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Country Uttarakhand

कांग्रेस की आस भी, सांस भी

134 बरस पुराने कांग्रेस संगठन को इस समय जरूरत एक तेज-तर्रार और युवा नेतृत्व की है। ऐसा नेतृत्व जो पार्टी की मशीनरी को ओवरहॉल कर सके। ऐसा नेतृत्व जो अतीत के गौरवशाली दिनों को समझता तो हो, पर उसके बंधन से मुक्त हो। लेकिन यक्ष प्रश्न है कि यह नेतृत्व मिलेगा कहां और उसकी स्वीकार्यता बनेगी तो कैसे? कांग्रेस का डीएनए ऐनालिसिस इसका उत्तर देता है। लोकतांत्रिक देश और समाज में भले ही इस प्रकार का डीएनए प्रश्नचिन्हों के घेरे में हो और रहे, वैज्ञानिक सत्य को नकार पाना न तो मनुष्य के वश में है, न ही कांग्रेस के। कांग्रेस का डीएनए यानी नेहरू-गांधी परिवार। बगैर नेहरू-गांधी परिवार के यह पार्टी आगे नहीं बढ़ सकती, इतना तय है। अब चूंकि इस परिवार के दो वारिसों में से एक रणछोड़दास बन मैदान से गायब हैं, प्रियंका गांधी अकेली ऐसी फैक्टर हैं जो कांग्रेस को पुनर्जीवित कर सकती हैं। लाख टके का सवाल यह कि वे कौन से कारण हैं, कौन सी ताकतें हैं, जो मृत शय्या पर पड़ी पार्टी और उसके नेतृत्व को ऐसा करने यानी प्रियंका के हाथों में पार्टी की कमान सौंपने से रोक रहे हैं

 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने नेताओं के अहंकार, श्रेष्ठताबोध, महत्वाकांक्षाओं, भ्रष्टाचार और वैचारिक स्तर पर भारी विचलन के चलते पूरी तरह दिशाहीन, अस्त-पस्त, लाचार और मृतप्राय स्थिति में पहुंच चुकी है। दूसरी तरफ भाजपा है, जो भले ही दो नेताओं का जेबी संगठन बन चुकी हो, इन दोनों नेताओं की सोची-विचारी रणनीति, अद्भुत संगठन क्षमता और समय पर निर्णय लेने की कार्यशैली के चलते कांग्रेस से मीलों आगे जा चुकी है। हालात कांग्रेस के इतने दयनीय हैं कि वह अपनी विरासत तक को भाजपा द्वारा हथियाने से रोक पाने में सर्वथा असहाय और असमर्थ हो चुकी है। क्या मान लिया जाए कि कांग्रेस अब कभी भी अपने को पुनर्जीवित नहीं कर पाएगी? और यदि ऐसा है तो इसके मुख्य कारण क्या हैं?

134 बरस पुराने इस राजनीतिक संगठन को दरअसल इस समय जरूरत एक तेज-तर्रार और युवा नेतृत्व की है। ऐसा नेतृत्व जो पार्टी की मशीनरी को ओवरहॉल कर सके। ऐसा नेतृत्व जो अतीत के गौरवशाली दिनों को समझता तो हो, लेकिन उसके बंधन से मुक्त हो। पार्टी को केवल ऐसे एक नेतृत्व की जरूरत है। लेकिन यक्ष प्रश्न है कि यह नेतृत्व मिलेगा कहां और उसकी स्वीकार्यता बनेगी तो कैसे? कांग्रेस का डीएनए ऐनालिसिस इसका उत्तर देता है।

लोकतांत्रिक देश और समाज में भले ही इस प्रकार का डीएनए प्रश्नचिन्हों के घेरे में हो और रहे, वैज्ञानिक सत्य को नकार पाना न तो मनुष्य के वश में है, न ही कांग्रेस के। कांग्रेस का डीएनए यानी नेहरू-गांधी परिवार। 134 साल की जीवन यात्रा। बगैर नेहरू-गांधी परिवार के यह पार्टी आगे नहीं बढ़ सकती, इतना तय है। अब चूंकि इस परिवार के दो वारिसों में से एक रणछोड़दास बन मैदान से गायब हैं, प्रियंका गांधी अकेली ऐसी फैक्टर हैं जो कांग्रेस को पुनर्जीवित कर सकती हैं।

