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भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की समय पूर्व रिहाई का दांव भाजपा के लिए उल्टा भी पड़ सकता है

पूरा देश खासकर उत्तर भारत चुनावी मोड में आ गया है। हर किसी ने अपनी बौद्धिक क्षमता से आकलन करना शुरू कर दिया है। मोदी सरकार ने कितना काम किया। किया भी या सिर्फ जुमले उछालते रहे। इस तरह की चर्चाएं जोर पकड़ने लगी हैं। इन्हीं चर्चाओं में एक बात यह भी छनकर आ रही है कि इस बार 2014 की तरह दलित वोट भाजपा को नहीं जाएगा। इसके पीछे का तर्क यह है कि मोदी राज में दलितों पर अत्याचार बढ़ा है। जिससे उस समुदाय के लोग नाराज हैं। शायद भाजपा के रणनीतिकारों को भी इसका आभास हो चला है, तभी तो दलितों को मनाने के लिए लगातार प्रयास हो रहे हैं। हाल में भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद की समय पूर्व रिहाई को इसी नजरिये से देखा जा रहा है।

साल 2017 में सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलितों और सवर्णों के बीच हिंसा की एक घटना हुई। इस हिंसा के दौरान भीम आर्मी संगठन उभरकर सामने आया। इसका पूरा नाम ‘भारत एकता मिशन भीम आर्मी’ है। इसका गठन चंद्रशेखर ने करीब सात साल पहले किया था। शब्बीरपुर हिंसा के बाद चंद्रशेखर ने 9 मई 2017 को सहारनपुर के रामनगर में महापंचायत बुलाई। इस महापंचायत के लिए पुलिस ने अनुमति नहीं दी। फिर भी सोशल मीडिया के जरिए महापंचायत की सूचना भेजी गई। सैकड़ों की संख्या में लोग इसमें शामिल होने के लिए पहुंचे। इसे रोकने के दौरान पुलिस और भीम आर्मी के समर्थकों के बीच संघर्ष हुआ। इसके बाद ही चंद्रशेखर के खिलाफ मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया गया।

वर्ष 2011 में गांव के कुछ युवाओं के साथ मिलकर चंद्रशेखर ने भीम आर्मी का गठन किया था। भीम आर्मी आज दलित युवाओं का एक पसंदीदा संगठन बन गया है। सोशल मीडिया पर भी इस संगठन से बड़ी संख्या में लोग जुड़े हुए हैं। सहारनपुर, शामली, मुजफ्फरनगर समेत पश्चिमी यूपी में यह संगठन अपनी खास पहचान बनाए हुए है। पिछले चुनाव में भाजपा ने पूरे उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन किया था। लिहाजा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों का वोट खिसकने से भाजपा को भारी नुकसान हो सकता है। ऐसे में भाजपा ने दलितों की नाराजगी को दूर करने के लिए ही चंद्रशेखर को रिहा करने का निर्णय लिया है। योगी सरकार कुछ भी कहे पर यह साफ दिखाई दे रहा है।

भाजपा को उम्मीद थी कि चंद्रशेखर को रिहा करने के बाद पार्टी के प्रति दलितों का नजरिया बदलेगा। योगी सरकार ने अनुसूचित जातियों को साधने के लिए बड़ा दांव खेला है। उन्होंने मायावती के सामने एक बड़ा खतरा भी पैदा कर दिया है। अब तक उत्तर प्रदेश में मायावती ही अनुसूचित जातियों की सबसे बड़ी नेता हैं। भले ही मायावती को 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिली हो, लेकिन बीजेपी की आंधी के बावजूद सिर्फ उत्तर प्रदेश में उनका वोट प्रतिशत लगभग 20 फीसदी रहा था। भाजपा चंद्रशेखर के बहाने बसपा के उस 20 फीसदी वोट में सेंध लगाना चाहती है, क्योंकि भीम आर्मी अनुसूचित जातियों की एक बड़ी संगठित इकाई बन चुकी है। भीम आर्मी गठन के बाद से मायावती खतरा महसूस करती रहीं हैं। मायावती ने पहले भीम आर्मी को आरएसएस की ही चाल बताया था। चंद्रशेखर को रिहा कर भाजपा मायावती को और डराना चाहती थी।

