‘गुजरात मॉडल’ की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पूरे देश में नजीर पेश कर चुके हैं। इसी मुद्दे पर राजनीति की यह सुपरहिट जोड़ी गुजरात से देश की गद्दी तक पहुंची है। पिछले ढाई दशक से गुजरात पर मोदी और शाह का ही अप्रत्यक्ष राज चलता रहा है। बावजूद इसके विधानसभा चुनाव में पार्टी की सीटें कम होती जा रही हैं। भाजपा का मुकाबला अब तक कांग्रेस से ही होता आया है लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी के मैदान में आने से लड़ाई त्रिकोणीय होती दिख रही है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि इस लड़ाई में ‘आप’ उस ऊंट की तरह है जिसकी एक करवट से चुनावी समीकरण बदल सकते हैं
गुजरात विधानसभा चुनावों का एलान हो चुका है। पहले चरण में 89 सीटों पर 1 दिसंबर, तो दूसरे चरण में 93 सीटों पर 5 दिसंबर को मतदान होगा, जबकि गुजरात चुनाव के नतीजे हिमाचल प्रदेश के साथ 8 दिसंबर को आएंगे। ऐसे में देखना है कि भाजपा अपना सियासी वर्चस्व बनाए रखने में कामयाब हो पाती है या कांग्रेस की वापसी होगी या फिर आम आदमी पार्टी के सिर ताज सजता है। गुजरात विकास के मॉडल के सहारे केंद्र की सत्ता तक पहुंचने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह इस बार भी विधानसभा चुनाव में अपना दबदबा कायम रखना चाहते हैं, जबकि पिछले 27 वर्षों से सत्ता का वनवास झेल रही कांग्रेस चुनाव में वापसी के लिए बेताब है। राज्य में भाजपा 1995 में पहली बार सत्ता में आई और 1998 से लगातार सरकार में बनी हुई है। भाजपा एक बार फिर से गुजरात में अपनी सत्ता को बचाए रखने की कवायद में है तो आम आदमी पार्टी सियासी विकल्प बनने के लिए मैदान में उतरी है। साल 1995 में भाजपा को 121, 1998 में 117, 2002 में 127, 2007 में 116, 2012 में 115 और 2017 में 99 सीटें मिली थीं,लेकिन आज तक उसे सूबे की सत्ता से कोई बेदखल नहीं कर सका है। पिछले दो दशकों में भाजपा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जैसे दो बड़े नेता भी मिले हैं जो हर चुनाव में भाजपा की जीत का कारण बनते हैं। नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं। अब देश की राजनीति उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है।
भाजपा के लिए इस चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती लगातार घटती सीटों को थामना है। राज्य में 182 विधानसभा सीटें हैं और बहुमत के लिए 92 सीटों की जरूरत है। भाजपा ने पिछली बार 99 सीटों लेकर सरकार तो बना ली थी, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया था जब लगा कि पार्टी बहुमत के आंकड़े को छू नहीं पाएगी। 2017 में भाजपा के सामने कई मोर्चों पर चुनौती थी। नोटबंदी की वजह से व्यापारी वर्ग को काफी नुकसान हुआ था। जीएसटी के कठिन प्रावधानों से भी नाराजगी थी। दूसरी ओर पूरे राज्य में पाटीदार आरक्षण आंदोलन का जोर था और उसका चेहरा रहे हार्दिक पटेल कांग्रेस के साथ खड़े थे लेकिन सबसे बड़ी चुनौती भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए कोई दमदार चेहरा न होना था। दूसरी तरफ राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने बेरोजगारी, पाटीदार आंदोलन को तो मुद्दा बनाया था। इसके साथ ही राहुल गांधी ने पहली बार सॉफ्ट हिंदुत्व भी दिखाया था,जिसने भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर दी थी। लेकिन चुनाव का बदलता रुख देखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर मोर्चा संभाल चुनाव को गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया था। कांग्रेस अगर जीत जाती तो उसे सियासी फायदा साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी हो सकता था।
इस बात को भाजपा और कांग्रेस दोनों ही समझ रहे थे। लेकिन कांग्रेस की हार में उसकी रणनीति और मणिशंकर अय्यर बयान का भी बड़ा हाथ रहा है। मणिशंकर अय्यर ने चुनाव के दौरान ही एक बयान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ‘नीच शब्द’ का इस्तेमाल किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित पूरी भाजपा ने इसको मुद्दा बना लिया था। अहमदाबाद में हुई रैली में पीएम मोदी ने कहा, ‘मणिशंकर अय्यर ने कहा है कि मैं नीच जाति से आता हूं, मैं नीच हूं, यह गुजरात का अपमान है। क्या मैंने कोई नीच काम किया है।’ कांग्रेस की कमान संभाल रहे राहुल गांधी ने डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश करते हुए मणिशंकर अय्यर को कांग्रेस से निलंबित कर दिया लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था। इस बार के चुनाव में भी प्रदेश भाजपा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती मुख्यमंत्री पद के लिए कद्दावर चेहरा न होने की है। भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार भूपेंद्र सिंह पटेल कोई बड़ा चेहरा नहीं हैं। इसलिए 27 सालों से चल रही भाजपा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को थामना उनके चेहरे के दम पर संभव प्रतीति नहीं हो रहा।
पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के मध्य कांटे का मुकाबला देखने को मिला था। उस समय कांग्रेस पार्टी के पास हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा नेताओं की तिकड़ी थी। युवा तिकड़ी के अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल अब भाजपा के साथ हैं। केवल जिग्नेश ही कांग्रेस के संग खड़े हैं। गुजरात में अब तक के सभी चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुकाबला रहा है, लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी भी पूरी ताकत झोंक रही है। केजरीवाल ने मुफ्त बिजली, पानी और शिक्षा जैसे चुनावी वाय दे किए हैं। इसके अलावा पंजाब की तरह स्थानीय मुख्यमंत्री का भी दांव खेलते हुए ईसूदान गढ़वी नाम का एलान कर दिया गया है। भाजपा तो चुनाव के एलान से पहले ही समान नागरिक संहिता पर कमेटी बनाने का दांव खेल चुकी है। इसके अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आए हिंदू-सिख-ईसाई समुदाय के लोगों को दो जिले में नागरिकता देने का भी नोटिफिकेशन जारी कर दिया जा चुका है। पार्टी ने इस बार लक्ष्य 150 से ज्यादा सीटें जीतने का प्लान बना रखा है, जिसके लिए वह एक के बाद एक दांव चल रही है, अब र्पा ने बड़ा निर्णय लेते हुए मौजूदा 38 विधायकों के टिकट काट दिए हैं। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी भी शामिल हैं।
गुजरात चुनाव में इस बार हिंदुत्व का तड़का नहीं दिखाई दे रहा है।
हालांकि आम आदमी पार्टी भारतीय करेंसी पर गणेश- लक्ष्मी की तस्वीर छापने की मांग कर रही है, लेकिन भाजपा इसको खास तवज्जो नहीं दे रही है। इसके पीछे रणनीति भी हो सकती है। भाजपा नहीं चाहती है कि आम आदमी पार्टी को इस मुद्दे पर जवाब देकर इस स्पेस में उसको जगह दिया जाए। जहां भाजपा और आप का चुनावी प्रचार शोर में बदल चुका है तो दूसरी तरफ कांग्रेस खामोशी के साथ चुनाव प्रचार कर रही है। कांग्रेस ने इन दिनों पांच यात्राएं निकाली हैं। कांग्रेस की ये यात्राएं कच्छ के भुज, सौराष्ट्र के सोमनाथ, उत्तरी गुजरात के वडगाम, मध्य गुजरात के बालासोर और दक्षिण गुजरात के जंबूसर से शुरू हुई हैं। इन यात्राओं के जरिए पार्टी 5,432 किलोमीटर की दूरी तय कर 175 विधानसभा सीटों को कवर करेगी। कांग्रेस यात्रा के दौरान राज्य में 145 जनसभाएं और 95 रैलियां करेंगी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल, मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह और कमलनाथ सहित कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता इन यात्राओं में शामिल होंगे। कांग्रेस की ओर से राज्य प्रभारी रघु शर्मा, गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष जगदीश ठाकोर, विपक्ष के नेता सुखराम राठवा, वरिष्ठ नेता अर्जुन मोढवाडिया, जिग्नेश मेवाणी राज्य में कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं। ऐसे में देखना है कि गुजरात की चुनावी लड़ाई में कौन बाजी मारता है।
कितना प्रभावी होगा ‘गुजरात मॉडल’
गुजरात मॉडल के सहारे केंद्र की सत्ता तक पहुंचने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब मुख्यमंत्री थे तब कच्छ इलाके में आए भूकंप के बाद ऐसे काम किए जिससे कुछ समय के भीतर यह क्षेत्र प्रगति के पथ पर आगे बढ़ गया था। उस दौरान बिजली का सबसे ज्यादा उत्पादन गुजरात ही कर रहा था। 18 हजार गांवों को ग्रिड से जोड़ा गया। गुजरात के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां की नीतियां व्यवसायिक प्रगति में बाधा नहीं बनती हैं। शायद यही वजह है कि 2008 में टाटा मोटर्स की नैनो कार प्लांट को पश्चिम बंगाल से गुजरात के साणंद में शिफ्ट किया गया था। भारत को जब 2008 में पहली बार व्यापार सुगमता के मामले में विश्व बैंक ने टॉप 100 में रखा था, जब गुजरात पहले से ही इसमें अव्वल चल रहा था। कारण यह है कि यहां परमिट, लाइसेंस और पर्यावरण से जुड़ी औपचारिकताएं पूरी कराने में कानूनी पेंच को आड़े नहीं आने दिया जाता था। शासन के दौरान ही पुराने धर्मस्थलों और स्मारकों के पुनरुद्धार करवाए गए और केवड़िया जनजातीय क्षेत्र में ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ जैसे नए स्मारकों का निर्माण किया गया था। इन्हीं सब कामों की वजह से गुजरात मॉडल को मोदी का गुजरात मॉडल कहा जाता है, लेकिन धीरे-धीरे गुजरात मॉडल सवालों के घेरे में आने लगा है। मोरबी पुल हादसे में 135 लोगों की मौत ने तो गुजरात मॉडल को बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया है। यह हादसा विधानसभा चुनाव में विपक्ष के लिए बड़ा मुद्दा बन गया है। विपक्ष का कहना है कि जब प्रदेश में भाजपा का 27 साल से शासन रहा है तो उसे सैकड़ों साल पुराने मोरबी पुल की ओर ध्यान क्यों नहीं गया। अगर प्रदेश में विकास हुआ तो मोरबी पुल अछूता कैसे रहा?