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कैसे लगेगी नैय्या पार

देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल अपने अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है। संगठन के भीतर ओल्ड वर्सेज यूथ के मध्य दिनोंदिन गहराती खाई और दिग्गज नेताओं पर लगातार कस रहा कानूनी शिकंजा भाजपा के कांग्रेसमुक्त भारत के सपने को साकार करता स्पष्ट नजर आ रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या गांधी परिवार का कम होता करिश्मा है जिसके चलते पार्टी में उनकी पकड़ कमजोर होती जा रही है
एक सौ चौतीस बरस पुरानी कांग्रेस आज अपने अस्तित्व का सबसे बड़ा संकट झेल रही है। ऐसा संकट जो इससे पहले कभी इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने नहीं देखा। एक तरफ पार्टी का लगातार सिकुड़ रहा जनसमर्थन है, तो दूसरी तरफ दिग्गज नेताओं पर केंद्रीय जांच एजेंसियों का कसता शिकंजा। इन दो छोरों के मध्य पार्टी में भारी अनिश्चितता का माहौल, काफी हद तक दिशाहीनता, नेतृत्वहीनता और अनुभव बनाम यूथ के बीच चल रही रार ने रही-सही कसर पूरी कर डाली है। कांग्रेस ने इन 134 वर्षों में खासा संकट देखा और झेला भी है, हरेक संकट से वह उबरी भी है। इस बार लेकिन अंधकार खासा घना हो चला है। 1966 में लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद पहला बड़ा संकट कांग्रेस ने देखा। तब भी युवा बनाम अनुभव की लड़ाई चली। इंदिरा गांधी के नेतृत्व को बुजुर्ग कांग्रेसियों ने चुनौती दी। नतीजा पार्टी का दो फाड़ होना रहा। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने जल्द ही अपनी पकड़ बना ली और मोरारजी देसाई समेत बड़े दिग्गज किनारे कर दिए गए। यह दौर भारी उठा-पटक वाला जरूर था, लेकिन इंदिरा गांधी के कुशल नेतृत्व ने 1980 में सत्ता वापसी कर असल कांग्रेस के रूप में अपनी जड़ें जमा लीं। राजीव गांधी की हत्या के बाद एक बार फिर कांग्रेस संकट में आ गई। हालांकि पीवी नरसिम्हा राव ने पूरे पांच बरस बतौर प्रधानमंत्री कांग्रेस की सत्ता केंद्र में बनाए रखी, लेकिन संगठन कमजोर हुआ। एनडी तिवारी और अर्जुन सिंह जैसे खांटी कांग्रेसी अलग हो गए। 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मात्र 141 सीटें मिली थी। तब तक यह कांग्रेस की सबसे खराब परफॉरमेंस थी। घबराए कांग्रेसियों ने राजनीति से सख्त परहेज करने वाली सोनिया गांधी से पार्टी का नेतृत्व संभालने की गुहार लगाई।
सोनिया का समय
वर्ष 1998 में पार्टी अध्यक्ष बनी सोनिया गांधी ने न केवल पार्टी को नया जीवन दिया, बल्कि 2004 में केंद्र की सत्ता में भी पहुंचा दिया। सोनिया गांधी के सामने चैलेंज केवल कांग्रेस को खड़ा करना ही नहीं था, उससे कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती स्वयं उनके विदेशी मूल को लेकर फैलाई गई नाना प्रकार की भ्रांतियां थी जिनका जवाब खुद सोनिया को ही देना था। यहां-वहां सहयोगियों की बैसाखी तलाश रही कांग्रेस को 1998 में पचमढ़ी अधिवेशन में सोनिया गांधी ने ही ‘एकला चलो’ का मंत्र दिया था। उन्होंने पार्टी को मजबूत किया, इतना कि 15 राज्यों में उनके अध्यक्षकाल में कांग्रेस सत्ता में आई। अपने धुर विरोधी शरद पवार तक से कांग्रेस का गठबंधन सोनिया गांधी ने कराया। सोनिया के नेतृत्व में 2004 के चुनाव हुए तो यूपीए गठबंधन ने केंद्र में सरकार बनाई। सोनिया ने पार्टी नेताओं की गुहार को नजरअंदाज कर पीएम बनने से इंकार कर एक आदर्श प्रस्तुत किया। उनके विरोधी लाख कहें सच यही है कि संविधान अनुसार वे प्रधानमंत्री बन सकती थीं। 