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सजने लगी है चुनावी महफिल

विपक्षी दलों ने एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए नए गठबंधन ‘इंडिया’ का गठन कर भाजपा के समक्ष बड़ी चुनौती पेश करने का काम किया है। इसके जबाब में अब भाजपा नेतृत्व ने हाशिए पर पड़े ‘एनडीए’ गठबंधन के घटक दलों को एक बार फिर से महत्त्व देने की कवायद शुरू कर दी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में पक्ष और विपक्ष अपने-अपने गठबंधनों को कैसे मजबूती देंगे और आंतरिक अंतर्विरोध तथा वैचारिक मतभेदों को कितना पाट पाएंगे

लोकसभा चुनाव 2024 में अब एक साल से भी कम का समय बचा है, ऐसे में एक तरफ जहां सभी विपक्षी पार्टियों ने एकजुट होकर एक गठबंधन बनाया है तो वहीं दूसरी ओर सत्तारूढ़ बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने भी आगामी आम चुनाव में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने को लेकर संकल्प लिया है।

गत सप्ताह 18 जुलाई को एक तरफ बेंगलुरु में विपक्ष के 26 दलों ने बैठक की तो दूसरी ओर भाजपा की अगुवाई में 38 दल एनडीए की बैठक में शामिल हुए। विपक्ष ने अपने गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखा। इसका पूरा नाम है इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस। बैठक के बाद दोनों गठबंधनों ने अपने-अपने जीत के दावे किए। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि विपक्ष के इंडिया और भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए में कौन ज्यादा मजबूत है? बूथ से लेकर संसद तक कौन कितना भारी पड़ेगा? सबसे पहले बात करते हैं कि दोनों गठबंधनों ने बैठक में क्या फैसले लिए।

विपक्षी दलों ने क्या-क्या फैसले लिए
1. विपक्षी दलों ने गठबंधन का नाम तय किया।
2 . सभी विपक्षी दलों ने लोकतंत्र को बचाने के लिए एक साथ आने का फैसला लिया है।
3. बैठक में सामूहिक प्रस्ताव भी पास हुआ।
4. विपक्ष की अगली बैठक अब मुंबई में होगी।
5. 11 सदस्यों की समन्वय समिति का गठन होगा।
6. चुनाव के लिए दिल्ली में सचिवालय बनाया जाएगा।

एनडीए ने क्या फैसला लिया
दिल्ली में एनडीए के खेमे में 38 राजनीतिक दलों ने एक साथ मिलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला लिया। इस दौरान पीएम मोदी ने अपने संबोधन में विपक्षी एकता पर जमकर हमला बोल कहा कि एनडीए मजबूरी वाला नहीं, बल्कि मजबूती वाला गठबंधन है। एनडीए में कोई छोटा- बड़ा नहीं है। पीएम ने विपक्षी एकता पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि बंगाल में टीएमसी और लेफ्ट और केरल में लेफ्ट और कांग्रेस एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं, लेकिन बेंगलुरु में दोस्ती दिखा रहे हैं। विपक्षी एकता छोटे-छोटे दलों के स्वार्थ का गठबंधन है जो किसी भी कीमत पर केवल सत्ता हासिल करना चाहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने एनडीए की बैठक में 50 फीसदी से ज्यादा वोट पाने का दावा किया और इस दावे के पीछे तर्क भी दिए। पीएम मोदी ने हर वर्ग को साथ लेकर चलने का मंत्र दिया। इसी के सहारे भाजपा अगले साल लोकसभा चुनाव में उतरेगी।

