खाया और खुद से लाया खाना जमीन पर बैठकर खाया।
इसके बाद 08 दिसंबर, 2020 को कृषि कानूनों के विरोध में किसानों ने भारत बंद बुलाया। अन्य राज्यों के किसानों ने भी भारत बंद को अपना समर्थन दिया। इसके बाद नौ दिसंबर को किसान नेताओं ने कृषि कानूनों में सुधार के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को खारिज कर दिया और किसानों ने कृषि कानूनों को वापस न लिए जाने तक धरने की बात कही। 11 दिसंबर को भारतीय किसान यूनियन ने तीन कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। वहीं 13 दिसंबर को तत्कालीन केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने किसान आंदोलन को टुकड़े-टुकड़े गैंग प्रायोजित बताया। साथ ही कहा कि सरकार किसानों से बातचीत के लिए तैयार है।
दिसंबर 30 को किसानों और केंद्र सरकार के बीच बातचीत को कुछ दिशा मिली। सरकार किसानों को पराली जलाने पर पेनाल्टी और इलेक्ट्रिसिटी अमेंडमेंट बिल 2020 में सुधार के लिए सहमत हुई। इससे पहले 16 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह कृषि कानूनों पर उपजे गतिरोध को देखते हुए एक पैनल बना सकती है, जिसमें किसान और सरकार दोनों के प्रतिनिधि रहेंगे। वहीं 21 दिसंबर को किसानों ने सभी धरना स्थलों पर एक दिन की भूख हड़ताल रखी।
26 जनवरी, 2021 को किसान संगठनों ने कानूनों के विरोध में गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड बुलाई थी। इस दौरान हजारों प्रदर्शनकारियों की पुलिस के साथ मुठभेड़ हो गई। परेड के दौरान सिंघु और गाजीपुर बॉर्डर के किसानों ने अपना रूट बदल दिया और दिल्ली आईटीओ व लाल किला का रुख कर लिया। यहां पर प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज हुआ। यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। 28 जनवरी को दिल्ली गाजीपुर बॉर्डर पर भी तनाव फैला। इसकी वजह थी पड़ोसी राज्य यूपी के गाजियाबाद के जिला प्रशासन का बॉर्डर खाली करने का आदेश।
फरवरी 2021 को सरकार ने सेलेब्रिटीज और अन्य लोगों को किसानों के मुद्दे पर टिप्पणी करने को लताड़ा। सरकार ने इन लोगों को गलत और गैर जिम्मेदार बताया। यह सब तब हुआ जब पॉप स्टार रिहाना और क्लाइमेट एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग वगैरह ने किसान प्रदर्शनों पर अपनी राय रखी। इसके बाद पांच फरवरी को दिल्ली साइबर क्राइम सेल ने किसान विरोधों पर टूलकिट के इस्तेमाल की एफआईआर दर्ज की। छह फरवरी को आंदोलन कर रहे किसानों ने देशभर में चक्का जाम किया। यह चक्का जाम दोपहर 12 से शाम 3 बजे तक किया गया। नौ फरवरी को पंजाबी अभिनेता और एक्टिविस्ट दीप सिद्धू को गणतंत्र दिवस हिंसा मामले में गिरफ्तार किया।
पांच मार्च 2021 को पंजाब विधानसभा ने एक रिजॉल्यूशन पास किया। इसमें उन्होंने तीनों कृषि कानूनों को पंजाब में लागू न होने देने और एमएसपी बेस्ड सिस्टम फॉलो करने की बात कही। इससे पहले दो मार्च को शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल एवं अन्य पार्टी नेताओं को पंजाब विधानसभा का घेराव करने के लिए जाते वक्त गिरफ्तार कर लिया गया। 06 मार्च को दिल्ली बॉर्डर पर किसानों के आंदोलन के 100 दिन पूरे हो गए। सिंघु बॉर्डर पर लाए गए कुछ ट्रैक्टर-ट्रॉली खेती के लिए पंजाब वापस लौटे। किसानों ने बांस से यहां अपने लिए ठिकाना बनाया। 15 अप्रैल को हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने प्रधानमंत्री मोदी को किसानों से बातचीत बहाल करने के लिए चिट्ठी लिखी। 27 मई को किसानों ने काला दिवस के रूप में मनाया और सरकार का पुतला दहन किया।
