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आधी आबादी को नहीं अपने ही शरीर पर हक़

‘मर्द का मन क्या औरत के मन से अलग होता है? उसकी इच्छाएं औरत की इच्छाओं से अलग होती हैं? तन की प्यास जो तुम्हारे शरीर को जलाती है क्या वो मेरे शरीर को कम जलाती है? और अगर मेरे दिल में ये प्यास जगे तो मैं क्या करूं? क्या करूं मैं? झोली फैलाकर तुम्हारे सामने भीख मांगू? या तुम कब मुझ पर मेहरबान होगे, इस बात का इंतजार करूं? ख़ैर इन सब सवालों का जवाब मुझे नहीं चाहिए।’

फिल्म ‘अस्तित्व’ में अदिति नाम के किरदार की भूमिका निभा रही अभिनेत्री तब्बू फिल्म में स्त्री मन की उलझी पहेलियों को डायलाॅग के माध्यम से कई बार उकेरती और बोलती नजर आती हैं। यह फिल्म वर्ष 2000 में रिलीज हुई थी, इसके निर्देशक हैं महेश मांजरेकर। इस फिल्म को लिखा है जाने-माने स्क्रिप्ट राइटर इम्तियाज हुसैन ने।

स्त्री के मर्ज़ी के बग़ैर वीर्य ज़बरन उनकी योनि में डाला जा रहा है

 

लेकिन इस बात में जो सवाल हैं उसके जवाब वर्ष 2021 में भी अधूरे हैं। मन और तन की आरजू को अपने भीतर दबाकर पूरी जिंदगी बिता देने वाली स्त्रियों पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से एक हैरान करने वाली रिपोर्ट भी आई है। यूएन की इस रिपोर्ट के अनुसार विश्वभर के कई देशों में एक बड़ी संख्या में महिलाओं का अपने खुद के शरीर पर ही कोई हक़ नहीं है।

 

खासकर विश्व के कुछ गरीब देशों के आंकड़ें तो परेशान करने वाले हैं, क्योंकि वे आकंड़े साफ़ कह रहे हैं कि वहां सिर्फ़  55 प्रतिशत महिलाएं ही सेक्स के दौरान निर्णय ले पाने की जद्दोजहद में थोड़ा बहुत सफल हो पा रही हैं, लेकिन बाकी 45 प्रतिशत महिलाओं का क्या? उन्हें सेक्स के दौरान हां या ना बोलने ही नहीं दिया जाता है।

 

आधी आबादी में जो आधी आबादी है

 

बच्चे पैदा करने की मशीन समझ जब मर्जी अपना वीर्य, औरत के अंदर डाला जा रहा है। ये शब्द एक विशेष सामाजिक ढांचे को चोट पहुंचा सकते हैं, लेकिन सच यही है कि चारदीवारी के बीच अधिकतर औरतें अपने शरीर पर गहरे घाव लिए बेज़ुबान रह रही हैं। बिस्तर पर ना कहना, खासकर अपने पति को, तो मानो ज़िन्दगी का सबसे बड़ा पाप है।

सेक्स के दौरान प्रिकाॅशन लेना है या नहीं ये भी तय करने में उनकी भूमिका ना के बराबर ही रह गई है। ऐसा यूएन की यह ताजा रिपोर्ट कह रही है। इस रिपोर्ट के अनुसार 57 विकासशील देशों की महिलाओं ने माना है कि वे अपने पार्टनर को सेक्स के लिए वे  ना नहीं कह पाती हैं। कभी-कभार जब उनकी इच्छा नहीं होती फिर भी उन्हें संबंध बनाने पड़ते हैं, क्योंकि उनके पार्टनर की इच्छा है सिर्फ इसलिए। यह रिपोर्ट यूएन पाॅपुलेशन फंड द्वारा विश्व के एक चैथाई देशों में किए गए एक सर्वे पर आधारित है। साथ ही अफ्रीका के आधे हिस्से में यह सर्वे पूरा करने के बाद यह रिपोर्ट सार्वजनिक की गई है। यह कैसी विडंबना है कि आधी आबादी में जो आधी आबादी है उन्हें अपने शरीर पर ही निर्णय लेने का अधिकार नहीं है।