लोकसभा और राज्यसभा में कौन कितना ताकतवर
26 विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ के पास अभी लोकसभा में 141 और राज्यसभा में 93 सदस्य हैं। लोकसभा में सबसे ज्यादा कांग्रेस के 49 सदस्य हैं। दूसरे नंबर पर डीएमके के पास 24 और तृणमूल कांग्रेस के पास 23 सांसद हैं। जेडीयू के पास 16, शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के पास छह सदस्य हैं। सीपीआई (एम), नेशनल कांफ्रेंस, समाजवादी पार्टी, एनसीपी (शरद पवार) खेमे के पास 3-3 सदस्य हैं। आम आदमी पार्टी, जेएमएम, आरएसपी, एमडीएमके, वीसीके और केरला कांग्रेस (एम) के पास एक-एक सदस्य हैं। सीपीआई के दो सदस्य हैं। आठ ऐसे दल हैं, जिनके पास एक भी सांसद नहीं हैं।

यूपीए से ‘इंडिया’ तक

एनडीए की बात करें तो लोकसभा में इस खेमे में अभी कुल 332 सांसद हैं। सबसे ज्यादा सदस्य भाजपा के पास 301 सांसद हैं। शिवसेना एकनाथ शिंदे गुट के पास 13, लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपति कुमार पारस) के पास छह सदस्य हैं। एनसीपी अजित गुट के दो, अपना दल (एस) और शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के पास दो सांसद हैं। छह ऐसे दल हैं, जिनके पास एक-एक सांसद हैं। 25 दल ऐसे हैं, जिनके पास कोई सांसद नहीं हैं। वहीं राज्यसभा में भाजपा के 91 सदस्य हैं। यदि मनोनीत पांच सदस्यों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या 97 पर पहुंच जाती है। इसके अलावा एआइएडीएमके के चार सदस्यों के साथ अन्य सहयोगी दलों को मिलाकर एनडीए सांसदों की कुल संख्या 111 सदस्यों की हो जाती है।
जिन पार्टियों के सांसद नहीं उन्हें क्या फायदा होगा

राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि ये दल दोनों ही गठबंधनों के लिए अहम हैं। कई बार ग्राउंड पर समीकरण मजबूत करने के लिए ऐसे गठबंधन किए जाते हैं। इस गठबंधन का असर क्षेत्र, जाति, भाषा और समुदाय के हिसाब से होता है। उदाहरण के लिए जयंत चौधरी की आरएलडी को ही ले लीजिए। इसके पास लोकसभा में अभी एक भी सांसद नहीं हैं। विधानसभा में भी छह सदस्य ही हैं। आरएलडी का प्रभाव सिर्फ पश्चिमी यूपी तक ही सीमित है। कुछ हद तक हरियाणा और राजस्थान में भी है। हालांकि, इसका ज्यादा फायदा पार्टी को नहीं मिलता है। जाट बिरादरी पर आरएलडी की पकड़ है। इसी तरह बिहार की हम, यूपी की सुभासपा, निषाद पार्टी जैसे दल भी हैं जिनकी ताकत संसद में नहीं है, लेकिन क्षेत्र और जातीय आधार पर जरूर है। इनके कोर वोटर्स हैं, जो कई सीटों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं।

किस राज्य में किस पार्टी की कितनी पकड़
कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें यूपी में हैं। इनमें से 64 पर भाजपा, नौ पर बसपा, तीन पर समाजवादी पार्टी, दो पर अपना दल(एस) और एक पर कांग्रेस का कब्जा है। एक सीट फिलहाल खाली है। यहां गठबंधन के हिसाब से और संसद में सदस्यों के हिसाब से भी भाजपा मजबूत दिख रही है। भाजपा ने यूपी के कई अलग-अलग जातीय और क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ जोड़ा है। इसके विपरीत विपक्ष यहां बिखरा हुआ है।

