दुनिया में दिनोंदिन तापमान में वृद्धि हो रही है। इसे ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते असर के रूप में देखा जा रहा है। 15 देशों के वैज्ञानिक इस पर रिसर्च कर सूर्य के ताप को कम करने की योजना पर काम कर रहे हैं। जिसे सोलर जियो इंजीनियरिंग का नाम दिया गया है। हालांकि इसके खतरे भी कम नहीं हैं। इसके प्रयोग से खतरनाक अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाने वाली परत पतली होगी तो कैंसर जैसी घातक बीमारी भी बढ़ सकती है। मैक्सिको सरकार इस प्रयोग पर प्रतिबंध लगा चुकी है
शाहरुख खान की फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ का लोकप्रिय गाना ‘सूरज हुआ मद्धम’ आपने सुना तो होगा लेकिन सूरज मद्धम हो सकता है यह बिल्कुल नहीं सोचा होगा। आपने ही क्या शायद गीत रचने वाले अनिल पांडे को भी ये पता नहीं होगा कि वैज्ञानिक उनके इस गाने को सच में तब्दील कर दिखाएंगे। तकनीक के इस दौर में इसे संभव करने में वैज्ञानिक जुटे हुए हैं। लेकिन उनके द्वारा सूरज को मद्धम करने के प्रयास ने पूरी दुनिया को असमंजस की स्थिति में पहुंचा दिया है कि यह कैसे संभव हो सकता है। भला सूरज को ठंडा कैसे किया जा सकता है।
दरअसल, पिछले दो दशकों से पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर लगातार चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि धरती को तुरंत ठंडा करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ग्लोबिंग वार्मिंग को रोकने के लिए दुनिया भर के देश अपने-अपने स्तर पर उपाय कर रहे हैं। इन उपायों में जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल) को जलाना बंद करना और वैकल्पिक ऊर्जा पर ध्यान देने की तमाम बातें शामिल हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग पर तीव्रता से नियंत्रण पाना और रोक पाने के उपायों पर अमल कर पाना बेहद मुश्किल भरा काम है। ऐसे में वैज्ञानिकों ने धरती को ठंडा करने के लिए सूरज को मद्धम करने पर विचार करना शुरू कर दिया है। जिसे वैज्ञानिक भाषा में जियो-इंजीनियरिंग कहा जाता है। हालांकि कई अन्य वैज्ञानिक इस विधि को खतरनाक मान रहे हैं और उनका कहना है कि यह शेर के मुंह में हाथ डालने जैसा है। इसलिए इस शोध को तुरंत बंद किया जाना चाहिए। जियो-इंजीनियरिंग के माध्यम से ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के उपाय के रूप में सूर्य के प्रकाश की रोशनी को कम करने का यह प्रयास कितना सफल होगा इसका तो पता नहीं लेकिन इस तकनीक के विरोध में स्वर तो अभी से सुनाई देने लगे हैं।
क्या होती है सोलर जियो इंजीनियरिंग
ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए जलवायु प्रणाली का यांत्रिकी तरीका जियो इंजीनियरिंग कहलाता है। जियो इंजीनियरिंग की प्रक्रिया में एक तकनीक होती है। जिसे स्ट्रेटोस्फेरिक एयरोसोल इन्जेक्शन (साई) कहा जाता है। सूक्ष्म ठोस कणों अथवा तरल बूंदों के हवा या किसी अन्य गैस में कोलाइड को एरोसोल ;।मतवेवसद्ध कहा जाता है। एरोसोल प्राकृतिक या मानव जनित हो सकते हैं। हवा में उपस्थित एरोसोल को वायुमंडलीय एरोसोल कहा जाता है। कहा जा रहा है कि इस तकनीक द्वारा वैज्ञानिक विमानों या विशाल गुब्बारों के माध्यम से वायुमंडल की ऊपरी परत समताप मंडल (स्ट्रैटोस्फीयर) पर सल्फर डाइऑक्साइड का छिड़काव करने की योजना पर काम कर रहे हैं। सल्फर सूर्य की किरणों को परावर्तित कर देता है। इस प्रकार सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर इतनी तेजी से नहीं पहुंच पाता कि तापमान आवश्यकता से अधिक बढ़ सके।
तकनीक का विरोध
इस तकनीक पर आलोचकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने का यह संभावित तरीका जीवाश्म ईंधन कंपनियों को कुछ न करने का बहाना दे सकता है। साथ ही यह तकनीक मौसम को खराब कर सकती है, जिससे गरीब देशों में हालात और भी बिगड़ सकते हैं।
नाइजीरिया की आलेक्स एक्वेमे फेडरल यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट के डायरेक्टर चुकवुमेरिये ओकेरेके कहते हैं, ‘यह बहुत विवादास्पद है, मैं सौ उपाय बता सकता हूं जो ग्लोबल वार्मिंग को कम कर सकते हैं और जियो इंजीनियरिंग उनमें से एक नहीं होगी।’ ओकेरेके लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं।