2009 में एक बार फिर यूपीए को सरकार बनाने का मौका मिला। इस तरह कांग्रेस पूरे दस बरस केंद्र में सत्तासीन रही। यही वह समय था जब दस जनपथ एक समानांतर सत्ता का केंद्र भी बनकर उभरा और प्रधानमंत्री की ताकतों का हरण और क्षरण हुआ। अन्ना आंदोलन इसी दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जन्मा जिसने कांग्रेस के खिलाफ जनमत तैयार किया। इस जनमत का लाभ भाजपा को मिला और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी जबर्दस्त जनादेश से सत्ता में आई। कांग्रेस मात्र 44 सीटों पर सिमट कर रह गई। इसके बाद से ही कांग्रेस का संकट गहराते गया। राज्यों में लगातार चुनाव हारते रहने के चलते पार्टी में बिखराव भी शुरू हो गया है। राहुल गांधी न तो संगठन को मजबूत कर पाए, न ही सोनिया गांधी के सिपहसालारों को, खासकर उन सिपहसालारों को जिन पर पार्टी को रसातल तक पहुंचाने के आरोप हैं, साइड लाइन कर पाए। हालात बिगड़ने इतने तक ही नहीं, रूके हैं। केंद्र सरकार अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं पर कानूनी शिकंजा पूरे दमखम से कस रही है। अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार इतने एग्रेसिव तरीके से कांग्रेस को ऐन-केन-प्रकारेण समाप्त करती नहीं नजर आई जितनी अमित शाह के केंद्रीय गृहमंत्री बनने के बाद।
राहुल काल
सन् 2004 में राहुल गांधी की राजनीति में एंट्री हुई थी। मई, 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने पिता की सीट अमेठी से पर्चा भरा और विजयी हुए। 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल खासे सक्रिय रहे, हालांकि 1990 के बाद से प्रदेश में मरणासन्न पड़ी कांग्रेस 403 में से मात्र 22 सीटें ही जीत सकी। 24, सितंबर, 2007 को राहुल गांधी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनाए गए। उन्हें भारतीय यूथ कांग्रेस के साथ-साथ छात्र संगठन एनएसयूआई की जिम्मेदारी सौंपी गई। जनवरी 2013 में वे पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। इस दौरान वीरप्पन मोयली सरीखे पुराने कांग्रेसियों ने ‘राहुल-एज पीएम’ का कोरस गाना शुरू कर डाला था। राहुल लेकिन पार्टी के यूथ विंग को मजबूत करने में जुटे रहे। उनके प्रयासों के चलते ढाई लाख सदस्यों वाली यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई की सदस्यता कई गुना बढ़कर 25 लाख तक पहुंच गई। राहुल ने पूरे देशभर से युवा नेताओं को आगे लाने का भी प्रयास किया, लेकिन पुराने कांग्रेसयों ने उनके इन प्रयासों को परवान नहीं चढ़ने दिया। 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए हुए चुनाव में राहुल ने अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी। दो सौ से ज्यादा रैलियां अकेले उन्होंने की लेकिन जमीनी कार्यकर्ता के न होने के चलते पार्टी मात्र 28 सीटें ही जीत पाई। 2014 के आम चुनाव में करारी हार के बाद फरवरी, 2015 में राहुल गांधी काफी अर्से तक राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गए। उनकी  गुमशुदगी तब भारी चर्चा का विषय बनी। लेकिन अपनी वतन वापसी के बाद राहुल नए अवतार में नजर आए। खांटी राजनेता के रूप में उन्होंने मोदी पर ‘सूट-बूट की सरकार’ कह निशाना साधा। गुजरात में हुए विधानसभा चुनाव में ‘विकास पागल हो गया है’ नारे के संग मैदान में उतरे राहुल ने भाजपा को बैकफुट में ला दिया। फिर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी को मिली सफलता बाद राहुल 2019 के चुनाव में ‘चौकीदार चोर है’ नारे के साथ पूरी ऊर्जा से लड़ते नजर आए। हालांकि कांग्रेस ने जबरदस्त दमखम के साथ चुनाव लड़ा, लेकिन नतीजे बेहद चौंकाने वाले रहे। स्वयं राहुल अपनी परंपरागत सीट अमेठी से चुनाव हार गए। मात्र 18 माह कांग्रेस अध्यक्ष रहने के बाद राहुल ने लोकसभा चुनाव में मिली हार की जिम्मेदारी ले इस्तीफा दे दिया।
कमजोर होता करिश्मा