हम पुरुषों को इस विषय पर बोलने का कोई अधिकार ही नहीं

 

यूएन पाॅपुलेशन फंड के अनुसार, ‘सिर्फ 55 प्रतिशत लड़कियां और महिलाएं ही यह फैसला करने में सफल हो पाती हैं कि उन्हें उस समय सेक्स करना है या नहीं।’ यह आंकड़े 57 देशों में निश्चित महिलाओं पर हुए सर्वे पर आधारित हैं।  सिने-पत्रकार अजित राय इस विषय पर बेहद ही सरल तरीके से जवाब देते हैं कि ‘पहले तो हम पुरुषों को इस विषय पर बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है। हमें इस मामले में सिर्फ़ स्त्रियों को ही सुनना चाहिए। इस मामले में भले ही यूएन की यह रिपोर्ट चौंकाती है, लेकिन भारतीय कानून इस मामले में काफी उदार नजर आता है। 2017 में गुजरात हाइकोर्ट ने एक मामले में स्पष्ट भी किया था कि पति अगर अपनी पत्नी के साथ जबरन सेक्स करता है तो इसे रेप माना जाए।’

 

एक स्त्री का सबसे बड़ा गुनाह है उसकी देह

लेखिका रश्मि भारद्वाज कहती हैं कि ‘यूनाइटेड नेशन्स की यह रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि विकासशील देशों में स्त्रियां अभी भी दोयम दर्जे की नागरिक हैं। अपने ही शरीर पर अधिकार नहीं होना, स्त्रीवाद तो क्या मनुष्यता के सिद्धांत के भी खिलाफ है। भारत की ही बात करूं तो आज भी गांव-कस्बों में लाखों स्त्रियां बिना मर्जी के छोटी उम्र में ब्याह दी जाती हैं। हर रात बलात्कार से गुजरते हुए कम उम्र में ही मां बना दी जातीं हैं एवं कई तरह की प्रसूति संबंधी बीमारियों से पीड़ित होकर अपनी जान तक गंवा देती है।’

जहां स्त्रियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी में समान अवसर, संतुलित भोजन आदि तक की आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में उनके शारीरिक, मानसिक सुख की तो बात करना भी गुनाह ही माना जाएगा। यही वजह है कि अपने ही शरीर से संबंधित कोई भी निर्णय लेने का उन्हें अधिकार नहीं होता। उनका मैरिटल रेप, उनसे अप्राकृतिक संबंध तो हमारी सामाजिक, वैधानिक व्यवस्था को मान्य है। लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं जो स्त्रियों को उनके शरीर, उनकी कोख, उनकी योनि पर निर्णय लेने का अधिकार दे।

पति या प्रेमी को कंडोम के बिना अपने ‘प्लेजर’ का पूरा इंतजाम करने का अघोषित अधिकार है, लेकिन लाखों स्त्रियां हर रात अनिच्छा से गुजरने के बाद भी अपने ऊपर किए जा रहे रेप के लिए भी ना नहीं कह पाती हैं। ऐसे में उनके प्लेजर की तो क्या बात की जाए! कोई हैरानी नहीं है कि असंतुष्टि भरा लंबा जीवन उन्हें कई तरह की मानसिक, शारीरिक बीमारियों से ग्रसित कर देता है।

 

हम अक्सर यह सुनते हैं कि स्त्रीवाद या फेमिनिज्म एक फैशन है या एक अराजक मुहिम जो परंपरा और घर के लिए हानिकारक है।

 

