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Country Editorial

इन जलावतनियों की आवाज सुनो!

डाॅ. अग्निशेखर एक प्रखर कवि, विस्थापित कश्मीरी पंडितों के संगल ‘पनून कश्मीर’ के नेता एवं मेरे मित्र हैं। 21 जून को उन्होंने अपनी एक कविता ‘हम शरणार्थी’ फेसबुक में चस्पा की। यह कविता दशकों से अपने ही देश में बतौर शरणार्थी जीवन जीने को विवश कर दिए गए इन कश्मीरियों का दर्द तो सामने लाती ही है, साथ ही सत्ता की चालाकियों का भी पर्दाफाश कर देती है। कश्मीर समस्या पर कुछ कहने-समझने से पहले चलिए इस कविता को पढ़ा जाए-

हम शरणार्थी
-अग्निशेखर
अपने ही देश में
हम शरणार्थी
उपेक्षित जैसे उगी
अनचाही घास
संसद के कंक्रीट आँगन में
लोकतंत्र का अट्टहास
हम ज़िन्दा पुरातत्व
और इतिहास
मरते भी नहीं अभागे
कैंपों में सड़ते कृमि
कुलबुलाते बार बार
अपने अकेले कवियों के गद्य में
जुलूसों में जैसे फैलते
बेतरतीब रंगों में
केन्द्र सरकारें हैं
खुरदुरा कैनवस इनका
हम
गाते हैं बेसुरी राग
मुकाम और बंदिश का कोई
तरतीब नहीं हमें
लगता ही नहीं संगीत शिरोमणि
शारंगदेव के वंशज हैं
मूलाधार से बेढंगी
खींचते सड़कों पर तान
ध्यान नहीं देता फिर भी
हिंदुस्तान
हम कश्मीरी शरणार्थी
संघियों के लिए नेहरूपंथी
सेक्युलरवादी
वामियों को लगते
हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी
जेहादियों को काफिर
‘जासूस भारत के’
शेख अब्दुल्लाहों की दृष्टि में
हम कुफ्र के दूत
लिखा शरणार्थी-कैम्प में
कवि मोती लाल ‘साक़ी’ ने
हम इस देश के नये अछूत
हम शरणार्थी
सौतेले युग में दशकों से बैठे
तख्तियां लिए जंतर-मंतर पर
संसद की खिड़की से देखता
हर प्रधानमंत्री
थोड़े थोड़े अंतर पर
ये ढीठ अभी भी नहीं हुए
छूमंतर

जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन हुए डेढ़ बरस से अधिक समय बीत चुका है। 5 अगस्त 2019 को पहले केंद्र सरकार ने इस प्रदेश को धारा 370 और धारा 35 (अ) के तहत दिया गया विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किया फिर 31 अक्टूबर के दिन इसका पुनर्गठन करते हुए जम्मू- कश्मीर को एक केंद्र शासित प्रदेश एवं लद्दाख को एक अलग केंद्र शासित इकाई बना डाला था। जैसा अपेक्षित था केंद्र सरकार के इस कदम को कुछ ने बहुत सराहा तो कश्मीर इलाके में इसका खासा विरोध हुआ। लंबे अर्से तक यहां के प्रमुख राजनेताओं व सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तारी में रखा गया, इंटरनेट की सेवाएं समाप्त कर दी गईं और पूरे प्रदेश, विशेषकर आतंकियों का गढ़ रहे कश्मीर घाटी का देश-विदेश से संपर्क पूरी तरह काट दिया गया। इस बीच कोविड-19 महामारी ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया। कश्मीर इस संक्रमण के चलते हमारे फोक्स से बाहर हो गया। अब एक बार फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर जम्मू-कश्मीर सुर्खियों में है। प्रधानमंत्री ने यहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दोबारा शुरू करने के प्रयास शुरू किए हैं। सभी दलों के प्रतिनिधियों संग स्वयं प्रधानमंत्री ने इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए बातचीत शुरू करने जा रहे हैं। हालांकि घाटी के मुख्य राजनीतिक दलों और केंद्र सरकार के मध्य अविश्वास की खाई इस कदर गहरा चुकी है कि इसे आसानी से पाट पाना लगभग असंभव है। राहत की बात यह कि लोकतंत्र की पहली अनिवार्य शर्त ‘संवाद’ पर बात को कम से कम आगे बढ़ी है। वार्ताओं की दिशा तय करेगी कि कब और कैसे जम्मु-कश्मीर को पूर्ण प्रदेश वापस बनाया जाता है। केंद्र सरकार ने राज्य का पुनर्गठन करते समय यह वायदा किया था। अब समय की कसौटी पर इस वायदे को परखा जाएगा। संवाद होगा तो उसका कुछ न कुछ सकारात्मक परिणाम अवश्य निकलेगा। इतना तो तय है कि अब धारा 370 और धारा 35 (अ) की वापसी नहीं होने वाली। यानी देश का संविधान पूरी तरह से जम्मू-कश्मीर में प्रभावी रहेगा। बहुत संभव है कि आने वाले समय में केंद्र सरकार के इस निर्णय को वादा खिलाफी कह इतिहास में दर्ज किया जाए। यह भी तय मानिए कि अंतरराष्ट्रीय पटल पर पाकिस्तान समेत हर भारत विरोधी ताकत इस मुद्दे को जीवित रखने का हर संभव प्रयास करेगी। स्मरण रहे भारत के साथ जम्मू- कश्मीर का विलय एक कानूनी दस्तावेज है जिसे एकतरफा पलटने का अधिकार भारत सरकार या भारतीय संसद के पास नहीं था।

