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चैनलों ने बिगाड़े विषय-बहस के मायने

इलेक्ट्राॅनिक चैनलों ने आज महत्वपूर्ण विषयों और बहसों के मायने ही बदल डाले हैं। जनहित के विषयों को दरकिनार का चैनल आज ऐसे विषयों पर बहस को प्राथमिकता दे रहे हैं, कि जिनके जनहित में कोई मायने नहीं। जनता महसूस कर रही है कि चैनलों की रणनीति अपनी टीआरपी बढ़ाने की है न कि उसके हित में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की। अक्सर चैनलों के एंकर इस तरह बहसें आयोजित करवाते हैं कि उनकी भाषा और भाव-भंगिमा से साफ लगता है कि उनका झुकाव किस पार्टी की तरफ है।
आज चैनल बहस के लिए जैसे विषयों का चयन कर रहे हैं और उनके एंकर्स का बहस संचालित करने का जो तरीका है उससे तो कोई समझदार राजनेता या तो इन बहसों से दूर ही रहना चाहेगा या फिर इनमें शामिल हो भी गया तो उसे तनावपूर्ण स्थिति से भी गुजरने को विवश होना पड़ेगा। बताया जा रहा है कि चैनलों के एंकर जिस तरह एक खास पार्टी के पक्ष में झुककर बहसें करवा रहे हैं उसे देखते हुए अब कांग्रेस मन बना रही है कि वह अपने प्रवक्ताओं को ऐसी बहसों से दूर ही रखे। हो सकता है कि अब पार्टी के प्रवक्ता चैनलों की बहसों में शामिल न हों। पार्टी कार्यकर्ताओं की ओर से आलाकमान से इस बात की मांग उठने लगी है कि वे प्रवक्ताओं को ऐसी बहसों में न भेजें जो साफ-साफ सरकार के पक्ष में झुकी दिखाई देती हैं। कार्यकर्ताओं के बीच तो इस बात की भी चर्चा हो रही है उनके राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव त्यागी एक डिबेट में शामिल होने के बाद तनाव का शिकार हुए और हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई। कार्यकर्ताओं की ओर से पार्टी प्रवक्ताओं पर बहसों में शामिल न होने की दबाव बढ़ा तो जाहिर है कि कांग्रेस भी कोई कदम उठा सकती है। उसके प्रवक्ता इन बहसों से किनारा कर सकते हैं। गौरतलब है कि पूर्व में कुछ अन्य पार्टियों की ओर से भी बहसों को लेकर सवाल उठ चुके हैं।
डिबेट यानी की  वाद-विवाद या बहस, किसी विषय पर चर्चा की एक औपचारिक विधि है। जहां विभिन्न विचारों के समर्थक अपना-अपना तर्क रखते हैं , बहस के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जनहित में क्या उचित रहेगा। अपने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर डिबेट की परम्परा का विकास  प्राईवेट चैनलों को संख्या बढ़ने के साथ 90 के दशक में तेज हुआ। उससे पहले समाचार पत्र भी किसी खास विषय पर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं और विशेषज्ञों की राय लेते रहते थे।
आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी ख़ास मुद्दों पर बातचीत होती थी। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को बढ़ती संख्या ने  डिबेट को एक नया आयाम दिया। पर इसमें दिक्कत यह भी है कि आजकल न्यूज चैनलों के कार्यक्रमों को देखकर लगता है , दो प्रवक्ता या विचारक अपने विचार नहीं रख रहे बल्कि एंकर के उकसावे में आकर चर्चा को व्यक्तिगत युद्ध की स्थिति में तब्दील कर रहे हैं।
