- आयशा, प्रशिक्षु
आजादी के उपरांत नेहरू सरकार ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए प्रसिद्ध शिक्षाविद्, दार्शनिक एवं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व उप कुलपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन 1948 में किया था। इस आयोग की सिफारिशों ने आजाद भारत में शिक्षा प्रणाली की नींव रखी। भारतीय गणराज्य में केंद्र एवं राज्य सरकारों के मध्य स्पष्ट कार्य विभाजन की व्यवस्था संविधान में की गई है। इसके लिए तीन प्रकार की सूचियां हैं। केंद्र के अधिकारों का वर्णन संघ सूची में, राज्यों के अधिकारों का स्पष्ट वर्णन राज्य सूची में तो तीसरी सूची में उन क्षेत्रों को रखा गया है, जिसमें कानून बनाने के लिए केंद्र एवं राज्यों को आपसी समझ के अनुसार अधिकार दिया गया है। इसे समवर्ती सूची कहा जाता है। शिक्षा को इस सूची में रखा गया है। ‘नीट’ परीक्षा को लेकर इन दिनों केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य टकराव की स्थिति समवर्ती सूची में शामिल शिक्षा की बाबत केंद्र सरकार द्वारा 2013 में लिए गए एक फैसले के चलते उत्पन्न हुई है। केंद्र द्वारा पारित ‘नीट’ परीक्षा का विरोध करते हुए तमिलनाडु ने इसे गत् सप्ताह अपने राज्य में अमान्य बनाने वाला कानून बनाकर टकराव को गहरा दिया है।
‘नीट’ क्या है?
नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट या नीट परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद मेडिकल कोर्सेस एमबीबीएस जैसे कोर्सेज में एनटीए (नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) इस परीक्षा को कराती है। यह परीक्षा दो लेवल पर की जाती है यूजी और पीजी। यूजी लेवल में एमबीबीएस और बीडीएस जैसे कोर्सेज का एंट्रेंस टेस्ट होता है। जबकि पीजी लेवल पर एमएस और एमडी जैसे कोर्सेज के लिए एंट्रेंस टेस्ट होता है। ये परीक्षा हर साल लगभग देश के 479 मेडिकल कॉलेजों में कोर्सेज के एडमिशन के लिए आयोजित की जाती है।
नीट की जरूरत क्यों?
भारत में ‘नीट’ से पहले हर राज्य में मेडिकल की पढ़ाई के लिए अलग-अलग परीक्षाएं आयोजित कराता था। लेकिन उसके लिए विद्यार्थियों को हर राज्य अथवा निजी मेडिकल कॉलेज के लिए अलग- अलग एंट्रेंस एग्जाम देने पड़ते थे। जिससे स्टूडेंट्स न केवल तनाव में रहते थे बल्कि उन्हें अलग- अलग एंट्रेंस फीस भी देनी पड़ती थी। इस भार को कम करने और टाइम को बचाने के लिए नीट एग्जाम लाया गया था। जिससे पैसे, टाइम और बच्चों पर पड़ने वाले मानसिक तनाव को काफी हद तक कम किया जा सके। वर्ष 2013 में केंद्र सरकार ने पहली बार एक कामन टेस्ट के जरिए देश भर के मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन की प्रक्रिया शुरू करने का प्रयास किया। निजी मेडिकल कॉलेज के मैनेजमेंट ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 18 जुलाई, 2013 को न्यायालय ने इस परीक्षा पर रोक लगा दी थी। 11 अप्रैल, 2016 को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने इसे सही मानते हुए केंद्र सरकार एवं मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को इस परीक्षा को आयोजित करने का अधिकार दे डाला।
‘नीट’ का विवादों से रहा है नाता
2013 से ही देश भर के निजी मेडिकल कॉलेजों के साथ- साथ राज्यों ने इस परीक्षा का विरोध शुरू कर दिया था। निजी कॉलेजों को इस परीक्षा के चलते अपनी आय, विशेषकर
