एक ओर जहां एनडीए के उम्मीदवार उसकी दूरगामी चुनावी राजनीति में भी फायदेमंद हो सकते हैं, वहीं यूपीए उम्मीदवारों से उसकी दूरगामी राजनीति पर असर पड़ेगा, ऐसा दूर-दूर तक नजर नहीं आता है
हाल ही में हुए देश के राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार द्रोपदी मुर्मू ने बंपर जीत हासिल की है वहीं अगले महीने यानी 6 अगस्त हो होने वाले उपराष्ट्रपति चुनाव में भी एनडीए की जीत निश्चित मानी जा रही है। इन चुनावों में एनडीए ने ऐसे मजबूत उम्मीदवार उतारे जिसका फायदा उसे आगामी चुनावों में भी मिलेगा। वहीं विपक्ष इस दिशा से भटकता नजर आया। आम चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं हैं। लेकिन किसी भी चुनाव को जीतने के लिए जिस ठोस रणनीति और दूरदर्शिता की जरूरत होती है, वह विपक्ष के पास बिल्कुल नजर नहीं आ रही है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों में यह स्पष्ट रूप से नजर आया है। एनडीए के उम्मीदवारों के जवाब में विपक्ष कोई ऐसे प्रभावशाली उम्मीदवार नहीं उतार पाया जिसमें उसकी रणनीतिक सूझ-बूझ नजर आती और विपक्ष एकजुट रह पाता।
एनडीए ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक अनुभवी आदिवासी महिला को उतारा। वहीं उपराष्ट्रपति के लिए एक ऐसे राजनीतिज्ञ को उतारा जिसकी किसान पुत्र की छवि बनी हुई है। लेकिन विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति के लिए यशवंत सिन्हा और उपराष्ट्रपति के लिए मार्गेट अल्वा को उतारा गया। दोनों उम्मीदवारों की छवि उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली वाली बनी हुई है। एक ओर जहां एनडीए के उम्मीदवार उसकी दूरगामी चुनावी राजनीति में भी फायदेमंद हो सकते हैं। वहीं यूपीए उम्मीदवारों से उसकी दूरगामी राजनीति पर असर पड़ेगा, ऐसा दूर-दूर तक नजर नहीं आता है। नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्षी दल ही एकजुट नहीं हो पाए। बीजद, झामुमो, शिवसेना, शिअद आदि ने अपनी राजनीति को ध्यान में रखकर एनडीए का साथ देने का फैसला लिया। नतीजा यह हुआ कि विपक्ष के लिए यह चुनाव प्रतीकात्मक हो गया।
पिछले चुनाव से तुलना करें तो तब यूपीए की रणनीति जरा बेहतर दिखी थी। जब एनडीए ने रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार घोषित किया तो यूपीए की तरफ से मीरा कुमार पर दांव लगाया गया। हालांकि, एनडीए की जीत तय थी लेकिन फिर भी कोविंद के मुकाबले मीरा कुमार को उतारना एक सुलझा कदम कहा जा सकता है। लेकिन उसके बाद उपराष्ट्रपति चुनावों में विपक्ष ने फिर चूक की। वेंकैया नायडू जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ के समक्ष उन्होंने गोपाल कृष्ण गांधी जैसे अपेक्षाकृत कम राजनीतिज्ञ व्यक्ति को उतारकर अपना पक्ष कमजोर कर लिया था।
राजनीति विश्लेषकों का कहना है कि परिस्थितियों के आगे रणनीति कारगर नहीं होती। यही विपक्ष के साथ हो रहा है।
उपराष्ट्रपति चुनाव में तो एनडीए की जीत पहले से पक्की थी। क्योंकि लोकसभा में उसकी सीटें ज्यादा हैं तथा राज्यसभा में भी सबसे बड़ा दल है। जबकि राष्ट्रपति चुनाव में थोड़ी-बहुत जो कसर थी वह मुर्मू को उतारने से पूरी हो गई। ओडिशा की निवासी होने के नाते बीजद उन्हें समर्थन को तैयार हो गया। झामुमो ने आदिवासी होने की वजह से उनका समर्थन किया। शिवसेना में पड़ी फूट से भाजपा को फायदा हुआ।