- वरुण गांधी
लेखक लोकसभा के सांसद हैं
कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों (जेएनयू, जामिया आदि) में छात्रों द्वारा कैंपस में अपने अधिकारों हेतु किए जाने वाले आंदोलनों को दबाने के लिए किए गए पुलिसिया बल प्रयोग प्रशासन पर सवाल उठाता है। छात्रों की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनने का प्रयास है। छात्रों और शिक्षकों को लगातार ‘राष्ट्र विरोधी’ घोषित करना दुभाग्यपूर्ण है। हमें अपने शैक्षणिक परिसरों में सभी तरह की विविधताओं का सम्मान और स्वीकृति बढ़ाने की आवश्यकता है। क्योंकि यहीं से विद्यार्थियों को मौलिक एवं व्यापक अनुभव प्राप्त होते हैं इसलिए परिसरों में प्रत्येक विद्यार्थी को स्वयं को व्यक्त करने का अवसर मिलने चाहिए। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पोषण नहीं किया गया तो हमारे विश्वविद्यालय आलोचनात्मक चिंतन के शीर्ष कैसे बनेंगे?
क्यों भारतीय विश्वविद्यालयों की राज्य नियंत्रित घेराबंदी जान-बूझकर की जा रही है? उच्च शिक्षा पर सरकारी व्यय वर्ष 2012 से लगातार 1 ़3 प्रतिशत से 1 ़5 प्रतिशत की दर पर स्थिर है। कुछ अर्सा पहले ही शिक्षा मंत्रालय ने उच्च शिक्षण संस्थानों को अपनी नामांकन क्षमता 25 प्रतिशत बढ़ाने का निर्देश दिया है (इसमें आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 10 प्रतिशत नामांकन क्षमता बढ़ाने का निर्देश भी शामिल है)। यह निर्देश उस समय दिया गया है जब वित्त मंत्रालय ने उच्च शिक्षक संस्थानों में शैक्षणिक पदों के की संख्या बढ़ाने पर रोक लगाने (मोहंती बसंत कुमार, सितंबर) को कहा है। केंद्रीय स्तर पर छात्रों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता के मद में वर्ष 2022-23 में 2,078 रुपए करोड़ जबकि वर्ष 2021-22 में 2,482 करोड़ की कटौती की गई है। इसमें मुख्य रूप से शोध कार्यों और इनोवेशन के लिए दिए जाने वाले बजट जो लगभग 218 करोड़ रुपया है, में 8 प्रतिशत की कटौती की गई है। किसी समय सबसे श्रेष्ठ रहे हमारे संस्थान आज अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं। इन समस्याओं में विश्वविद्यालय स्तर पर धन का अभाव, संकाय सदस्यों के लिए शोध के अवसरों की कमी, विद्यार्थियों के लिए शिक्षा के समुचित इन्फ्रास्ट्रक्चर का न होना विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन परिस्थितियों में अगर छात्र अपने शैक्षणिक अधिकारों की मांग करते हैं तो पुलिस द्वारा क्रूरतापूर्वक दमनात्मक कार्रवाई की जाती है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या निष्ठुर, नौकरशाही द्वारा संचालित राज्य, विश्वविद्यालयों के विकास और उत्कर्ष में बाधा बन रहा है?
धन की तंगी से जूझते संस्थान
विश्वविद्यालयों में आधारभूत संरचना के विकास हेतु किए जाने वाले निवेश का दायरा लगातार सिकुड़ रहा है। अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में कक्षाएं क्षमता से ज्यादा छात्रों से भारी होती हैं। क्लास रूमस में पर्याप्त हवा-
रोशनी और साफ-सफाई तक का घोर अभाव रहता हैं। छात्रों के रहने हेतु बनाए गए छात्रावास भी अत्यंत जीर्ण-शीर्ण दशा में हैं।
उच्च शिक्षा वित्तीय समिति (दि हायर एजुकेशन फाइनेसिंग एजेंसी), जो संस्थानों को आधारभूत संरचना के विकास हेतु ऋण के रूप में राशि उपलब्ध कराती है, के बजट में अप्रत्याशित कटौती की गई है। वित्तीय वर्ष 2020-21 में इसका बजट दो हजार करोड़ था जबकि वित्तीय वर्ष 2021-22 में इसे मात्र 1 करोड़ में सीमित कर दिया गया। विडंबना यह कि एक तरफ लोन प्रदाता एजेंसी के बजट में अभूतपूर्व कटौती की जा रही है तो दूसरी तरफ विश्वविद्यालयों को लोन लेने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए अपने दैनिक खर्चों को जुटाना भी मुश्किल होता जा रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को वित्तीय वर्ष 2022-23 में 4,900 करोड़ रुपये (वर्ष 2021-22 में 4,693 करोड़) की राशि आवंटित की गई। इसके बावजूद समुचित बजट न मिल पाने के कारण डीम्ड/केंद्रीय विश्वविद्यालयों में वेतन भुगतान मद में लगातार विलंब देखने को मिल रहा है। दुखद यह है कि ज्यादातर विश्वविद्यालय आज घाटे में चल रहे हैं। मद्रास विश्वविद्यालय को 100 करोड़ का घाटा हुआ जिसकी भरपाई के लिए उसे 88 करोड़ का अनुदान राज्य सरकार से मांगना पड़ा। (रमन ़ए ़रगु, मार्च 2022)।