हमें उस क्रूर व्यवस्था को हर हाल में बनाए रखना है जहां एक औरत निरीह, असहाय की तरह बच्चा जनने वाली, सेज सुख देनी वाली, खाना पकाने वाली, परिवार संभालने वाली मशीन बनी रहती है। हम घर, परिवार, समाज के नाम पर स्त्रियों पर हो रहे सुनियोजित शोषण पर बात करने से घबराते हैं, उसमें सुधार की बात तक से कतराते हैं और क्यों न घबराएं! हमारी संस्कृति, हमारी परंपराएं तो इतनी कच्ची हैं कि औरतों के रिप्ड जीन्स और शाॅर्ट में दिखते जांघों से ही भरभरा कर टूटने लगती हैं। सोचने वाली बात है कि यह अविकसित समाज जो स्त्रियों को मनचाहे कपड़े पहनने तक की आजादी नहीं देना चाहता, वह उन्हें अपने शरीर से जुड़े निर्णय कैसे लेने दे सकता है! पितृ सत्ता का सारा कारोबार ही स्त्रियों की देह पर अंकुश लगाकर चलता आया है।

समाज के नाम पर स्त्रियों पर हो रहे सुनियोजित शोषण

 

धर्म, परम्परा, समाज ने उस पर वैधानिक मुहर लगाई है जिसे हम विवाह या घर के नाम से बुलाते हैं। जब औरतें अपनी देह से जुड़े निर्णय लेंगी तो बहुत दीवारें गिरने लगेंगी, बेड़ियां टूटने लगेंगी। इसके लिए भी समाज और संस्कृति के ठेकेदारों के पास धारदार हथियार मौजूद है- चरित्र पर लांछन लगाने का हथियार।

अपनी देह से जुड़ा कोई भी निर्णय लेने वाली स्त्री निश्चित ही कुलटा, कलंकिनी है। अच्छी औरतें तो सबसे पहले अच्छी पत्नी, मां, बहन, बेटी होती हैं जो अपने स्व की बलि देकर परिवार को सींचती हैं! धर्म, समाज, संस्कृति, पितृ सत्ता स्त्रियों को ‘सुशील नारी’ बनाए रखने के लिए उनकी निर्मिति ही इस तरह करती है कि उनका शरीर उनका भय बना रहे। उन्हें यह अच्छी तरह समझा दिया जाता है कि उनकी देह ही उनका सबसे बड़ा गुनाह है और जिसका सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि वे इसका नियंत्रण धर्म, समाज, परिवार को सौंपे रहें।

आज स्त्रियां बदल रही हैं। शिक्षा और सुदृढ़ आर्थिक स्थिति ने उन्हें अपने अस्तित्व के लिए भी पहले से अधिक जागरूक किया है। वे अपनी देह से जुड़े निर्णय भी ले रहीं हैं। क्या इस बदलती हुई स्त्री के संयोजन के लिए धर्म, समाज, परिवार तैयार हो रहा है, सबसे बड़ा प्रश्न यही है।’

स्त्री पर हो सिर्फ उसका अधिकार

बाॅलीवुड सिंगर और सोशल एक्टिविस्ट मुनि रमन इस विषय पर अपनी बेबाक राय रखते हुए कहते हैं कि ‘इस आधुनिक युग में हम भले ही यह कवायद करते रहें कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं।

लेकिन हमें पूरी गंभीरता से यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम पुरुष सत्ता के उस रूप में भी रह रहे हैं जो स्त्रियों को चाहे वह उनकी प्रेमिका हो, चाहे पत्नी ही क्यों न हो, वह उस पर अपनी हर तरह की यौनिक इच्छाओं को बिना उसकी सहमति के लगातार थोप रहा है।

मेरा स्पष्ट मानना है कि स्त्रियों के साथ शारीरिक या मानसिक संबंध बनाने में यदि उनकी सहज अनुमति ली जाए तो चीजें बदसूरत होने के बजाए काफी खूबसूरत हो सकती हैं और यह सिर्फ और सिर्फ पुरुषों को सोचना होगा।’

 

अब यूएन की इस रिपोर्ट के बाद यह सवाल इसीलिए भी खड़ा हो रहा है, क्योंकि स्त्री-पुरुष के बराबरी की बात ऐसी स्थितियों में दो धाराओं पर मुड़ी नजर आती है। जिसमें स्त्री के लिए कोई ऐसी जगह नहीं बचती जहां उनका रेप न हो रहा हो।

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