विषम एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते 26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा, महाराजा हरि सिंह ने भारत संग अपनी रियासत के विलय की सशर्त सहमति दी थी जिसे भारत सरकार की तरफ से प्रथम गवर्नर जनरल लाॅर्ड माउंटबेंटन ने सभी शर्तों समेत स्वीकारा था। इसलिए नैतिक एवं कानूनी दृष्टि से भारत सरकार अथवा भारत की संसद के पास विलय की शर्तों संग छेड़छाड़ का अधिकार नहीं था। बहरहाल, केंद्र सरकार ने ऐसा कर दिया है और अब इस स्थिति से वापसी संभव नहीं प्रतीत होती है। जाहिर है कश्मीर घाटी में विशेषकर केंद्र सरकार द्वारा एकतरफा लिए गए निर्णय के चलते खासा आक्रोश है। यह आक्रोश घाटी को पूरी तरह से भारत विरोधी बनाने में सफल रहा है। घाटी की भारत परस्त ताकतें भी अब न चाहते हुए भारत विरोधी ताकतों के संग खड़ी होने के लिए विवश हो चली है। केंद्र सरकार के इस कदम से क्या कश्मीर में शांति बहाल हो जाएगी? क्या वापस वह धरती का स्वर्ग कहलाए जाने लगेगा? क्या वहां का आम जनमानस देश की मुख्यधारा से जुड़ खुद को भारतीय कहलाने में गर्व की अनुभूति महसूसेगा? कई ऐसे प्रश्न हैं जिनको यदि राष्ट्रवाद की अंधभक्ति से परे हर तार्किक तरीकों से परखा जाए तो उत्तर ‘नहीं’ में मिलता है। कटु सत्य है लेकिन है तो सच ही, जम्मू-कश्मीर के विलय बाद से ही विलय समझौते की शर्तों से भारत पीछे हटने लगा था। इसकी शुरूआत नेहरू काल में ही हो गई थी। कालांतर में हर सरकार ने कश्मीर को एक समस्या मानते हुए उसका हल बंदूक के जरिए तलाशने का काम किया।

 