राहुल के इस्तीफे के बाद कांग्रेसियों में अपने नेता को मनाने के लिए अपेक्षित माहौल का न होना इस बात का प्रमाण है कि गांधी परिवार का करिश्मा और पार्टी में पकड़ कम हो रही है। मीडिया में चर्चा होने के बाद कुछेक नेताओं ने शर्मा-शर्मी इस्तीफा अवश्य दिया, लेकिन माहौल राहुल के पक्ष में बनता नजर नहीं आया। पार्टी में इस परिवार का महत्व कम होने का एक प्रमाण पिछले दिनों एक राज्य के मुख्यमंत्री के दिल्ली प्रवास के दौरान देखने को मिला। कभी दस जनपथ के आगे-पीछे मंडराने वाले इन नेता ने सोनिया गांधी से मिलने तक का समय नहीं मांगा। दरअसल पार्टी नेताओं का एक बड़ा वर्ग ‘मोदी मैजिक’ की काट अब ‘गांधी मैजिक’ से होते नहीं देख पा रहा है। यही कारण है कि ऐसे नेताओं में भाजपा ज्वाइन करने की होड़ लग चुकी है। महाराष्ट्र में चुनाव से ठीक पहले पांच विधायकों का पार्टी छोड़ भगवामयी होना और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का कटाक्ष कि ‘यदि दरवाजे खोल दें तो सभी कांग्रेसी भाजपा में शामिल हो जाएंगे’, इस बात की पुष्टि करता है। हरियाणा में हुड्डा का खुला विद्रोह सभी ने देखा तो युवा नेताओं के बयान भी हर रोज इस तरफ इशारा कर रहे हैं।
यूथ बनाम ओल्ड
कांग्रेस मात्र चार राज्यों में बमुश्किल सत्ता में हैं। मध्य प्रदेश में पार्टी भीतर चल रही मारकाट कब अपनी ही सरकार के पतन का कारण बन जाए, कहा नहीं जा सकता। मुख्यमंत्री न बन पाने का दंश युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का लगातार मुख्यमंत्री कमलनाथ के खिलाफ बयानबाजियां करा रहा है। हालात इतने विकट हैं कि महाराष्ट्र चुनाव समिति के प्रभारी बनाए गए सिंधिया अपनी जिम्मेदारी छोड़ मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के खिलाफ खुलकर मोर्चाबंदी करने में जुटे हैं। राजस्थान में चिर असंतुष्ट उपमुख्यमंत्री  सचिन पायलट लगातार सीएम अशोक गहलोत को अपने निशाने पर लिए रहते हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी के युवा नेता जतिन प्रसाद के तेवर भी बगावती हैं। वे पार्टी लाइन से इतर लगातार अनुच्छेद 370 और अन्य मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन करते बयानबाजी कर रहे हैं। महाराष्ट्र में पार्टी की शान कहे जाने वाले मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा और सिंधिया के भाजपा में जाने की खबरें रोज सुनने को मिल रही हैं। सबसे बड़ा संकट कांग्रेस के सामने इन नेताओं को थामने का है। समझा जा रहा था कि सोनिया गांधी के कमान संभालने के बाद पार्टी में कुछ मजबूती आएगी, लेकिन हाल-फिलहाल ऐसा कुछ होते नजर नहीं आ रहा।
संकट में दिग्गज
गांधी परिवार : भाजपा नेता डॉ सुब्रमण्यम स्वामी की रिपोर्ट पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ नेशनल हेराल्ड अखबार की संपत्ति संग फर्जीवाड़े का मुकदमा दिल्ली की एक अदालत में चल रहा है। इस मामले में गांधी परिवार के अलावा वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मोतीलाल बोरा, ऑस्कर फर्नांडीस और सैम पित्रोदा भी आरोपी हैं। गांधी परिवार के मित्र पूर्व पत्रकार सुमन दुबे भी इसमें आरोपी बनाए गए हैं। इस मामले में भी ईडी की अलग जांच चल रही है। अभी सभी नेता जमानत पर हैं।
पी चिदंबरम : वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पूर्व गृह एवं वित्त मंत्री पी चिदंबरम कालेधन को सफेद करने, विदेशों में बेनामी संपत्ति खरीदने और वित्त मंत्री रहते गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप के चलते सीबीआई की हिरासत में हैं। दूसरी जांच एजेंसी ईडी भी उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी है। अमित शाह जब गुजरात के गृह राज्यमंत्री थे तब उन्हें सोहराबुद्दीन एन्काउंटर केस में सीबीआई ने हिरासत में लिया था। तब गृहमंत्री चिदंबरम थे। कांग्रेस इसे प्रतिशोध की राजनीति करार दे रही है। लेकिन कोर्ट के सामने जो दस्तावेज बतौर सबूत मौजूद हैं उनसे स्पष्ट है कि पी चिदंबरम कहीं न कहीं भ्रष्टाचार में लिप्त अवश्य हैं।