चंद्रशेखर पिछले साल जून महीने से रासुका के मामले में जेल में बंद थे। चंद्रशेखर की एनएसए की अवधि नौ महीने हो चुकी थी। सरकार इसे तीन महीने और बढ़ा सकती थी लेकिन उसने वक्त से पहले ही चंद्रशेखर को रिहा करने का फैसला किया। इस रिहाई को सियासी गलियारों में अहम माना जा रहा है क्योंकि ये रिहाई पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरणों के साथ-साथ देश के दूसरे हिस्सों में भी दलित राजनीति पर असर डाल सकती है।

2014 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने में उत्तर प्रदेश की खास भूमिका रही थी। उत्तर प्रदेश में दलितों ने मायावती को छोड़कर बीजेपी का साथ दिया था। लेकिन उसके बाद से देश में दलितों के साथ जिस तरह की घटनाएं हुईं उससे बीजेपी को काफी नुकसान हुआ। उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों में विपक्षी महागठबंधन ने भी बीजेपी को बड़ा झटका दिया। बीजेपी को पता है कि अगर उसे 2019 में फिर केंद्र की सत्ता पर काबिज होना है तो इसका रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर जाएगा इसलिए बीजेपी यूपी में अभी से पूरी ताकत झोंक रही है। चंद्रशेखर की रिहाई को भी राजनीतिक तौर पर बीजेपी सरकार का बड़ा दांव माना जा रहा है। लेकिन बड़ा सवाल ये कि क्या ये रिहाई दलितों को बीजेपी के पक्ष में फिर से मजबूती के साथ खड़ा करेगी?

चंद्रशेखर दलितों की ऐसी आवाज बनकर उभरे हैं जो अत्याचार करने वालों से न सिर्फ आंख में आंख डालकर मुकाबला करने को तैयार हैं, बल्कि राजनीतिक तौर पर भी दलितों की चेतना को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं। यही कारण है कि विपक्षी दलों और सरकार के खिलाफ खड़े संगठनों ने चंद्रशेखर की रिहाई का स्वागत किया है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में अनुसूचित जाति 16 .63 फीसदी और अनुसूचित जनजाति 8 .6 फीसदी है। इन दोनों को मिला दें तो आंकड़ा 25 फीसदी से ऊपर हो जाता है।

लोकसभा की कुल 543 में से करीब 28 प्रतिशत यानी 150 से ज्यादा सीटें एससी-एसटी बहुल मानी जाती हैं। यही वो वोट बैंक है जिसे न केवल बीजेपी, बल्कि दूसरे राजनीतिक दल भी साधना चाहते हैं। गुजरात में दलित नेता जिग्नेश मेवाणी का उभरना, उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर का प्रभाव और देशभर में दलितों के खिलाफ हुईं हिंसा की घटनाएं बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं। बीजेपी इसे समझ रही है और इसलिए वह ऐसे कदम उठा रही है ताकि खुद को दलितों का हितैषी बता सके। एससी/एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटना भी इसी दिशा में उठाया गया कदम माना जा रहा है।

उत्तर प्रदेश में करीब 21 फीसदी आबादी दलितों की है और विधानसभा की 403 सीटों में से 85 सीटें आरक्षित हैं जबकि कुल प्रभाव वाली सीटों की संख्या 120 के करीब है। प्रदेश में लोकसभा की कुल 80 सीटों में अनुसूचित जाति के लिए 17 सीटें आरक्षित हैं। कैराना और नूरपुर के उपचुनाव में बीजेपी को मिली हार के पीछे भी दलित वोट बैंक के खिसकने एक बड़ा कारण माना जा रहा है। सहारनुपर हिंसा के बाद वेस्ट यूपी में भीम आर्मी मजबूत संगठन बनकर उभरी है और वह सहारनपुर, शामली, मेरठ, मुजफ्फरनगर जैसे जिलों में राजनीतिक समीकरण बदलने की स्थिति में है। इसके अलावा अगर दलितों के साथ प्रदेश की करीब 19 फीसदी मुस्लिम आबादी एकजुट होकर बीजेपी के खिलाफ खड़ी हो गई तो बीजेपी के लिए न सिर्फ उत्तर प्रदेश में राजनीतिक समीकरण बिगड़ेंगे, बल्कि उसकी दिल्ली की राह भी खासी मुश्किल हो जाएगी। ऐसे में चंद्रशेखर की रिहाई का ये दांव बीजेपी के लिए उल्टा भी पड़ सकता है।