पर्यावरणविदों का कहना है कि इस पूरी प्रक्रिया से आसमान हल्का सफेद हो सकता है, हालांकि पर्यावरणविदों की चिंता का कारण यह नहीं है। बल्कि चिंता इस बात की है कि अगर धरती ठंडी होती है तो इसका मतलब यह है कि धरती की सतह से कम मात्रा में वाष्पीकरण होगा और बारिश के तरीके में निश्चित रूप से बदलाव आएगा। जिसके चलते दुनिया भर के पारिस्थितिकी तंत्र में रिपल इफेक्ट (ऐसी घटना या असर जो एक बार होकर रुकता नहीं है, बल्कि होता जाता है और एक घटना से जुड़ दूसरी घटनाओं की शृंखला बनाता है) उत्पन्न हो सकता है। इस शोध पर रोक लगाने के लिए 60 विशेषज्ञों के समूह ने एक खुला पत्र लिखा है। जिसमें कहा गया है कि यह तकनीक वैसी ही खतरनाक है, जैसी इंसानों की क्लोनिंग और रासायनिक हथियार, जिसकी जरूरत नहीं है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर ऐसा कर दिया गया तो इसे सुधारने में कई दशक लग जाएंगे। यह प्रकृति के साथ भयानक तरीके की छेड़छाड़ करने जैसा है। जिसके दुष्परिणाम बहुत ही भयानक होंगे और कहीं इसे अचानक ही बंद कर दिया जाता है तो धरती को ठंडा रखने के लिए जो एयरोसोल का सुरक्षा कवच बना है। वह वायुमंडल में इकट्ठा हुई ग्रीन हाउस गैस एक झटके में धरती से टकराएगी। इससे धरती का तापमान वर्तमान स्थिति की तुलना में अचानक 4 से 6 गुना बढ़ जाएगा। इसलिए विशेषज्ञों के मुताबिक सूरज का मद्धम होना गाने में तो अच्छा है, लेकिन प्रायोगिक तौर पर इसके दुष्परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
बहरहाल प्राकृतिक आपदाओं के खतरों के बीच और पर्यावरणविदों की चेतावनियों के बावजूद इस तकनीक पर शोध बेरोकटोक जारी है। हाल ही में यूनाइटेड किंगडम में स्थित सामाजिक संगठन, डिग्री इनिशिएटिव ने घोषणा की कि 15 देशों में सौर इंजीनियरिंग पर शोध के लिए 900 डॉलर यानी लगभग साढ़े सात करोड़ रुपए प्रदान किए जाएंगे। नाइजीरिया और चिली के अलावा भारत भी उन देशों में शामिल है जहां यह शोध किया जा रहा है।
संगठन ने कहा कि यह पैसा मानसून से लेकर तूफानों और जैव विविधता पर सोलर इंजीनियरिंग के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग तैयार करने के लिए दिया जा रहा है। सोलर इंजीनियरिंग को सोलर रेडिएशन मॉडिफिकेशन भी कहा जाता है। इससे पहले 2018 में भी इस संस्था ने दस देशों के वैज्ञानिकों को शोध के लिए इतनी ही राशि दी थी। उस समय शोध का उद्देश्य दक्षिण अफ्रीका में बढ़ते सूखे या फिलीपींस में चावल की खेती के लिए बढ़ते खतरों का अध्ययन करना था।
वैसे अभी तक सोलर इंजीनियरिंग से जुड़े शोध पर अमीर देशों का अधिकार ज्यादा रहा है और हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालय इस शोध में सबसे आगे रहे हैं। संगठन द्वारा प्रदान किया गया धन एक संयुक्त परियोजना के तहत इस्तेमाल किया जाएगा। जिसे डिग्री इनिशिएटिव और विश्व विज्ञान अकादमी द्वारा संयुक्त रूप से चलाया जा रहा है।
और भी तकनीकों पर काम
सल्फर के छिड़काव के अलावा वैज्ञानिकों द्वारा कई दूसरे तरीके भी तलाशे जा रहे हैं। इनमें से एक है- स्पेस सनशेड तैयार करना। इस प्रोसेस में अंतरिक्ष में दर्पण जैसी किसी चीज के माध्यम से सूर्य की किरणों को परावर्तित करके दूसरी ओर मोड़ दिया जाएगा। कुछ और तरीके भी हैं, जैसे क्लाउड सीडिंग, जिसमें हवा में लगातार समुद्री पानी से बादल बनाकर नमी रखी जाएगी ताकि गर्मी न पहुंच सके। इसके अलावा कुछ छोटे विकल्प भी हैं, जिसमें इमारतों की छतों को सफेद रखा जाएगा।
ग्लोबल वार्मिंग के लिए बड़े देश जिम्मेदार!
इस शोध में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि ग्लोबल वार्मिंग को कम करने वाली इस परियोजना को शुरू करने के लिए गरीब या कम आय वाले देशों का चयन किया गया है, जबकि ग्लोबल वार्मिंग के लिए अधिक जिम्मेदार विकसित देश हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो एक औसत अमेरिकी एक साल में 14.7 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करता है, जबकि एक आम भारतीय 1.8 मीट्रिक टन कार्बन
डाइऑक्साइड पैदा करता है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए बड़े देश ज्यादा जिम्मेदार हैं, लेकिन प्रयोग का लक्ष्य क्षेत्र विकासशील देशों को बनाया जा रहा है। जिस पर कई वैज्ञानिक आपत्ति जाहिर कर रहे हैं।
इस देश ने तकनीक को किया बैन
एक स्टार्टअप कंपनी मेक सनसेट्स द्वारा साल 2022 के अंत में मेक्सिको में दो बड़े गुब्बारे को सूर्य की तरफ भेजा गया था। ये गुब्बारे सल्फर डाइऑक्साइड से भरे हुए थे जो सूरज की धूप को कम करने के लिए सूर्य की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन मैक्सिको सरकार की ओर से इसके खतरों का हवाला देते हुए इस इस पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया। मेक्सिको सरकार का मानना है कि भले ही ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का यह एक विकल्प है। लेकिन इसके खतरों से किनारा नहीं किया जा सकता है।