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‘कहां से चले कहां के लिए’

मार्च 1956 में प्रसिद्ध ‘वोग’ मैगजीन ने अपने कवर पर लता मंगेकर की तस्वीर लगाई और लिखा, लता मंगेशकर, एक स्त्री जिसके गले में मां सरस्वती बसती हैं। सदियों में ऐसा एकाध बार ही होता है कि कोई शख्स इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी तारीफ नहीं की जा सकती है। गीतकार जावेद अख्तर जैसा कहते हैं कि शेक्सपीयर के लिए कोई नहीं कहता कि वो अच्छा लिखते हैं, माइकल एंजेलो के लिए कोई नहीं कहता कि वे अच्छा स्टेच्यू बनाते हैं, क्योंकि इनका नाम ही काफी हैं, इनकी तारीफ के लिए कोई शब्द नहीं है। उसी तरह जैसे लता मंगेशकर का नाम ही काफी है। बहुत हद तक यह सही भी है कि उनकी तारीफ में और क्या कहा जा सकता है, लोग जब यह कह देते हैं कि तुम तो लता मंगेशकर की तरह गाती हो या गाते हो। सुर का यहां पर्याय ही लता मंगेशकर का नाम बन गया है। पर लता मंगेकर होना क्या इतना आसान था। क्या उन्हें हम बस दो नजरिये से ही याद करते रहेंगे, एक वो अच्छा गाती थीं और दूसरा उन्हें भारत रत्न प्राप्त हुआ था। संभव है कि अधिकतर लोग इन्हीं दो बातों को ही भविष्य में लगातार दर्ज कराते रहेंगे। पर यहां मशहूर शायर निदा फाजली की एक नज्म याद आ रही है,

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी।
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।।
जिंदगी का मुकद्दर सफर दर सफर,
आखिरी सांस तक बेकरार आदमी।।
हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी।
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।

इसी तरह लता मंगेशकर को देखने के लिए मुतमईन होकर इस नजरिए से देखना होगा कि हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी। एक समृद्ध परिवार में जन्मी लता मंगेशकर जिनके पिता दीनानाथ मंगेशकर स्वयं एक संगीतज्ञ थे, घर पर ड्रामा कंपनी से जुड़े कलाकारों का आना-जाना लगा रहता था। पांच वर्ष की आयु से लेकर 92 वर्ष तक संगीत को साधना करने वाली लता मंगेशकर के जीवन में क्या गीतों के इतर कुछ भी नहीं था? बहुत कुछ ऐसा था, जिसकी तकलीफ वो ताउम्र सहती रहीं। एक साक्षात्कार में वो कहती हैं कि, दुबारा जन्म नहीं मिले तो अच्छा है। वाकई जन्म मिला तो मैं लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूंगी। उनके गुजर जाने के बाद अब लता मंगेशकर की रुहानी आवाज और उनसे जुड़ी यादें ही पीछे रह गई हैं। लता मंगेशकर की निजी जिंदगी के बारे में बहुत से लोग जानना चाहते हैं कि उन्होंने शादी क्यों नहीं की थी। लता मंगेशकर को भी प्यार हुआ था और वह भी शादी करना चाहती थीं। लता मंगेशकर के शादी नहीं करने के पीछे दो बड़ी वजहें थीं। एक तो लता मंगेशकर छोटी उम्र से ही अपने भाई-बहनों, मीना, आशा, उषा और हृदयनाथ को संभाल रही थीं। उन्हें पढ़ाने लिखाने और काबिल बनाने में लता की काफी उम्र बीत गई। इसके बाद एक बार जब उन्होंने शादी का मन बनाया तो किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया।

