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कूटनीतिक दृष्टि से अहम है विदेश दौरा

 

  •       वृंदा यादव

 

गत सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 जून से अमेरिका और मिस्र की पांच दिवसीय राजकीय यात्रा पर हैं। हालांकि इससे पहले भी पीएम मोदी कई बार अमेरिका के दौरे पर जा चुके हैं, लेकिन इस बार का यह दौरा कूटनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। क्योंकि अमेरिका में उनकी यह पहली राजकीय यात्रा है। साथ ही भारत के इतिहास में वे दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें अमेरिका ने राजकीय यात्रा पर आमंत्रित किया है

 

जो बाइडन से पीएम मोदी की मुलाकात

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गत सप्ताह 20 जून से अमेरिका और मिस्र की पांच दिवसीय राजकीय यात्रा पर हैं। हालांकि इससे पहले भी पीएम मोदी कई बार अमेरिका के दौरे पर जा चुके हैं, लेकिन इस बार का यह दौरा कूटनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। क्योंकि अमेरिका में उनकी यह पहली राजकीय यात्रा है। साथ ही भारत के इतिहास में वे दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें अमेरिका ने राजकीय यात्रा पर आमंत्रित किया है। इससे पहले साल 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिका में स्टेट विजिट के लिए आमंत्रित किया गया था। पीएम मोदी 20 जून की रात 10 बजे अमेरिका पहुंचे जहां उनका शानदार स्वागत हुआ। उनके इस दौरे की शुरुआत 22 जून से हुई। जो बाइडेन नरेंद्र मोदी का स्वागत करने वाले अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति हैं। मोदी का अमेरिका में पहला दौरा साल 2014 में हुआ था तब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा थे। दूसरी बार जब साल 2017 में वह अमेरिकी दौरे पर गए थे तब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उनका स्वागत किया था। पीएम मोदी अमेरिका के राजकीय यात्रा पर 21 से 23 जून तक की यात्रा के बाद 24- 25 जून को मिस्र के दौरे पर जाएंगे।

क्या होता है राजकीय दौरा
अमेरिका के इस राजकीय दौरे में ऐसी कई चीजें हैं जो इस यात्रा को खास बनाती है। किसी भी देश का राजकीय दौरा सामान्य तौर पर किये जाने वाले दौरों से अलग होता है। इसमें एक देश का राष्ट्राध्यक्ष खुद दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष को
औपचारिक रूप से हस्तलिखित निमंत्रण देता है। अमेरिका में राजकीय दौरा सबसे ऊंचे दर्जे का दौरा होता है। अमेरिकी नियमों के अनुसार राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के दौरान किसी एक देश के राष्ट्राध्यक्ष को एक ही बार राजकीय दौरे के लिए आमंत्रित कर सकता है। अपने कार्यकाल के दौरान वह एक बार बुलाए गए एक देश के राष्ट्राध्यक्ष को एक से अधिक बार राजकीय दौरे के लिए आमंत्रित नहीं कर सकते। हालांकि अमेरिकी डिप्लोमैटिक परंपरा के अनुसार राजकीय दौरे पर अमेरिका को किसी भी देश के हेड ऑफ स्टेट यानी राष्ट्रपति या राजा व रानी को ही बुलाना होता है, लेकिन मनमोहन सिंह और मोदी के मामले में इस परंपरा को बदलकर ‘हेड ऑफ गवर्नमेंट’ यानी प्रधानमंत्री को बुलाया गया।