फ़िलहाल आज के न्यूज़ चैनलों ने तो डिबेट की परिभाषा ही बदल दी, इसे समझने के लिए आप अब निम्न चर्चित कार्यक्रमों पर एक नजर डालिए। ‘आजतक’ न्यूज़ चैनल की एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं अंजना ओम कश्यप, इनके डिबेट शो का नाम है “हल्ला बोल”। कार्यक्रम के नाम पर गौर करें तो यहीं से डिबेट की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
अगला डिबेट शो है ‘न्यूज़ 18 इंडिया’ के तेज-तर्रार अमिश देवगन के कार्यक्रम “आर-पार”। ये चर्चा या वाद-विवाद तो बिल्कुल नहीं लग रहा, कार्यक्रम देखेंगे तो लगता है कि किसी जंग का एलान हुआ है और अब एक पक्ष विजयी होगा और दूसरा पक्ष धराशाई होगा।
एक और कार्यक्रम है “पूछता है भारत”  जिसे होस्ट करते हैं ‘रिपब्लिक भारत’ न्यूज़ चैनल के एडिट-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी। इस कार्यक्रम में आये दिन कोई न कोई वक्ता अपने आत्म सम्मान को बचाने के लिए डिबेट से बाहर हो जाता है। कुछ वक्ता इतने प्रताड़ित हुए कि उन्होंने दुबारा कभी इस डिबेट में न जाने की कसम ही खा ली।
ये किस तरह के डिबेट हैं, टीआरपी के नाम पर वक्ताओं और  दर्शकों की भावनात्मक एवं मानसिक चीजों से खिलवाड़ किया जा रहा है। एंकर अपने कार्यक्रम में बुलाए अतिथि को ही नीचा गिराने की हर स्तरीय कोशिश करता है।
वाद से विवाद होता है, विवाद सकारात्मक हो तो कई नए  विचार देश के हित में सम्मिलित होते हैं। एंकर के गैर जरूरी भड़काऊ प्रश्न और उससे उपजे असंगत बयानबाजी और वक्तव्यों ने दर्शकों में बैठे कई अराजक तत्वों को सक्रिय करने का काम किया है ।जिसने देश में कई दंगे एवं अपराध तक को जन्म दे दिया और यह सब  किसी विशेष वर्ग पर ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र की समरसता पर प्रहार है।
 पहले भी टीवी में समाचार प्रस्तुत हुए हैं, डिबेट हुईं हैं , पर वहां वाद-विवाद एक औपचारिक चर्चा रही है जिसमें प्रतिभागियों के अलावा एक संचालक होता है और श्रोता होते हैं। लेकिन अब संचालक कार्यक्रम संचालन का कार्य नहीं करता, बल्कि वह पूरे डिबेट के केंद्रीय विषय को भटकाने का कार्य कर रहा है।
भला ये कैसे संचालक हैं जो संचालन का कार्य छोड़ कर कुर्सियों से उठ-उठ कर , अपने हाथ-पैरों और चेहरे से विभिन तरह की उत्तेजक भंगिमाएं बनाते हैं और पूरे डिबेट को ट्रैक से उतार कर चिल्ला-चिल्ला कर ख़ुद को सफल घोषित कर देते हैं।
कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव त्यागी की 12 अगस्त की शाम हार्टअटैक से मौत हो गई,लेकिन मौत से ठीक पहले वह एक चैनल की डिबेट में अपने घर से ही ऑनलाइन चर्चा कर रहे थे और वहीं डिबेट के दौरान उनकी स्थिति नाजुक हो गयी।
हम इस घटना के लिए किसी न्यूज़ एंकर को जिम्मेदार नहीं ठहरा रहें हैं  लेकिन अब इस तरह के भारी तनाव युक्त डिबेट्स को रोकने के लिए सरकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
 जो न्यूज़ एंकर इस बात का शोक मना रहें हैं,वो जिस राह से खुद गुज़र रहे हैं उससे वो अजनबी तो नहीं होंगे। उन्हें पता है वो एक कुशल व्यापारी की तरह  नए भारत के नागरिकों को अपना उत्पाद बेच रहें हैं।
लेकिन जब ये उत्पाद मौत का कारण बने तो सही समय में चेत जाना ही समझदारी होगी। अभी डिबेट्स में वक्ताओं की मौत हो रही है, ऐसा ही चलता रहा तो अगला नंबर दर्शकों का भी हो सकता है।

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