नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे 2020 के अनुसार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। अब प्रति 1,000 पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या 1,020 है। नोबेल प्राइज विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने एक लेख में महिलाओं की कम आबादी को लेकर भारत पर ‘मिसिंग वूमन’ का आरोप लगाया था। लेकिन अब ये आंकड़ें देश के लिए खुशखबरी से कम नहीं हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया एक रिपोर्ट इस खुशखबरी पर सवाल खड़ा कर रही है। रिपोर्ट के मुताबिक देश की महिलाओं में आत्महत्या करने की प्रवृति लगातार बढ़ती जा रही है। यह केंद्र सरकार के लिए चिंता का विषय है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ें के अनुसार पिछले साल देश में कुल 153,052 लोगों ने आत्महत्याएं की हैं। इनमें से आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से ज़्यादा है। यही नहीं आत्महत्या करने वाली महिलाओं में भी गृहिणियों की संख्या बहुत ज्यादा है। बीते साल 22,372 गृहिणियों ने आत्महत्या की हैं। यह कुल आत्महत्या का 14.6 प्रतिशत है। यह स्थिति केवल पिछले साल की नहीं है। वर्ष 1997 से हर वर्ष 20 हज़ार से ज़्यादा गृहणियों की आत्महत्या का आंकड़ा सामने आ रहा है। वर्ष 2009 में यह आंकड़ा 25,092 तक पहुंच गया था। विशेषज्ञ इन आत्महत्याओं के पीछे पारिवारिक समस्याओं या शादी से जुड़े मसलों को ज़िम्मेदार मानते हैं। इनके अलावा भी कई अन्य मामले हैं, जिस कारण महिलायें आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मज़बूर हो जाती हैं।
कहा जाता है कि भारतीय महिला बहुत ही सहनशील होती हैं। वह कठिन परिस्थितियों में भी आगे बढ़कर अपने काम को अंजाम तक पहुंचती हैं। चाहे घरेलु कामकाज हो या घर से बाहर की जिम्मेदारी भी महिलाएं बखूबी उठा रही है। यही नहीं अब तो भारतीय सेना और वायु सेना में भी महिलाएं पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलकर जंग लड़ रही हैं। इसके बावजूद महिलाओं में आत्महत्या करने की प्रवृति का लगातार बढ़ना झकझोर देने वाला मसला है। मनोवैज्ञानिकों से लेकर महिलाओं के विशेषज्ञ तक का मानना है कि सहने की भी एक सीमा होती है। जब वह सीमाएं खत्म हो जारी हैं तभी महिलायें आत्महत्या जैसा कदम उठती होंगी। भारत में 18 वर्ष के होते ही अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है। वह पत्नी और बहू बन जाती हैं और पूरा दिन घर पर खाना बनाते, सफाई करते और घर के काम करके बिताती हैं। इस नई जिम्मेदारी के साथ महिलाओं कई तरह के पाबंदियां भी लगती है। उनकी शिक्षा और सपने कोई मायने नहीं रह जाती है। उनकी महत्वाकांक्षा धीरे-धीरे ख़त्म होने लगती है। इससे उन पर निराशा छा जाती है। कई बार इस निराशा से छोटी-छोटी बातों पर ही महिलायें आत्महत्या कर लेती है। कहने को तो वह छोटी से बातों पर आत्महत्या की हैं, लेकिन उसका असली वजह उनकी निराशा, महत्वकांक्षाओं का खत्म हो जाना होता है।
हाल में ही हुए हैदराबाद की घटना बताती है कि किस तरह से पति के साथ मामूली विवाद के बाद महिला ने कथित रूप से आत्महत्या कर ली। बताया जा रहा है कि महिला का पति दर्जी का काम करता है और उसने महिला की पसंद का ब्लाउज नहीं सिला था जिसे लेकर महिला नाराज थी। उनके मध्य झगड़ा हुआ था इसी झगडे की वजह से महिला ने आत्महत्या कर ली। इतने छोटे से मामले पर आत्महत्या जैसा कदम उठाना समझ से एकदम परे हैं। हालांकि आंकड़ें इसी ओर इशारा करते हैं। वर्ष 2018 के आंकड़ों के मुताबिक़ पति और रिश्तेदारों द्वारा महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के मामले क़रीब 32 फ़ीसदी है मतलब क़रीब एक तिहाई है।पुलिस ने वर्ष 2018 में 103,272 ऐसे मामले दर्ज किए थे।
वही भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक़ वर्ष 2015-16 के दौरान 33 फ़ीसदी औरतों को किसी ना किसी रूप में अपने पति के हिंसा का शिकार होना पड़ा है फिर चाहे वो शारीरिक, यौनिक या फिर भावनात्मक स्तर पर हो इसमें सिर्फ़ 14 फ़ीसदी औरतें ही मदद के लिए सामने आईं है।
दुनियाभर में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं भारत में होती हैं। भारत में आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या दुनिया की एक चौथाई है। वहीं, 15 से 39 साल के समूह में आत्महत्या करने वालों में महिलाओं की संख्या 36 प्रतिशत है।लैंसेट अध्ययन के अनुसार भारत में वैश्विक आत्महत्याओं की संख्या अनुपात का लगभग 37% हिस्सा है, जिसमें हर पांच में आत्महत्याओं में आत्महत्या करने वाली दो महिलाएं भारतीय हैं। भारत में आत्महत्या पर अब भी खुलकर बात नहीं होती है। इसे कलंक के तौर पर देखा जाता है और अधिकतर परिवार इसे छुपाने की कोशिश करते हैं। ग्रामीण भारत में अटॉप्सी की कोई ज़रूरत नहीं होती और अमीर स्थानीय पुलिस के ज़रिए आत्महत्या को आकस्मिक मृत्यु दिखाने के लिए जाने जाते हैं। पुलिस की प्रविष्टियां सत्यापित नहीं होती हैं।
भारत राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति विकसित कर रहा है इसके आंकड़ों की गुणवत्ता को ठीक करना प्राथमिकता होनी चाहिए। अगर भारत में होने वाली आत्महत्याओं की संख्या देखें तो वो बहुत कम है। दुनिया भर में आमतौर पर वास्तविक संख्या चार से 20 गुना ज़्यादा होती है। इस तरह भारत में देखें तो पिछले वर्ष आत्महत्या के डेढ़ लाख मामले दर्ज किए गए। यदि आत्महत्याओं के सभी मामले दर्ज किए जाएं तो यह आंकड़ा छह लाख और 60 लाख तक हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य है कि वर्ष 2030 तक दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को एक तिहाई तक कम किया जाए। लेकिन, पिछले वर्ष के मुक़ाबले हमारे यहां ये संख्या 10 प्रतिशत बढ़ गई है। ऐसे इस लक्ष्य को पाना खासा कठिन नजर आता है।