डीके शिवकुमार : कर्नाटक में पार्टी के कद्दावर नेता डीके शिवकुमार भी ईडी द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए हैं। उन पर भी मनी लॉन्डिं्रग का आरोप है। शिवकुमार के चलते ही भाजपा के वार कर्नाटक कांग्रेस तोड़ने के प्रयास सफल नहीं हुए थे। दिग्गज कांग्रेसी नेता अहमद पटेल को गुजरात से राज्यसभा पहुंचाने में भी शिवकुमार की मदद भाजपा को अखरी। कांग्रेस उनकी गिरफ्तारी पर भी प्रतिशोध की राजनीति को मुद्दा बना रही है।

शशि थरूर : कांग्रेस के इन नेता पर भी अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर की रहस्यमय हालात में 15 जनवरी, 2014 में हुई मौत के चलते गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। उन पर 2018 में आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा दर्ज हो चुका है जिसमें उन्हें 10 साल तक की सजा हो सकती है।
हरीश रावत : उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत एक निजी टीवी चैनल द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन के चलते सीबीआई जांच में फंसे  हैं। उत्तराखण्ड हाईकोर्ट में तीन सितंबर को सीबीआई ने रावत पर मुकदमा दर्ज करने की बात कही है। इस स्टिंग ऑपरेशन में रावत विधायकों की खरीद-फरोख्त पर चर्चा करते दिखे थे। हालांकि रावत पर किसी प्रकार के भ्रष्टाचार का आरोप सिद्ध नहीं होता, लेकिन 2016 में मुख्यमंत्री बनने के बाद रावत के ‘मोदी मैजिक’ उत्तराखण्ड में रोकने का श्रेय जाता है। कांग्रेस तोड़ भाजपा ने उत्तराखण्ड में सरकार बनाने का जबर्दस्त प्रयास रावत ने सीएम रहते किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अब हरीश रावत पर भी केंद्रीय जांच एजेंसी का शिकंजा कसा जा रहा है।
भूपिन्दर सिंह हुड्डा : हरियाणा के पूर्व सीएम भूपिन्दर सिंह हुड्डा पर ईडी और सीबीआई नाना प्रकार की जांचें कर रही है। हुड्डा पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को जमीनों के एलॉटमेंट में नाजायज लाभ पहुंचाने से लेकर गुड़गांव शहर में बिल्डर्स संग गठजोड़ कर सरकारी जमीनों के आवंटन में भारी धांधली के आरोप हैं।
कमलनाथ : मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ भी केंद्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं। उनके भांजे रतुलपुरी को एक बैंक लोन घोटाले में ईडी पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है। कमलनाथ पर इन्कमटैक्स का शिकंजा भी कस रहा है।
कुल मिलाकर भाजपा कांग्रेस को चौतरफा घेरने में जुटी है। कांग्रेस नेतृत्व को इन सबके चलते लकवा मार गया प्रतीत हो रहा है। हालात इतने खराब हैं कि बड़े नेता पार्टी लाइन से हटकर महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी निजी राय रखने से बाज नहीं आ रहे हैं। जिन राज्यों में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां पार्टी नेतृत्व की निर्णयहीनता के चलते कोहराम मचा है। पार्टी के युवा महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया महाराष्ट्र में चुनाव प्रभारी का दायित्व निभाने के बजाय मध्य प्रदेश में कमलनाथ को कमजोर करने में ज्यादा सक्रिय हैं। हरियाणा में भूपिन्दर सिंह हुड्डा पार्टी छोड़ने की कगार में पहुंच चुके हैं। पार्टी को डूबता जहाज मान भाजपा का दामन थामने की भी होड़ कांग्रेसियों में मची हुई है। युवा बनाम अनुभव के बीच चल रहे घमासान के बीच अब संकट इस बात का भी सामने आ खड़ा हुआ है कि पार्टी के पास कौन ऐसा युवा नेता है जो डूबने के भंवर से बाहर निकालने का दमखम रखता है। यदि अब भी सोनिया गांधी नहीं चेतीं तो निश्चित ही भाजपा अध्यक्ष का कांग्रेस मुक्त देश का सपना साकार होने में ज्यादा समय नहीं।

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