समाजवादी पार्टी, आरएलडी और कांग्रेस का ही यहां गठबंधन है। विपक्ष से ही बसपा, एआईएमआईएम अलग चुनाव लड़ेंगे। इस तरह अभी की स्थिति में भाजपा का पलड़ा भारी लग रहा है। यूपी के बाद महाराष्ट्र में लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें हैं। पिछली बार भाजपा और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था। तब भाजपा के 23 और शिवसेना के 18 सांसद चुने गए थे। यूपीए गठबंधन का हिस्सा रही एनसीपी के चार, कांग्रेस का एक उम्मीदवार चुना गया था। एआईएमआईएम का भी एक सांसद चुना गया था। अभी यहां एनसीपी और शिवसेना दोनों में ही फूट पड़ चुकी है। दोनों के ही दो गुट बन चुके हैं। एक गुट एनडीए तो दूसरा ‘इंडिया’ गठबंधन में है। अभी की स्थिति में महाराष्ट्र के अंदर एनडीए का गठबंधन मजबूत माना जा सकता है।

तीसरे नंबर पर है पश्चिम बंगाल। यहां 42 सीटें हैं। 2019 में इनमें से 22 सीटों पर तृणमूल कांग्रेस और 18 पर भाजपा की जीत हुई थी। बंगाल में चार बड़े दल हैं। इनमें टीएमसी, भाजपा, कांग्रेस, और सीपीएम है। अभी बंगाल के तीन दल एक साथ आ गए हैं। इनमें टीएमसी, कांग्रेस और सीपीएम है। इनके आने से विपक्ष मजबूत तो हुआ है, लेकिन अभी सीट बंटवारे को लेकर जरूर तीनों के बीच विवाद हो सकता है। इसके उलट भाजपा अकेले चुनाव लड़ रही है, जिसका फायदा उसे मिल सकता है।
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। पिछली बार इनमें से 39 सीटों पर एनडीए उम्मीदवारों को जीत मिली थी। जेडीयू भी तब एनडीए का हिस्सा थी। 17 सीटों पर अभी भाजपा का कब्जा है। जेडीयू के 16 उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब हो गए थे। छह सीट पर लोजपा और एक पर कांग्रेस को जीत मिली थी। आरजेडी का कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया था। अभी यहां जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस और सीपीआई का गठबंधन है। वहीं, भाजपा ने भी क्षेत्रीय और जातीय हिसाब से नया समीकरण बना लिया है। भाजपा ने छोटे- छोटे दलों को अपने साथ जोड़ दिया है। इसका फायदा पार्टी को आने वाले चुनाव में मिल सकता है। हालांकि, अगर सीटों के बंटवारे को लेकर महागठबंधन सही फॉर्मूला तैयार कर ले तो ‘एनडीए’ गठबंधन को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।

तमिलनाडु में 39 लोकसभा सीटें हैं। 2014 में इन सभी सीटों पर एनडीए के उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। हालांकि, 2019 में पासा पलट गया। एनडीए के खाते से सभी सीटें डीएमके के पास चली गई। डीएमके अभी इंडिया गठबंधन का हिस्सा है।
भाजपा की नजर तमिलनाडु में काफी समय से बनी हुई है। यही कारण है कि एनडीए की बैठक में पीएम मोदी ने अपने ठीक बगल में एआईएडीएमके के मुखिया के पलानीस्वामी को बैठाया था। फोटो सेशन में भी पीएम मोदी के ठीक बगल में पलानीस्वामी बैठे थे। तमिलनाडु में पट्टल्ली मक्कल काची (पीएमके) और टीएमसी (एम) के साथ भी भाजपा ने गठबंधन किया है।

मध्य प्रदेश, केरल, कर्नाटक, गुजरात, उड़ीसा, राजस्थान ऐसे राज्य हैं, जहां प्रत्येक राज्य में 20 से ज्यादा सीटें हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और कर्नाटक में कांग्रेस और भाजपा की सीधी लड़ाई है। गुजरात में भाजपा मजबूत है। ओडिशा में भाजपा की लड़ाई बीजद से है। पंजाब में आम आदमी पार्टी, कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। हरियाणा में भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है। ये वे राज्य हैं, जहां लोकसभा की 70 प्रतिशत से ज्यादा सीटें हैं। मतलब इन राज्यों में जीत हासिल करने वाला गठबंधन आसानी से केंद्र की सत्ता पर राज कर सकता है।

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