कहते हैं कि संगीत भी एक प्रकार का योग है। एक ऐसी सुव्यवस्थित ध्वनि जो रस की सृष्टि करे। जिसमें गायन, वादन व नृत्य तीनों का समावेश हो, वह संगीत है। यूं तो संगीत का क्षेत्र काफी विस्तृत है। धु्रपद, धमार, ख्याल, ठुमरी, भजन, गजल आदि इसकी कई शैलियां हैं। इसी तरह संस्कृति भी एक व्यापक आधार वाला क्षेत्र है। संस्कृति के अंतर्गत हम किसी समाज में गहराई तक उसके व्यापक गुणों को देख सकते हैं। यह समाज के सोचने-विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला वस्तु यानी हर जगह में परिलक्षित होती है। संस्कृति ऐसी चीज है जिसे विकसित किया जा सकता है, परिष्कृत किया जा सकता है, पूजा की जा सकती है। संस्कृति ए
ऐसे में डॉ पीताम्बार अवस्थी ने इन्हीं दो महत्वपूर्ण विषयों को एक कर ‘संगीत एवं संस्कृति’ नामक पुस्तक निकाली है। जिसे हम एक बेहतर गं्रथ कह सकते हैं। इस पुस्तक में पाठक दोनों विषयों को एक साथ समझ सकते हैं। यह पुस्तक शोधार्थियों के दृष्टिकोण भी महत्वपूर्ण है। इस पूरे पुस्तक में गायन शैलियों, पिण्डोत्पत्ति, नाद, स्वर, राग, अलंकार, तान, जाति प्रकरण, गीति, ग्राम मूर्च्छानाक्रम, संस्कृति, लोकवाध आदि पाठों में विस्तारपूर्वक इनकी जानकारी प्रदान की गई है। पुस्तक में संगीत के विस्तृत परिचय के साथ ही संस्कृति के अंतर्गत कुमाऊंनी लोक साहित्य, उसकी विधाओं मसलन, लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा पर भी जानकारी प्रदान की गई है। इसके अलावा गणेश पूजा, शकुनाखर, संध्या गीत, देवताओं को निमंत्रण देने वाले गीत, इष्टमित्र के न्यूत, आवदेव (पितृ निमंत्रण), नवग्रह आमत्रंण, फाग आदि को भी समाहित किया गया है।
इसमें लोकवाद्यों पर भी काफी विस्तार से जानकारी दी गई है। कुल मिलाकर पुस्तक में शोधपरक जानकारियों को जुटाने में लेखक ने काफी मेहनत की है। इसके अलावा पुस्तक के प्राग्वचन में लेखक की यह चिंता भी जायज ही दिखती है कि पहले संगीत व नृत्य में एक नैतिकता थी लेकिन आज जिस तरह से संगीत एवं नृत्य में फूहड़ता का स्वरूप दिखाई देता है, वह केवल मनोरंजन तक सीमित रह गया है जबकि संगीत वह विधा है जिसमें इहलोक में आनंद व जीवन के अंत में मोक्ष तक प्राप्त किया जा सकता है।