अमेरिकी दौरे का एजेंडा
अमेरिका के राजकीय दौरे की शुरुआत में पीएम मोदी ने 21 जून को न्यूयॉर्क में मौजूद संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के कार्यक्रम की शुरुआत की। इसके बाद 22 जून को वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और उनकी पत्नी ने उनका स्वागत किया। जिसके बाद मोदी ने अमेरिकी संसद की संयुक्त बैठक को भी संबोधित किया। इससे पहले भी साल 2016 में वे अमेरिकी संसद को संबोधित कर चुके हैं। 23 जून को नरेंद्र मोदी अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस और विदेश मंत्री एंटनी रिब्लकन से मिले। साथ ही उन्होंने वाशिंगटन में मौजूद कई कंपनियों के सीईओ और दूसरी महत्वपूर्ण शख्सियतों से भी मुलाकात की। माना जा रहा है कि इस यात्रा से भारत और अमेरिका के बीच व्यापार और निवेश को लेकर नए रास्ते खुलेंगे। दोनों देशों के बीच संबंधों को नया आयाम भी मिलेगा। भारत के विदेश सचिव क्वात्रा का कहना है कि इससे रक्षा क्षेत्र में नया और मजबूत तंत्र विकसित होगा। क्योंकि इससे द्विपक्षीय रक्षा तंत्र मजबूत होगा। यह ऐसी यात्रा है जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका में वास्तविक और व्यापक गहरी रुचि है। भारत का यह दौरा रक्षा व औद्योगिक सहयोग को भी बढ़ावा देगा।

क्या रूस से तनाव का कारण बनेगा यह दौरा?
थिंक टैंक हडसन इंस्टिट्यूट में इंडिया इनिशिएटिव की निदेशक अपर्णा पांडे ने अमेरिकी पत्रिका में अपना बयान देते हुए कहा है कि अमेरिका हमेशा से भारत और रूस की रक्षा साझेदारी को लेकर चिंतित रहा है। यह पहली बार है कि अमेरिका को यह मौका मिला है कि वह भारत को रोक सके क्योंकि जब से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू हुआ है तब से भारत को रूस से मिलने वाली रक्षा की आपूर्ति में दिक्कतें आ रही हैं। साथ ही एक बड़ी वजह यह भी है रूस के चीन से संबंध बढ़ते जा रहे हैं। जो भारत और अमेरिका के बीच रक्षा साझेदारी बढ़ाने में मदद कर रही है।
हालांकि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर द्वारा ‘द इकनॉमिस्ट’ को दिए गए इंटरव्यू के अनुसार इस यात्रा का प्रभाव भारत और रूस के सबंधों पर नहीं पड़ेगा। उनका कहना है कि पिछले 60 वर्षों से भारत और रूस का सबंध बना हुआ है और इतने सालों के रिश्ते में ऐसा नहीं होता है कि एक झटके में चीजें बदल जाएं। ऐसा संभव ही नहीं है। अमेरिकी प्रशासन और नेतृत्व को भी इन बातों की समझ है। उन्हें याद है कि वर्ष 1965 में अमेरिका ने यह फैसला किया था कि वह भारत को हथियार नहीं बेचेगा, जिसके बाद भारत के पास सोवियत संघ के पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। ऐसे में रूस और भारत के संबंधों में तनाव पैदा होने का सवाल ही नहीं खड़ा होता। अमेरिका से रक्षा करार से रूस के साथ संबंधों पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। हम रूस से भी हथियार लेते हैं। कुछ समय पूर्व तक 60 फीसदी तक हथियार रूस से ही खरीदे जा रहे थे। जो रक्षा उपकरण अमेरिका से लिए जा रहे हैं, वह हमारी सेनाओं के लिए बेहतरीन है। लेकिन, अमेरिका से विरोध के
बावजूद हमने रूस से एस-400 एपर डिफेंस सिस्टम खरीदा है।

चीन पर लगाम कसने की कोशिश?
अमेरिका की इस राजकीय यात्रा का एक संभावित परिणाम रूस और भारत के संबंधों का खराब होना माना जा रहा है। तो वहीं एक अन्य पक्ष का यह भी मनना है कि यह अमेरिका की भारत को चीन के खिलाफ मजबूत बनाने की कोशिश है। चीन की सत्तारूढ़ पार्टी के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स के अनुसार पार्टी के प्रमुख वांग यी का कहना है कि भारत को अमेरिका के भू राजनीति से बचना चाहिए। क्योंकि अमेरिका भारत के माध्यम से चीन को रोकने का प्रयास कर रहा है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि भारत को अमेरिका के साथ नहीं, बल्कि चीन के साथ ट्रेड और इकोनॉमिक को-ऑपरेशन बढ़ाना चाहिए जो उसके विकास में सहायक सिद्ध होगा।