विषम एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते 26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा, महाराजा हरि सिंह ने भारत संग अपनी रियासत के विलय की सशर्त सहमति दी थी जिसे भारत सरकार की तरफ से प्रथम गवर्नर जनरल लाॅर्ड माउंटबेंटन ने सभी शर्तों समेत स्वीकारा था। इसलिए नैतिक एवं कानूनी दृष्टि से भारत सरकार अथवा भारत की संसद के पास विलय की शर्तों संग छेड़छाड़ का अधिकार नहीं था। बहरहाल, केंद्र सरकार ने ऐसा कर दिया है और अब इस स्थिति से वापसी संभव नहीं प्रतीत होती है। जाहिर है कश्मीर घाटी में विशेषकर केंद्र सरकार द्वारा एकतरफा लिए गए निर्णय के चलते खासा आक्रोश है। यह आक्रोश घाटी को पूरी तरह से भारत विरोधी बनाने में सफल रहा है। घाटी की भारत परस्त ताकतें भी अब न चाहते हुए भारत विरोधी ताकतों के संग खड़ी होने के लिए विवश हो चली है। केंद्र सरकार के इस कदम से क्या कश्मीर में शांति बहाल हो जाएगी? क्या वापस वह धरती का स्वर्ग कहलाए जाने लगेगा? क्या वहां का आम जनमानस देश की मुख्यधारा से जुड़ खुद को भारतीय कहलाने में गर्व की अनुभूति महसूसेगा? कई ऐसे प्रश्न हैं जिनको यदि राष्ट्रवाद की अंधभक्ति से परे हर तार्किक तरीकों से परखा जाए तो उत्तर ‘नहीं’ में मिलता है। कटु सत्य है लेकिन है तो सच ही, जम्मू-कश्मीर के विलय बाद से ही विलय समझौते की शर्तों से भारत पीछे हटने लगा था। इसकी शुरूआत नेहरू काल में ही हो गई थी। कालांतर में हर सरकार ने कश्मीर को एक समस्या मानते हुए उसका हल बंदूक के जरिए तलाशने का काम किया। 2019 में जब वर्तमान केंद्र सरकार ने विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर 1947 के विलय पत्र को रद्दी की टोकरी में फैंकने का काम किया तब कांग्रेस ने इसका भारी विरोध करा। कांग्रेस को लेकिन अपने लंबे शासनकाल के दौरान जम्मु-कश्मीर पर लिए गए फैसले याद नहीं रहे। यदि रहते होते तो शायद उसे अपनी गलतियों का एहसास होता जिनके चलते कश्मीर इतने दशकों बाद भी हमारा नहीं हो पाया है।

जम्मू-कश्मीर दरअसल त्रासदियों का नर्क है। जब कभी भी इसकी चर्चा होती है तो दो पक्ष बन जाते हैं। एक जो मानवाधिकारों का चश्मा पहने घाटी के मुसलमानों का पक्षधर बन खड़ा हो जाता है तो दूसरा वह जो राष्ट्रवाद में डूबा घाटी के हर बाशिंदे को आतंकी साबित करता, भारतीय सुरक्षा बलों की शहादत का पाठ करने लगता है। इन दोनों पक्षों के मध्य एक पक्षकार और है जिसके मन की बात कोई करने को तैयार नहीं। चर्चा जरूर होती है लेकिन अपने नजरिए को ताकत देने की नीयत है। यह तीसरा पक्ष है कश्मीरी पंडितों का जो अपने घर, अपनी सरजमीं से बेदखल कर दिए गए हैं। इनको मोहरा बना राजनीति की बिसात पर दांव पर तो हरेक पक्ष लगाता आया है, ये क्या चाहते हैं, इनको कैसे न्याय मिले? इस पर कभी भी कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ है। कश्मीर घाटी में एक समय इनका ही राज था। मुगलकाल में यहां पर बड़ी तादात में मुसलमान आकर न केवल बसे बल्कि सत्ता भी उनके हाथों में चली गई। यह लंबा इतिहास है।

