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व्यवस्थागत अराजकता की जकड़ में शिक्षा-रोजगार

  •        वरुण गांधी
    लेखक लोकसभा के सांसद

वर्ष 1998 में जिला चयन समिति की परीक्षा पास करने वाले आंध्र प्रदेश में 4 हजार 500 उम्मीदवारों को अब जाकर सरकारी स्कूलों में बतौर शिक्षक नियमित नौकरी की पेशकश की गई है। यह दर्शाता है कि देश में शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में किस कदर सुस्ती और गंभीर व्यवस्थागत अराजकता है। जो अपवाद से आगे निकलकर गैर-जिम्मेदार प्रचलन बनता जा रहा है

देश में शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में एक तरफ भारी सुस्ती छाई है, दूसरी तरफ गंभीर व्यवस्थागत अराजकता है। यह स्थिति अपवाद से आगे निकलकर गैर-जिम्मेदार प्रचलन बन चुकी है। आंध्र प्रदेश में 1998 में जिला चयन समिति की परीक्षा पास करने वाले 4 हजार 500 उम्मीदवारों को अब जाकर सरकारी स्कूलों में बतौर शिक्षक नियमित नौकरी की पेशकश की गई है। नौकरी की आस में इन लोगों के कीमती 24 साल बेकार चले गए।

इसी तरह पटना के जयप्रकाश विश्वविद्यालय के कई छात्रों के लिए स्नातक होने का इंतजार छह साल से भी लंबा है। परीक्षा और परिणाम में विभिन्न कारणों से देरी हो रही है (शिक्षण कर्मचारियों की कमी, शिक्षकों के वेतन में देरी, विरोध-प्रदर्शन, कोविड-19 आदि। इसका परिणाम यह हुआ है कि छात्रों को अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का वक्त नहीं मिल पाया। हजारों भारतीय छात्र बचत के मकसद से किराए के आवास में रहने को मजबूर हैं, और अपनी डिग्री की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

पिछले कुछ वर्षों में बिहार के 17 सरकारी विश्वविद्यालयों में से 16 ने अपने शैक्षणिक सत्र समय पर पूरे नहीं किए हैं। नतीजतन, ऐसे छात्र सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करने से चूक गए हैं। ऐसे विश्वविद्यालय शिक्षा का स्तर तो गिरा ही रहे हैं, बेरोजगारी भी बढ़ा रहे हैं। मगध विश्वविद्यालय के छात्रों ने परीक्षा आयोजित करने में बार-बार देरी से आजिज आकर इसी साल मई में विरोध-प्रदर्शन किया। निजी विश्वविद्यालय के छात्र भी इस देरी के भुक्तभोगी हैं। कई छात्रों के लिए स्नातक में देरी का मतलब प्लेसमेंट ऑफर के रद्द होने जैसा है। इस तरह की दुरावस्था और लेट-लतीफी के बीच लाभ कमाने का उपक्रम जारी है। भर्ती परीक्षाओं की तैयारी के लिए काफी पैसे खर्च करने पड़ते हैं। मामूली पदों पर भर्ती की तैयारी के लिए 1 हजार से 4 हजार रुपए, तो यूपीएससी की कोचिंग के लिए डेढ़ से ढाई लाख रुपए चुकाने पड़ते हैं।

रजिस्ट्रेशन शुल्क भी आसमान छू रहा है। भारतीय रेलवे ने लगभग 2 .41 लाख आवदेकों से आरआरबी-एनटीपीसी और ग्रुप-डी परीक्षाओं (2019) के जरिए 864 करोड़ रुपए इकट्ठा किए। जाहिर है कि जब तक कोई उम्मीदवार परीक्षा में शामिल हो, तब तक उसकी जेब पूरी तरह ढीली हो चुकी होती है। रेलवे की नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों के लिए 2019 में 1 .3 लाख पदों पर ग्रुप-डी की अधिसूचना के बाद से इसकी परीक्षा का लंबा इंतजार करना पड़ा। यह एक करोड़ आवेदकों के लिए 1 हजार दिनों तक सूने आसमान में टकटकी लगाकर देखने जैसा था।

दिलचस्प है कि रेलवे की परीक्षाओं में रेलगाड़ियों की तुलना में ज्यादा देरी देखी गई है। इसी साल जून में तिरुवनंतपुरम में सेना भर्ती परीक्षा आयोजित करने में देरी के खिलाफ उम्मीदवारों ने राजभवन के बाहर विरोध प्रदर्शन किया। शारीरिक और चिकित्सा परीक्षा पास कर चुके 2 हजार अभ्यर्थियों के लिए यह एक लंबा और थकाऊ इंतजार था। इनमें से कई तो अब 23 वर्ष से अधिक के हैं और इनके लिए नौकरी का पहला प्रयास ही अंतिम साबित हो रहा है।