पीएम मोदी का मिस्र दौरा भी है खास
24 जून से 25 जून तक पीएम मोदी मिस्र की राजकीय यात्रा पर रहेंगे। भारत की मिस्र में यह पहली आधिकारिक यात्रा होगी। भारत ने मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल सिसी को जनवरी 2023 के गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। जहां उन्होंने भारत को अपने देश की राजकीय यात्रा पर आमंत्रित किया था। भारत मिस्र के साथ मजबूत संबंध बनाने का प्रयास कर रहा है। मिस्त्र के साथ भारत के संबंध पहले भी खराब नहीं रहे हैं। वर्तमान में दोनों देशों के बीच 7 अरब डॉलर का व्यापार होता है। जिसे दोनों देश इस यात्रा के दौरान बढ़ाकर 12 अरब डॉलर तक पहुंचाना चाहते हैं। इसमें रक्षा और शिक्षा से संबंधित कई समझौते शामिल हैं। हाल ही में मिस्र ने भारत से तेजस लड़ाकू विमान, रडार, सैन्य हेलिकॉप्टर और आकाश मिसाइल सिस्टम खरीदने में दिलचस्पी दिखाई थी। भारत, जो पहले रक्षा के क्षेत्र में अन्य देशों पर निर्भर था आज वह 42 देशों को हथियार निर्यात करता है। जिसमें अब मिस्र भी शामिल होने वाला है। साथ ही मिस्र ने भारत के आईआईटी संस्थानों की तरह अपने यहां उच्च शिक्षण संस्थान खोलने की इच्छा जाहिर की है। यह माना जा रहा है कि मिस्र भारत से इस क्षेत्र मदद लेगा। जो मिस्त्र के साथ-साथ भारत के लिए भी काफी फायदेमंद हो सकता है। क्योंकि भारत के लिए मिस्र, अफ्रीका में निवेश का रास्ता बन सकता है। क्योंकि मिस्र पश्चिम एशिया और अफ्रीका की राजनीति में बहुत मजबूत है।

पीएम मोदी की अमेरिका यात्रा के मायने
रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा कई मायने में महत्वपूर्ण है। यात्रा के नतीजे चीन के लिए साफ संदेश होंगे कि भारत रक्षा क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ा रहा है। वहीं, यूक्रेन मुद्दे पर भारत अपने रुख पर कायम रहते हुए रूस से संबंधों की प्रगाढ़ता भी बरकरार रखेगा। उम्मीद जताई जा रही है कि यात्रा के दौरान जीई के अत्याधुनिक जेट इंजन एफ-414 के भारत में निर्माण और प्रीडेटर ड्रोन खरीद समझौता को हरी झंडी मिल जाएगी। इन दो कदमों से भारत की सैन्य ताकत में भारी इजाफा होगा।

जीई के इंजनों के जरिये भविष्य में भारत तेजस को जहां पांचवीं पीढ़ी के अत्याधुनिक लड़ाकू विमान के रूप में तैयार कर सकेगा, वहीं प्रीडेटर ड्रोन से तीनों सेनाओं की मारक क्षमता में इजाफा होगा। यह सीमा पर अक्सर आक्रामकता दिखाने वाले और विस्तारवादी मानसिकता रखने वाले चीन के लिए कड़ा संदेश होगा कि भारत की सैन्य ताकत तेजी से बढ़ रही है तथा उसे मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है।

आजादी के बाद से ही मजबूत है रिश्ता
भारत-मिस्र के बीच राजनयिक संबंध के 75 साल 2022 में ही पूरे हो गए हैं। 1947 में भारत को आजादी मिलने के तीन दिन बाद ही 18 अगस्त 1947 को दोनों देशों ने राजनयिक संबंध शुरू करने की घोषणा की थी। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के दूसरे राष्ट्रपति जमाल अम्देल नासेर के समय दोनों देशों के संबंध बेहद मजबूत हो गए थे। उसी का नतीजा था कि दोनों ही देशों ने 1955 में मित्रता संधि पर हस्ताक्षर किए थे। 1956 में स्वेज नहर संकट के वक्त मिस्र भारत का समर्थन किया था। नेहरू और नासेर ने ही इंडोनेशिया के राष्ट्रपति कणों और युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरुआत की थी। कोरोना की दूसरी लहर के समय मिस्र पूरी मजबूती से भारत के साथ खड़ा था।

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