‘डोनेशन’ के नाम पर वसूली रुक जाने की चिंता थी, तो तमिलनाडु, बंगाल, असम, गुजरात जैसे राज्यों को आपत्ति थी कि परीक्षा की भाषा अंग्रेजी और हिंदी ही होने के चलते उनके राज्यों के मेधावी विद्यार्थी डॉक्टर बनने से वंचित रह जाएंगे। इन राज्यों की भावना समझते हुए 2017 के बाद से ‘नीट’ परीक्षा को तमिल, तेलुगु, मराठी, बांगला, असमी एवं गुजराती भाषा में भी आयोजित कराया जाने लगा। 2018 में कन्नड़ और उड़ीसा को भी इसमें शामिल किया गया। वर्तमान में 9 भारतीय भाषाओं एवं अंग्रेजी में इस परीक्षा को दिया जा सकता है।
फिर शुरू हुआ ‘नीट’ का विरोध
तमिलनाडु सरकार ने ‘नीट’ की परीक्षा से अपने राज्य को अलग करने का निर्णय लिया है। काफी समय से तमिलनाडु राज्य सरकार नीट की परीक्षा से बाहर होना चाहती थी, क्योंकि उनका मानना था कि नीट परीक्षा का सिलेबस तमिलनाडु के विद्यार्थियों के लिए अधिक कठिन है। इस मांग के चलते बहुत-सी उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में डाली गई। इस बीच एक छात्र द्वारा परीक्षा से पहले आत्महत्या करने का मुद्दा जब राज्य में गरमाने लगा तो गत् सप्ताह राज्य सरकार ने अपने संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए विधानसभा में कानून बनाकर राज्य को नीट से बाहर कर डाला है। परंतु जब तक इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर नहीं हो जाते तब तक यह कानूनी तौर पर लागू नहीं होगा। नीट परीक्षा से अचानक एक राज्य का बाहर हो जाना एक गंभीर मुद्दा बन गया है।
तमिलनाडु सरकार का मानना है, हार्ड सिलेबस होने के कारण स्टूडेंट्स मानसिक दबाव में आकर आत्महत्या कर रहे हैं। ताजा विवाद की शुरुआत तमिलनाडु के एक छोटे से सेलम जिले से हुई। यहां रहने वाले विद्यार्थी धनुष ने परीक्षा से दो घंटे पहले आत्महत्या कर ली। जिसके चलते सरकार ने इस मामले पर विचार करने के बाद इस परीक्षा से अपने राज्य को बाहर करने का फैसला किया है। लेकिन शिक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि विद्यार्थियों के आत्महत्या करने के पीछे शिक्षा प्रणाली नहीं, बल्कि उनकी आत्मनिर्भरता और साहस की कमी है। आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े एक चिंता का विषय बन गया है। भारत में हर 5 मिनट में एक स्टूडेंट आत्महत्या करता है। आत्महत्या जैसे गंभीर मामले को गहराई से सुलझाए जाने की जरूरत है। जिसके लिए स्टूडेंट्स को ऐसी व्यवस्था प्रदान करनी चाहिए जिससे उनका आत्मविश्वास और साहस बढ़ाया जा सके न कि शिक्षा को व्यवस्था में किए गए सुधारों को वापस ले लिया जाएं। धनुष की आत्महत्या के मात्र एक दिन बाद ही 13 सितंबर को नीट की परीक्षा देकर घर लौटी तमिलनाडु के अरियालुर में एक छात्रा ने भी खराब परीक्षा होने के चलते आत्महत्या कर ली। विद्यार्थियों में परीक्षा से संबंधित तनाव को ‘फियर ऑफ फैलियर’ कहा जाता है यानी ‘असफलता का भय’।
शिक्षाविदों का मानना है कि इस भय से मुक्ति के लिए वैज्ञानिक शोधों का सहारा लेते हुए विद्यार्थियों के लिए नियमित संवाद करना जरूरी है। शिक्षाविद् मानते हैं कि शिक्षा के भय से आत्महत्या तक करने की स्थिति बेहद चिंताजनक जरूर है लेकिन इसका उपचार परीक्षा प्रणाली समाप्त करने से नहीं हो सकता है। 2021 में सीबीएसई की 12वीं की परीक्षाओं के आंकड़ों में 99.37 प्रतिशत बच्चे पास हुए। जिनमें लगभग 70 हजार बच्चों के 95 प्रतिशत से अधिक नंबर आए थे। यह वह रिजल्ट हैं जो कोरोना के कारण बिना परीक्षा लिए गए 10वीं और 11वीं की परीक्षाओं के अनुमान पर दिए गए थे। इसके मुताबिक तो यह बात स्पष्ट रूप से अस्वीकार्य होगी कि सभी विद्यार्थियों को बिना नीट के ही एडमिशन दे दिया जाए। बहरहाल अब तमिलनाडु के बाद ‘नीट’ को लेकर एक बार फिर से केंद्र-राज्य के मध्य टकराव का नया दौर शुरू होना तय है।