कर्नाटक की सरकार दो साल के अंतराल के बाद फिर से 2 लाख 60 हजार रिक्तियों के लिए भर्ती करना चाह रही थी। लेकिन वहां भर्ती प्रक्रिया में देरी हो रही है, क्योंकि सरकार प्रशासनिक सुधार आयोग-2 (एआरसी-2) की रिपोर्ट का इंतजार कर रही है। यह रिपोर्ट कुछ नौकरियां समाप्त करने का कारण भी बन सकती हैं। ऐसे में सवाल है कि नौकरी के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे लोगों को आखिर और कितना इंतजार करना होगा।


व्यवस्था में सुस्ती और अराजकता का आलम यह है कि परीक्षाओं के नतीजे आ जाने के बाद भी उम्मीदवारों को नौकरी नहीं मिल पा रही है। सीएपीएफ में (सितंबर, 2020 तक) एक लाख से ज्यादा रिक्तियां थीं और ये ज्यादातर कांस्टेबल ग्रेड में थीं। इसके लिए 52 लाख उम्मीदवारों ने आवेदन किया और आखिर में 60 हजार 210 नौकरियों की पेशकश की गई। रिक्तयों को पहले से न भरे जाने के बाद एसएससी जीडी, 2021 के तहत महज 25 हजार 271 पदों के लिए परीक्षा ली गई।

वर्ष 2018 के उन 4 हजार 295 उम्मीदवारों, जो पहले ही परीक्षा पास कर चुके हैं, पर कोई विचार नहीं किया गया। ऐसे उम्मीदवारों ने आयु-सीमा पार कर ली है और इनमें से किसी भी परीक्षा के लिए वे अब दोबारा आवेदन नहीं कर सकते। वे पैरों में पड़े छालों का दर्द सहते हुए अपने हक और इंसाफ के लिए नागपुर से दिल्ली के लिए पैदल मार्च कर रहे हैं। हम युवाओं को रोजगार देने के नाम पर लाभ कमाने की योजना नहीं चला सकते। इसके लिए भी नीतियां बनाने की आवश्यकता है। परीक्षा केंद्र और उम्मीदवार के स्थान के बीच की दूरी सीमित हो। इस सीमा को 50 किलोमीटर तक रखना बेहतर होगा। ऐसा न होने पर मुआवजे के तौर पर उम्मीदवार को यात्रा और ठहरने के खर्चों का भुगतान करना चाहिए। इसी तरह ऑनलाइन परीक्षाएं राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जानी चाहिए।

इसके तहत सभी परीक्षा केंद्रों पर बायोमैट्रिक्स उपस्थिति, क्लॉक रूम, पंखे, समुचित प्रकाश व्यवस्था जैसी सभी बुनियादी सुविधाएं होनी चाहिए। एक ही दिन कई परीक्षा होने की परेशानी दूर करने के लिए सभी प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक उपक्रमों की भर्ती परीक्षाओं का एकीकृत परीक्षा कैलेंडर प्रकाशित जारी किया जाना चाहिए। सरकारी भर्ती के लिए केंद्र या राज्य सरकार के तहत प्रत्येक मंत्रालय को विभिन्न विभागों से अनुरोध करना चाहिए कि वे तय तिथि से तीन दिन के भीतर अपने यहां मौजूदा रिक्तियों की सूची तैयार कर उसे जमा कराएं। ऐसी सूची के अनुमोदन के हफ्तेभर के भीतर विभागों को मौजूदा रिक्तियों की अनुमोदित सूची का विज्ञापन देना चाहिए। इसमें विलंब होने पर कसूरवार विभागों को अपने प्रशासनिक खर्चों में कटौती करनी चाहिए और परीक्षा रद्द होने पर आवेदकों को पात्रता व आयु मानदंड में छूट मिलनी चाहिए।

देश में 15 साल से अधिक आयु के एक अरब लोगों में से महज 43 से 45 लाख लोग ही श्रमबल के तौर पर उपलब्ध हैं, जिनमें 30 से 40 लाख लोग नौकरी पाने में असमर्थ हैं। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, भारत में जून, 2022 में 39 करोड़ लोगों के पास नौकरियां थीं। ग्रामीण भारत में 80 लाख नौकरियों में कटौती और वेतनभोगी नौकरियों में और 25 लाख की कमी से स्थिति बेहद चिंताजनक हो गई है। इन सबके बीच जून, 2022 में भारत की रोजगार दर 35.8 फीसदी रही।

ऐसे में देश को सालाना दो करोड़ रोजगार सृजित करने की जरूरत है, वैसे यह भी दरकार से कम ही है। इस तरह के प्रयास समय से नहीं करने से हम अपने डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय लाभांश) के बड़े हिस्से को बर्बाद होने के लिए छोड़ देंगे। पीएसयू, सरकारी संस्थानों में परीक्षाओं और भर्ती के मुद्दे पर हमें शहरी बेरोजगारी पर एक राष्ट्रीय वार्ता की पहल की तरफ बढ़ना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड एक जनसांख्यिकीय आपदा न साबित हो, हमें रोजगार सृजन और श्रम बाजार के लिए युवाओं की कुशलता की चुनौती पर खरा उतरना होगा। जाहिर है, इसके लिए सिर्फ बयानबाजी काफी नहीं।

(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद नीतू टीटाण द्वारा किया गया)

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