लाख टके का सवाल यह कि वे कौन से कारण हैं, कौन सी ताकतें हैं, जो मृत शय्या पर पड़ी पार्टी को, उसके नेतृत्व को, ऐसा करने यानी प्रियंका के हाथों पार्टी की कमान सौंपने से रोक रहे हैं। दरअसल कांग्रेस को ऐसा करने से कांग्रेस ही रोक रही है। एक तरफ वह कांग्रेस है जिसने लंबे अर्से तक सत्ता का सुख भोगा, वैभव देखा और बनाया भी तो दूसरी तरफ वह कांग्रेस है जो पराभव के दौर से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही है। पहली कांग्रेस को ओल्ड तो दूसरी को युवा कांग्रेस कहा जा सकता है। राहुल गांधी का रणछोड़दास बनना दरअसल इन्हीं दो कांग्रेस के बीच चल रहे घमासान के चलते हुआ। सोनिया गांधी अब खराब स्वास्थ्य के बावजूद राहुल गांधी के फैलाए रायते को समेटने का बरक्स प्रयास करती नजर आ रही हैं, लेकिन कांग्रेस को वापस टै्रक में लाने के लिए ज्यादा हॉर्स पावर का इंजन जरूरी है। अशोक तंवर जैसे परिवार भक्त का बेहद नाजुक समय में पार्टी को छोड़ना स्पष्ट संकेत है कि सोनिया गांधी का प्रभाव और मैजिक इस बार काम करता नजर नहीं आ रहा है। पुरानी कांग्रेस या पुराने कांग्रेसियों से ब्रेक लेना इसलिए जरूरी है। राहुल गांधी के पार्टी उपाध्यक्ष बनने के बाद से ही ओल्ड वर्सेस यूथ का युद्ध शुरू हो गया था। सोनिया गांधी के कोर गु्रप में शामिल रहे दिग्गजों संग राहुल गांधी के सुर-ताल मिल न सके। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। 1998 में सोनिया गांधी के कमान संभालने के बाद, लगभग 14 बरस तक पार्टी में सबसे ज्यादा जिन नेताओं का प्रभाव रहा उनमें अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद, एके एंटनी, जनार्दन द्विवेदी, दिग्विजय सिंह, आदि शामिल थे। इनमें से ज्यादातर टीम राहुल से बाहर कर दिए गए। राहुल ने अपनी टीम में ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा जैसे युवा नेताओं को तरजीह दी। एक दूसरे के खिलाफ तो कभी एक दूसरे के साथ खड़े रहते आए पुराने चावलों ने युवाओं से मिल रहे संकट को पहचान अपने झगड़े को भुला एक होते देर नहीं लगाई। यह कहना गलत नहीं होगा कि पुराने कांग्रेसियों के कॉकस ने राहुल गांधी को सफल होने से रोका ही नहीं बल्कि उन्हें असफल लीडर तक साबित कर डाला। 2019 के चुनाव में मिली करारी हार से कहीं ज्यादा राहुल गांधी का पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ना इन दिग्गजों की मेहरबानी रही। इन्हीं दिग्गजों ने राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने के दौरान गहरी उदासीनता बनाए रखी। उनके द्वारा न तो राहुल गांधी के नेतृत्व के पक्ष में कोई बयान आए, न ही ऐसे दिग्गजों ने लोकसभा चुनाव में मिली हार की जिम्मेदारी लेने का प्रयास-स्वांग किया। नतीजा राहुल गांधी अपनी बात पर अड़ गए। पार्टी के युवा नेताओं को लेकर तब कुछ चर्चा नेतृत्व सौंपने की उठी, लेकिन ऐसे स्वरों को तत्काल हाशिए में डाल पुराने दिग्गजों ने सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनने के लिए तैयार कर दिया। सोनिया बहुत अनिच्छा से वापसी के लिए तैयार तो हो गईं, लेकिन राहुल को जानबूझ कर असफल करने के अपने विश्वस्तों से उनकी नाराजगी और खराब स्वास्थ्य के चलते वे 1998 वाली सोनिया नहीं नजर आ रही हैं। साथ ही पार्टी की वर्तमान स्थिति के चलते उनका प्रभामंडल भी कमजोर हो चला है। पंजाब के सीएम अमरेंद्र सिंह हो या फिर राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलानाथ और अशोक गहलोत या फिर छत्तीसगढ़ के भूपेंद्र बघेल, सभी के तेवर और सुर पहले समान आज्ञाकारी नहीं रहे हैं। घटते प्रभामंडल के चलते पार्टी के नेता तमाम चेतावनियों को नजरअंदाज कर पार्टी लाइन से बाहर जा बयानबाजी से नहीं बाज आ रहे। फिर चाहे युवा नेता सचिन, मिलिंद देवड़ा, ज्योतिरादित्य हों या फिर सलमान खुर्शीद, शशि थरूर सरीखे पुराने चावल, सभी के सुर बगावती हो चले हैं। पुरानी कहावत है जब जहाज डूब रहा होता है तो चूहे सबसे पहले भागते हैं। कांग्रेस से लगातार नेताओं का भाजपा में शामिल होना, जहाज डूबने का स्पष्ट संकेत है।

 

प्रियंका से उम्मीद

ऐसे हालात में जबकि पूरी पार्टी, पूरी मशीनरी लकवाग्रस्त हो, समझदारी यही होती है कि उस अंग को काट दिया जाए जिससे बीमारी फैल रही हो। कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट मुंह फाड़े खड़ा है। पार्टी का डीएनए या फिर पार्टी का चरित्र कुछ ऐसा है कि बगैर नेहरू-गांधी परिवार इसकी एकजुटता संभव नहीं। जमीनी नेताओं की पार्टी में भले ही आज भारी कमी हो चली हो, लेकिन कार्यकर्ता पूरे देश में फैला है। वह कार्यकर्ता भी इसी परिवार से आस लगाता है, आज भी उसकी आस यही परिवार है। ऐसे में भाजपा जैसे मजबूत सांगठनिक संगठन, आर्थिक दृष्टि से भी महामजबूत पार्टी का यदि मुकाबला करना है तो कमान अंततः किसी गांधी के हाथों में होनी कांग्रेस के लिए जरूरी या मजबूरी, चाहे जो माना जाए है। प्रियंका गांधी कांग्रसियों की अंतिम आस हैं। यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि राहुल भले ही सक्रिय राजनीति से पूरी तरह नहीं हटे, वे कांग्रेस की बागडोर दोबारा संभालने के कतई इच्छुक हैं नहीं। यह दौर पूरी तरह से परशेप्शन की राजनीति का दौर है। इसलिए भी प्रियंका कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर सकती हैं। इंदिरा गांधी वाले तेवर भले ही उनमें न हों, भले ही राजनीतिक चार्तुय और कौशल में भी वे इंदिरा का मुकाबला न कर सकें, छद्म यानी परशेप्शन का नैरेटिव गढ़ कांग्रेस अपने संकट से बाहर आने का रास्ता बजरिए प्रियंका तलाश तो सकती है ही।

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