दिल्ली विश्वविद्यालय के 12 महाविद्यालय लगातार वित्तीय अभाव से जूझ रहे हैं। राज्य द्वारा किए जा रहे धन आवंटन को लगभग आधा किया जाना इसकी मुख्य वजह है। मिसाल के तौर पर वर्ष 2021 में दीन दयाल उपाध्याय महाविद्यालय को उसकी जरूरत के मुताबिक अपेक्षित 42 करोड़ रुपये के बदले 28 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। शिक्षकों को वेतन-प्राप्ति के लिए महीनों इंतजार करना पड़ रहा है। (उदाहरण के लिए श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, विश्व-भारती विश्वविद्यालय, नागालैंड विश्वविद्यालय और झारखंड विश्वविद्यालय को लिया जा सकता है, (मोहंती बसंत कुमार, फरवरी 2021, आरा इस्मत नवंबर, 2020) धन के संकट ने संस्थानों द्वारा उनके विवेकाधीन जरूरी खर्चों को भी सीमित किया है। दिल्ली के कई महाविद्यालय तो बुनियादी डेटाबेस और जर्नल्स तक के सबस्क्रीप्शन लेने में अक्षम हो चले हैं।
समय की मांग है कि उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने हेतु एक समर्पित फंडिंग एजेंसी की स्थापना आवश्यक रूप से सुनिश्चित करते हुए धन आवंटन की सीमा को बढ़ाया जाए। विश्वविद्यालयों को स्टार्ट-अप और विज्ञापनों के जरिए अपनी आय बढ़ाने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। शोध के लिए दिए जाने वाले अनुदान का दायरा भी लगातार सिकुड़ता जा रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा माइनर और मेजर शोध परियोजनाओं के लिए दिए जाने वाले बजट मद को लगातार कम किया जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2016-17 में यह मद 42 ़7 करोड़ का था जबकि वित्तीय वर्ष 2020-21 में यह महज 38 लाख का ही रह गया। (मोहंती बसंत कुमार, फरवरी 2022)। भारत में मौजूद कुल 1040 विश्वविद्यालयों में सिर्फ 2 ़7 प्रतिशत विश्वविद्यालय ही पीएचडी करवाते हैं और विडंबना यह कि इन विश्वविद्यालयों को भी अपर्याप्त धन आवंटन और लचर आधारभूत संरचना के संकट से लगातार दो-चार होना पड़ रहा है। जिस नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना शोध संबंधी आधारभूत संरचना को विकसित करने हेतु की जानी थी उसे अब तक गठित नहीं किया जा सका है। ऐसी सूचना है कि इस फाउंडेशन के बजट को भी बहुत सीमित करने की योजना है। (अगले 5 वर्षों हेतु 5-6 बिलियन डॉलर)।
निश्चित रूप से शोध हेतु धन आवंटन को बढ़ाए जाने की नितांत आवश्यकता है। यह प्रभावी रूप से तभी संभव होगा जब नेशनल रिसर्च फाउंडेशन जैसी संस्थाओं को आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जाए और मौजूदा समय में पहले से जारी शोध योजनाओं (विज्ञान मंत्रालय की योजनाओं सहित) को और सशक्त किया जाए। स्नातक स्तरीय विद्यार्थियों हेतु पाठ्यक्रम आधारित शोध अनुभवों हेतु धन मुहैया कराकर उपरोक्त प्रक्रिया को और प्रभावी बनाया जा सकता है।
शिक्षा मानकों में गिरावट
अकादमिक मानकों और प्रक्रियाओं का समुचित संचालन नहीं किया जाना भी वर्तमान शैक्षणिक संदर्भ का एक दुःखद पहलू है। परीक्षाओं के पर्चे का पहले से ही लीक हो जाना आज सामान्य घटना बनती जा रही है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट), जो महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर पर अध्यापन क्षमता की जांच हेतु आयोजित की जाती है, उसका भी पर्चा लीक होने लगा है। जून, 2021 में हिंदी विषय का पर्चा लीक किया जाना इसकी ताजा मिसाल है। अभ्यर्थियों ने बहुत ही मुखर रूप से यह आरोप लगाया कि परीक्षा पास करवाने के एवज में परीक्षा केंद्र के संचालकों ने प्रति अभ्यर्थी तीन लाख रुपये (3 लाख रुपये) की वसूली की है।
