मौसम में बेशक ठंड चरम पर है। लेकिन राजनीतिक फिजाओं में किसान आंदोलन की गर्माहट महसूस की जाने लगी है। अभी तक सात दौर की वार्ता किसानों और केंद्र सरकार के बीच हो चुकी है। नतीजा सिफर रहा है। लेकिन संकेत सकारात्मक मिलने लगे है। हालाँकि अब सब की नजर आठवें दौर की वार्ता पर टिकी है। जो 8 जनवरी को होगी। राजनीतिक पंडितो का आकलन को देखे तो बर्फ पिघल रही है , मगर धीरे – धीरे।
यह पहली बार हुआ है जब छठे दौर की बैठक हुई तो उसके बाद कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पीयूष गोयल ने खुद किसानों के साथ लंगर बांटा था। जिसके बाद बैठक का रुख ही बदल दिया गया। छठे दौर की बैठक के दौरान सरकार ने किसानों की बिजली और पराली को लेकर दो मांग भी मान ली । उसके बाद सातवे दौर की मीटिंग की शुरूआत भी इस तरह के सकारात्मक कदम से हुई।
अब सातवें दौर की बात करते है। इसकी बैठक शुरू होने से पहले एक सुखद अहसास कराती तस्वीर देखने को मिली। जो सरकार किसानों की किसी भी बात को शुरू में सुनने को तैयार नहीं थी वह पहली बार मृतक किसानों को लेकर सववेदनशील दिखी। अपनी मांगो को लेकर सरकार से संघर्ष कर रहे जिन 60 किसानों की प्रदर्शन के दौरान मौत हो गई थी उन्हें सरकार ने पहली बार खड़े होकर श्रद्धांजलि दी।
राजनीतिक फिजाओं में किसान आंदोलन
सातवें दौर की बैठक शुरू होने से पहले केंद्र सरकार के मंत्रियों और किसानों ने उन किसानों को श्रद्धांजलि पेश करते हुए 2 मिनट का मौन रखा जिन्होंने प्रदर्शन के दौरान अपनी जान गंवाई थी। फिलहाल चर्चा यह है कि सरकार इस तरह के कदमों से किसानों का विश्वास जीतना चाहती है।इस पर किसान आंदोलन से जुड़े नेताओं की राय बेशक भिन्न – भिन्न है। लेकिन अब उम्मीद जताई जाने लगी है कि किसानों और केंद्र सरकार के मध्य बीच का रास्ता जरूर निकलेगा।
क्या कहते है किसान नेता
इस बाबत किसान नेता चौधरी पुष्पेंद्र का कहना है कि किसानों को संतुष्ट करने करने के लिए सरकार को एमएसपी लागू कर देनी चाहिए। सरकार फिलहाल किसानों के दवाब में है। उनके लिए एमएसपी का मुद्दा मुख्य है। दूसरी तरफ प्राइवेट का सरकार पर भी दवाब है कि वह एमएसपी लागू न करे। ऐसे में सरकार भी दुविधा में है। लेकिन सरकार को देर सबेर कम्प्रोमाइज तो करना ही होगा। सरकार को इस मामले में एक कदम आगे बढ़ना ही होगा। नहीं तो उसे अपनी हठधर्मिता से राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है।
किसानो की बात पर देवेंद्र शर्मा कहते है कि फिलहाल सरकार का रुख स्पष्ट नहीं है। दोनों के बीच पेंच फसा हुआ है। सरकार अगर चाहे तो सबकुछ हो सकता है। लेकिन सरकार में यह इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती है। सब लोग यही चाहते है कि सरकार का किसानों से समझौता हो उन्हें कुछ मिले और उनकी घर वापिसी हो।