पांच जून को किसानों ने संपूर्ण क्रांतिकारी दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया। वहीं 26 मार्च को कृषि कानूनों के विरोध के सात महीने पूरे होने पर किसानों ने दिल्ली तक मार्च किया। संयुक्त किसान मोर्चा ने दावा किया कि किसानों को विभिन्न राज्यों में रोका गया। जुलाई में जब मानसून सत्र शुरू हुआ तो किसानों ने पार्लियामेंट हाउस के करीब अपना भी मॉनसून सत्र शुरू कर दिया। इस दौरान किसानों ने तीन कृषि कानूनों का विरोध किया। सात अगस्त 2021 को विपक्ष के 14 नेताओं ने सदन में मुलाकात की। इसके बाद इन सभी ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर चल रहे किसान संसद में जाने का फैसला किया। 28 अगस्त को हरियाणा के करनाल में किसानों के ऊपर लाठी चार्ज हुआ और कई किसान घायल हुए। इसके बाद 3 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के चलते लखीमपुर जैसा बड़ा कांड हुआ, जिसमे 8 लोगों की जान चली गई जिनमें से 4 किसान थे।
सितंबर, अक्टूबर, नवंबर 2021 को यूपी चुनावों को करीब देखकर किसानों ने यहां अपना-अपना मूवमेंट शुरू किया। मुजफ्फरनगर में बड़ी संख्या में लोग जुटे। इसके बाद 7 से 9 नवंबर के बीच किसान करनाल पहुंचे। तमाम प्रतिरोधों-अवरोधों के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने देश की जनता को संबोधित करते हुए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया।
करीब 600 से अधिक किसानों ने गंवाई अपनी जान किसान आंदोलन साल 2020 के नवंबर में शुरु हुआ था, जो लगातार जारी है। इस आंदोलन में अपना घर छोड़कर आए किसानों को आंदोलन में अपने हक के लिए अपनी मौत तक की बाजी लगानी पड़ी, गौरतलब है कि इतनी मौतों के बाद भी सरकार ने कभी इस कानून को वापस लेने के बारें में नहीं सोचा। इस दौरान अब तक 600 से अधिक किसानों की इस आंदोलन में मौत हो चुकी है।
कानूनों का क्यों हो रहा था विरोध
किसान संगठनों का आरोप था कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा, जिससे किसानों को नुकसान होगा। नए बिल के मुताबिक, सरकार आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई पर अति-असाधारण परिस्थिति में ही नियंत्रण करती। ऐसे प्रयास अकाल, युद्ध, कीमतों में अप्रत्याशित उछाल या फिर गंभीर प्राकृतिक आपदा के दौरान किए जाते। नए कानून में उल्लेख था कि इन चीजों और कृषि उत्पाद की जमाखोरी पर कीमतों के आधार पर एक्शन लिया जाएगा। सरकार इसके लिए तब आदेश जारी करेगी, जब सब्जियों और फलों की कीमतें 100 फीसदी से ज्यादा हो जातीं। या फिर खराब न होने वाले खाद्यान्नों की कीमत में 50 फीसदी तक इजाफा होता। किसानों का कहना था कि इस कानून में यह साफ नहीं किया गया था कि मंडी के बाहर किसानों को न्यूनतम मूल्य मिलेगा या नहीं। ऐसे में हो सकता था कि किसी फसल का ज्यादा उत्पादन होने पर व्यापारी किसानों को कम कीमत पर फसल बेचने पर मजबूर करें। तीसरा कारण यह था कि सरकार फसल के भंडारण की अनुमति दे रही है, लेकिन किसानों के पास इतने संसाधन नहीं होते कि वे सब्जियों या फलों का भंडारण कर सकें।