लता संग बाएं से ऊषा हृदयनाथ, आशा, मीना

एक रिपोर्ट के मुताबिक दिवंगत क्रिकेटर और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष राज सिंह डूंगरपुर, लता मंगेशकर के भाई हृदयनाथ मंगेशकर के करीबी दोस्त थे। राज सिंह राजस्थान के शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे और डूंगरपुर के तत्कालीन राजा स्वर्गीय महारावल लक्ष्मण सिंह जी के सबसे छोटे बेटे थे। दोनों के बीच मुलाकातों का सिलसिला बढ़ा और लता मंगेशकर को उनसे प्यार हो गया। कहते हैं कि लता उन्हें प्यार से मिट्ठू कहकर बुलाती थीं। दोनों शादी का मन बना रहे थे लेकिन जब महारावल लक्ष्मण सिंह जी ने शादी होने से मना कर दिया। वजह ये थी कि लता मंगेशकर एक शाही परिवार से नहीं थी और महारावल लक्ष्मण अपने बेटे राज सिंह की शादी एक आम लड़की से नहीं करना चाहते थे। इसके बाद लता मंगेशकर जीवन भर कुंवारी रहीं।


कुंवारी होना या बिना शादी किए मरना भी स्त्रियों के लिए पीछे प्रेम प्रसंग या शादी क्यों नहीं किया जैसे किस्से छोड़ जाता है। खासकर भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में तो यह चर्चाओं को हवा देने का काम जरूर करता है। उन्होंने 1999 से 2005 तक राज्यसभा सांसद के तौर पर देश की सेवा की थी। उनके मरणोपरांत यह लेखों और चर्चाओं का मुख्य बिंदु क्यों नहीं बना? यही नहीं उन्होंने इस दौरान सांसद के तौर पर एक रुपये का भी वेतन भत्ता नहीं लिया था। इसके अलावा दिल्ली में सांसद के तौर पर मिलने वाले आलीशान बंगले को भी ठुकरा दिया था। लता मंगेशकर को उनकी बेमिसाल आवाज, सादगी और व्यवहार कुशल व्यक्तित्व के तौर पर याद किया जाएगा। उन्हें 22 नवंबर, 1999 को राज्यसभा का मनोनीत संसद सदस्य घोषित किया गया था। अपने 6 सालों के कार्यकाल में उन्होंने वेतन के भेजे गए चेक्स को कभी स्वीकार नहीं किया और हमेशा वापस भेज दिया। एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा दायर की गई आरटीआई के तहत यह खुलासा हुआ था।

राष्ट्रपति से सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न लेती लता मंगेशकर

आरटीआई के बाद यह पता चला था कि लता मंगेशकर के वेतन से संबंधित मामले में वेतन-लेखा कार्यालय से लता को भेजे गए सभी चेक वापस आ गए। इसके अलावा लता मंगेशकर ने कभी भी सांसद पेंशन के लिए भी आवेदन नहीं किया था। यहां तक कि उन्होंने नई दिल्ली में सांसदों को दिए जाने वाले घर को भी ठुकरा दिया। लता मंगेशकर के अलावा क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने भी सांसद रहते हुए कभी न तो वेतन लिया और न ही उन्होंने नई दिल्ली में सांसदों को दिया जाने वाला घर स्वीकार किया। सचिन ने अपना पूरा सांसद वेतन 90 लाख रुपये प्रधानमंत्री राहत कोष में दान कर दिया था।

नसरीन मुन्नी कबीर की किताब ‘लता मंगेकर इन हर ओन वायस’ पुस्तक में जहर देने की घटना को याद करते हुए, लता मंगेशकर ने कहा है कि वह तीन महीने तक बिस्तर पर रही थीं। लता मंगेशकर ने किताब में कहा, ‘1962 में, मैं लगभग तीन महीने तक बहुत बीमार रही। एक दिन, मुझे पेट में बहुत दर्द हो रहा था और फिर मुझे उल्टी हुई। डॉक्टर ने मेरे पेट का एक्स-रे किया और कहा कि मुझे धीमा जहर दिया जा रहा है।’ यह जहर उनका सहायक दे रहा था या कोई और यह भी राज ही रह गया। एक इंसान में दस-बीस आदमी होते हैं, ये बात दुनिया के हर इंसान पर लागू होता है।