चंद्रशेखर ने जेल से बाहर आकर जो बयान दिया, उसने भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। उन्होंने कहा, ‘मेरी रिहाई भाजपा की साजिश है, वो 10 दिन के अंदर मुझे फिर से किसी न किसी मामले में फंसाकर जेल में डाल सकती है। 2019 में भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकना ही मेरा लक्ष्य है।’ चंद्रशेखर ने भाजपा के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती को अपनी बुआ बता दिया। उन्होंने कहा, ‘दलित समाज के लिए मायावती ने बहुत काम किया है। उनसे हमारा किसी तरह का कोई विरोध नहीं है।’ चंद्रशेखर के इस बयान से जहां भाजपा चिंतित है वहीं महागठबंधन के दलों में खुशी दिखती है।

भीम आर्मी ने अभी तक खुद सीधे तौर पर चुनाव मैदान में उतरने की बात नहीं की है, लेकिन चंद्रशेखर ने महागठबंधन के समर्थन का ऐलान करके बीजेपी में हलचल बढ़ा दी है। अब सवाल यहां पर ये उठ रहा है कि चंद्रशेखर किस तरह से खासकर बीजेपी के समीकरणों को बिगाड़ सकते हैं। साल के आखिर में कुछ बड़े राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव से पहले चंद्रशेखर की ये रिहाई बड़े मायने रखती है।

गुजरात में दलित नेता जिग्नेश मेवाणी, महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर, यूपी में चंद्रशेखर और देश के कई और राज्यों में इसी तरह के संगठन अगर एकजुट होते हैं तो बीजेपी का 2019 का पूरा चुनावी समीकरण बिगड़ सकता है। भीम आर्मी की ही बात करें तो ये एक बड़ा संगठन बन गया है। कहा जा रहा है कि भीम आर्मी 24 राज्यों में सक्रिय है। दलित युवा और मातृशक्ति इसकी बड़ी ताकत हैं। भीम आर्मी का गठन करीब तीन साल पहले किया गया था और इसने काफी आक्रामक रूप से पिछड़ी जातियों के युवाओं और अन्य लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया। यही वजह है कि आज भीम आर्मी के 300 के करीब स्कूल चल रहे हैं।

इन सबके बीच मायावती के चंद्रशेखर आजाद पर दिये बयान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनके बयान से नए राजनीतिक समीकरण का इशारा मिलता है। मायावती ने चंद्रशेखर के बुआ वाले बयान का विरोध करते हुए कहा कि मैं कोई बुआ नहीं हूं। मायावती के इस बयान के राजनीतिक मायने पर कुछ विश्लेषकों का मानना है कि मायावती को डर है कि यदि 2019 में उनकी पार्टी को अच्छी सीट मिलती है तो उसका श्रेय भीम आर्मी को जा सकता है। इससे बसपा की दलित राजनीति ही खत्म हो जाएगी। इसलिए मायावती अपना बेस वोट खिसकने नहीं देना चाहती। इसके अलावा कई अन्य राजनीतिक जानकारों का मानना है कि मायावती जमीन पर काम करने वाली नेता हैं। उन्हें आभास हो गया है कि 2014 में जो दलित वोट उनसे खिसकर गया था, वह 2019 में वापस आ रहा है। ऐसे में वह इसका श्रेय किसी और को क्यों लेने दें।

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