अभी हाल ही में वीर नर्मद विश्वविद्यालय गुजरात को पर्चा लीक होने के बाद अपने बी ़कॉम और बीए पाठ्यक्रम की परीक्षाओं को फिर से आयोजित कराना पड़ा। ऐसे संस्थान परीक्षाओं की गोपनीयता और गुणवत्ता को बनाए रखने में लगातार विफल हो रहे हैं। इन संस्थानों में आमूल बदलाव हेतु विकेंद्रित व्यवस्था का निर्माण आवश्यक है। इस क्रम में विश्वविद्यालयों को अपने अकादमिक पाठ्यक्रमों, प्रोन्नतियों, कक्षा के आकार आदि तय करने ही छूट दी जानी चाहिए। भारत के विश्वविद्यालय ऐतिहासिक रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद के गौरवशाली गढ़ रहे हैं। सेंट्रल हिंदू कॉलेज, जिसका उद्घाटन मदन मोहन मालवीय द्वारा किया गया था, एक समय में स्वतंत्रता आंदोलन के विमर्शों का केंद्र हुआ करता था। यहां के विद्यार्थियों और शिक्षकों ने बड़े पैमाने पर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लिया तथा सन् 1915 में रास बिहारी बोस एवं लाला हरदयाल के समर्थन में भी आवाज बुलंद की थी। इस कॉलेज के विद्यार्थियों ने 1949 के देश बंटवारे में शरणार्थी बन गए लोगों के पुनर्वास में भी बड़ा योगदान दिया था।
चेन्नई का क्वीन मैरी कॉलेज भी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समर्थन में आयोजित कई विरोध-प्रदर्शनों का साक्षी रहा हैं। यहां के विद्यार्थियों को अक्सर मरीना बीच रोड पर स्थित जेल में बंद कर दिया जाता था। अभी हाल-फिलहाल में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों ने अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाए गए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में मजबूत भागीदारी दर्ज की। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद की भावना का बारीक संतुलन विभिन्न सरकारों के कार्यकाल में फलता-फूलता रहा है। इसका कारण यह है कि सरकारें इस बात से भली-भांति अवगत थी कि लोकतंत्र और सिविल सोसायटी के सशक्तीकरण में विश्वविद्यालयों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। अब लेकिन स्थिति यह है कि सांस्थानिक संवेदनहीनता ने पुलिसिया दमन को कैंपस में बढ़ावा देना शुरू कर दिया है जिसके पीछे राज्य की संवेदन शून्यता भी जिम्मेदार है। कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों (जेएनयू, जामिया आदि) में छात्रों द्वारा कैंपस में अपने अधिकारों हेतु किए जाने वाले आंदोलनों को दबाने के लिए किये गए पुलिसिया बल प्रयोग दरअसल प्रशासन पर सवाल उठाता है। छात्रों की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनने का प्रयास है। छात्रों और शिक्षकों को लगातार ‘राष्ट्र विरोधी’ घोषित करना दुर्भाग्यपूर्ण हैं। हमें अपने शैक्षणिक परिसरों में सभी तरह की विविधताओं का सम्मान और स्वीकृति बढ़ाने की आवश्यकता है। क्योंकि यहीं से विद्यार्थियों को मौलिक एवं व्यापक अनुभव प्राप्त होते हैं इसलिए परिसरों में प्रत्येक विद्यार्थी को स्वयं को व्यक्त करने का अवसर मिलने चाहिए। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पोषण नहीं किया गया तो हमारे विश्वविद्यालय आलोचनात्मक चिंतन के शीर्ष कैसे बनेंगे?
भारत के उच्च शिक्षण संस्थान एक शोकग्रस्त राज्य में विद्यमान है, ऐसा उनकी वैश्विक रैंकिंग से जाहिर होता है। ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ के अनुसार शीर्ष के 500 विश्वविद्यालयों में भारत के सिर्फ 8 विश्वविद्यालय ही शामिल हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में यह अपेक्षा की गई है कि आलोचनात्मक चिंतन और समस्या समाधान के साथ-साथ सामाजिक, नैतिक और संवेदनशील क्षमताओं का भी संवर्द्धन शिक्षा के मंदिरों में हो। ऐसा करने के लिए एक प्रोत्साहनपूर्ण वातावरण का निर्माण बेहद जरूरी है। इसके लिए फंडिंग को बढ़ावा देने के साथ-साथ उच्च शिक्षण संस्थानों को ज्यादा आंतरिक स्वतंत्रता और विश्वविद्यालयों के परिसरों में सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा को देने जैसे प्रयास तेज करने होंगे। अगर ऐसा नहीं होता है तो प्रतिभाशाली भारतीय नागरिक विदेशों में पलायन करते रहेंगे और भारत के नीति-निर्माता प्रतिभा पलायन का रोना रोते रहेंगे।
(अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद मो. दानिश ने किया है)