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यह शोक की घड़ी है। जिस आवाज में स्त्री मन ने धड़कना सीखा, प्रेम करना, विद्रोह करना, उदास होना और उदासी से उबरना सीखा, वह चली गई। इसमें देह का जादू भी था, आत्मा का राग भी। इस आवाज में प्यार पवित्र हो जाता था, इसके पुकारने से ईश्वर करीब आ जाता था। अब दूसरी लता मंगेशकर नहीं होगी।

-प्रियदर्शन, पत्रकार, ट्विटर से साभार

 

याशेमती मैया से बोले नंदलाला,
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला।

मुझे केवल यह शाश्वत सत्य समझ आता है कि आवाज हमेशा के लिए है। यही समझ मुझे गीता दत्त और बेगम अख्तर का अब भी इतना दीवाना बना देती है कि वे मुझे सामने नजर आती हैं। नेताजी सुभाष द्वारा उद्घोषित ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा अब भी जोर मारता हुआ कहीं न कहीं से प्रस्फुटित हो जाता है।  मेंहदी हसन रोज जिंदा होते हैं और मैं उनकी आवाज में फैज को सुनते हुए रम जाता हूं।
लता भी तो वही आवाज हैं। इतनी सुरीली, इतनी मीठी कि शहद भी आंखें चुराए। कल इक दोस्त ने कहा वे पंचम को क्या साधती थीं। किसी और दोस्त ने कभी कहा था कि वे संगीत विद्या की सबसे प्रतिभाशाली छात्रा थीं। वे महान थीं। नहीं, सम्भवतः महानतम! सुर साधिका जिन्होंने पीढ़ियों का परिचय गीत के सुरीलेपन से करवाया। उन्हें जो भी हासिल हुआ, वह उनके लिए ही निश्चित था। उससे कम कुछ भी होता तो उनके प्रति अन्याय होता। महानतम के सम्मान में कमी रह जाती। ईश्वर ने सब दिया उन्हें एक भरपूर जिंदगी उसी सब का पर्याय थी। उस जिंदगी में जब देह अपना साथ छोड़ने लगी तब ईश्वर ने अपनी इस लाड़ली को बुला लिया।

मैं जिस परंपरा से आती हूं, वहां पूरी उम्र जी चुके बुजुर्ग को गाजे-बाजे से विदा करने का रिवाज है। ईश्वर को शुक्रिया कहने की रीत है कि अपने देह के पंगु होने से पहले जिंदगी की नेमतें देकर इस बुजुर्ग को वापस बुला लिया। हम महाभारत का यक्ष-युधिष्ठिर संवाद पढ़ते हैं और दुहराते हैं, मृत्यु शाश्वत है। हम ही भावावेश में मृत्यु को बेचने भी लगते हैं। जी बिल्कुल ठीक पढ़ा आपने, जितनी बार भी आप हैशटैग का इस्तेमाल करते हैं, उतनी बार आप उक्त टॉपिक के बाजारीकरण के सोशल मीडिया की रेस में शामिल होते हैं।

नहीं मैं नहीं मानती कि दुःख केवल निजी तौर पर व्यक्त करने की चीज है। बहुत लाजिम है कि आप इसे सार्वजनिक तौर पर भी व्यक्त करें किंतु यह क्यों भूल जाते हैं आप कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ का नियम हर जगह लागू होता है।
आप कहते हैं कि मैं किसके पास अपनी वेदना कहने जाऊंगा? भले मानुष, खबरों की दुनिया में हूं मैं। लता पिछले पंद्रह-बीस दिनों से लगातार अचेत थीं। यह खबर कभी भी, किसी भी वक्त आ सकती थी। मैं सोच रही हूं, अचेत देह से कोई कैसे वेदना कहता-सुनता?
अणुशक्ति सिंह, लेखिका

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