आजादी के वक्त यहां पर अच्छी खासी तादात में कश्मीरी पंडित परिवार थे। जैसे-जैसे यहां आतंकवाद का विस्तार होता गया या तो इन पंडितों ने घाटी स्वयं ही छोड़ दी या फिर उन्हें वहां से जबरन भगा दिया गया। 1990 के दशक तक यहां पर अच्छी-खासी जनसंख्या इन पंडितों की थी। अलग-अलग आंकड़े इस बाबत हैं। कुछ एक लाख तो कई लगभग आठ लाख पंडितों के घाटी में होने की बात करते हैं। आज यहां मात्र कुछ हजार पंडित बचे हैं। 2010 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने इनकी जनसंख्या मात्र 3,445 बताई थी। बाकि सभी ‘जलावतनी’ के शिकार हो गए। बहुतों ने जम्मू में शरण ली है तो कई हजार देश के अन्य महानगरों में बतौर शरणार्थी रहने को विवश कर दिए गए। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार 1990 से 2011 तक 399 पंडित आतंकी हिंसा के शिकार हुए। मारे गए लोगों में प्रसिद्ध कवि सर्वांनंद कौल प्रेमी (1990), सामाजिक कार्यकर्ता सतीश टिक्कु (1990), दूरदर्शन श्रीनगर के निदेशक लासा कौल (1990), टेªड यूनियन नेता हृदयनाथ वांचू (1992) शामिल हैं। कई कश्मीरी पंडित महिलाओं संग बलात्कार हुआ और उनकी हत्या कर दी गई। 4 जून 1990 को एक शिक्षिका गिरजा टिक्कु संग आतंकियों ने न केवल सामूहिक बलात्कार किया बल्कि उसके शरीर को आरा मिल में काट डाला। इस घटना से पूरा देश तब स्तब्ध रह गया था।

 

आजादी के वक्त यहां पर अच्छी खासी तादात में कश्मीरी पंडित परिवार थे। जैसे-जैसे यहां आतंकवाद का विस्तार होता गया या तो इन पंडितों ने घाटी स्वयं ही छोड़ दी या फिर उन्हें वहां से जबरन भगा दिया गया। 1990 के दशक तक यहां पर अच्छी-खासी जनसंख्या इन पंडितों की थी। अलग-अलग आंकड़े इस बाबत हैं। कुछ एक लाख तो कई लगभग आठ लाख पंडितों के घाटी में होने की बात करते हैं। आज यहां मात्र कुछ हजार पंडित बचे हैं। 2010 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने इनकी जनसंख्या मात्र 3,445 बताई थी। बाकि सभी ‘जलावतनी’ के शिकार हो गए। बहुतों ने जम्मू में शरण ली है तो कई हजार देश के अन्य महानगरों में बतौर शरणार्थी रहने को विवश कर दिए गए। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार 1990 से 2011 तक 399 पंडित आतंकी हिंसा के शिकार हुए। मारे गए लोगों में प्रसिद्ध कवि सर्वांनंद कौल प्रेमी (1990), सामाजिक कार्यकर्ता सतीश टिक्कु (1990), दूरदर्शन श्रीनगर के निदेशक लासा कौल (1990), टेªड यूनियन नेता हृदयनाथ वांचू (1992) शामिल हैं। कई कश्मीरी पंडित महिलाओं संग बलात्कार हुआ और उनकी हत्या कर दी गई। 4 जून 1990 को एक शिक्षिका गिरजा टिक्कु संग आतंकियों ने न केवल सामूहिक बलात्कार किया बल्कि उसके शरीर को आरा मिल में काट डाला। इस घटना से पूरा देश तब स्तब्ध रह गया था।

आज जब प्रधानमंत्री मोदी जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली के उद्देश्य से सर्वदलीय वार्ता शुरू कर रहे हैं। कश्मीरी पंडितों का दर्द एक बार फिर उभर कर सामने आ रहा है। लंबे अर्से से इन पंड़ितों ने भाजपा पर भरोसा यही सोच कर किया कि जब कभी भी जम्मू-कश्मीर पर वार्ता होगी, इस समस्या का हल निकालने की दिशा में कोई प्रयास होगा, उनकी बात भी सुनी जाएगी। उनकी भाजपा संग यह उम्मीद जायज भी है। इन पंडितों की जलावतनी को भाजपा अनंकों बार मुद्दा बना कांग्रेस को घेरने का काम करती आई है। अब जबकि केंद्र से लेकर घाटी तक उसका एकछत्र राज है, इन पंडितों की वतन वापसी का मार्ग तलाशा जाना चाहिए। हालांकि जैसा मैंने पहले कहा इस समस्या का सर्वमान्य हल निकल पाना बेहद दुष्कर, बेहद कठिन है। उम्मीद लेकिन बनाए रखनी जरूरी है ताकि नर्क बन चुके कश्मीर को वापस स्वर्ग बनाया जा सके।

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