[gtranslate]

 

कबीरदास ने भले ही पूर्व में कहा हो ‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।’ 21वीं सदी के भारत में आज भी जाति व्यवस्था का वर्चस्व बना हुआ है। हालात इतने विकट हैं कि एम्स जैसे उच्च शिक्षण एवं चिकित्सीय संस्थान में भी जातिगत विद्वेष के चलते एससी-एसटी समाज के प्रत्याशियों संग बड़े स्तर पर भेदभाव की बात को संसदीय समिति ने इस मानसून सत्र में संसद के समक्ष रखा है

 

भले ही देश की नई राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू आदिवासी समाज से आती हों और उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दलित समाज से निकल भारत के शीर्ष संवैधानिक पद पर जा पहुंचे हों, जमीनी स्तर पर जातिगत भेदभाव अब भी अपने चरम पर है। हालात इस कदर खराब हैं कि दलित समाज के योग्य प्रत्याशियों संग भेदभाव में देश के प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थान भी पीछे नहीं हैं। संसद के मानसून सत्र में इस आशय की एक संसदीय समिति की रिपोर्ट से साफ होता है कि किस प्रकार दलित वर्ग के उच्च शिक्षा प्राप्त प्रत्याशियों को जातिगत विद्वेष चलते उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। यह रिपोर्ट भाजपा सांसद किरीट पी सोलंकी की अध्यक्षता वाली समिति ने बीते 26 जुलाई को लोकसभा और राज्यसभा में प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि दिल्ली एम्स जैसे संस्थानों में भी नौकरी देने में एससी-एसटी वर्ग के लोगों के साथ भेदभाव किया गया। रिपोर्ट में फैकल्टी रिक्रूटमेंट के दौरान दलित और आदिवासी उम्मीदवारों के साथ भेदभाव का आरोप लगाया गया है। साथ ही समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि जातिगत भेदभाव के कारण एससी और एसटी के एमबीबीएस स्टूडेंट्स परीक्षाओं में बार-बार फेल होते हैं।

अहमदाबाद से सांसद किरीट पी सोलंकी


संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एम्स में एडहॉक आधार पर कई वर्षों तक काम करने वाले अनुसूचित जाति/ जनजाति के जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों को रेगुलर पोस्ट भरने के वक्त नहीं चुना गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि रेगुलर नियुक्ति के समय कहा गया कि कोई भी उम्मीदवार प्रवेश के लिए उपयुक्त और योग्य नहीं पाया गया था। लोकसभा में पेश की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एम्स में कुल 1111 संकाय पदों में से, 275 सहायक प्रोफेसर, 92 प्रोफेसर के पद खाली हैं। पैनल ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा कि उचित पात्रता, योग्यता होने के बावजूद पूरी तरह से एससी/ एसटी उम्मीदवारों को देश के प्रमुख मेडिकल कॉलेजों में प्रारंभिक चरण में भी फैकल्टी मेंबर्स के रूप में शामिल करने की अनुमति नहीं है। समिति ने मांग की है कि सभी मौजूदा रिक्त संकाय पदों को अगले तीन महीने के भीतर भरा जाना चाहिए। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से उसी समय सीमा के भीतर एक कार्य योजना मांगी गई है।


पैनल ने भविष्य को देखते हुए भी सभी मौजूदा पदों को भरने के बाद, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किसी भी संकाय की सीट को किसी भी परिस्थिति में छह महीने से अधिक तक खाली नहीं रखा जाएगा। समिति ने रिपोर्ट में कहा कि ‘सुपर-स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों में आरक्षण नहीं दिया जाता है जिसके परिणाम स्वरूप अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उम्मीदवारों को अभूतपूर्व और अनुचित रूप से वंचित रखा जाता है तथा सुपर स्पेशियलिटी क्षेत्रों में अनारक्षित संकाय सदस्यों का एकाधिकार होता है। आरक्षण नीति को छात्र और संकाय स्तर पर सभी सुपर स्पेशियलिटी क्षेत्रों में सख्ती से लागू किया जाना चाहिए ताकि वहां भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति संकाय सदस्यों की उपस्थिति सुनिश्चित हो।’


समिति ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के डॉक्टरों और छात्रों को विदेश में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु भेजने के लिए प्रभावी तंत्र स्थापित किया जाए ताकि सभी सुपर स्पेशियलिटी क्षेत्रों में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व स्पष्ट रूप से देखा जा सके। समूह ‘ग’ के पदों को नियमित रूप से भरे जाने के बदले संविदा पर रखे जाने को गरीबों को रोजी-रोटी से वंचित करने के समान बताते हुए समिति ने कहा कि सफाईकर्मी, चालक, डाटा ऑपरेटर आदि जैसे गैर मुख्य क्षेत्रों में भी संविदात्मक नियुक्ति नहीं की जानी चाहिए। संविदा नियुक्ति की नीति इन ठेकेदारों के माध्यम से दलित वर्गों के शोषण की गुंजाइश पैदा करती है। इसलिए, समिति सिफारिश करती है कि सरकार किसी भी वर्ग के वंचितों के इस तरह के शोषण को रोकने के लिए एक तंत्र विकसित करे। साथ ही इस संबंध में उठाए गए सुधारात्मक कदमों की जानकारी समिति को दी जाए।


समिति ने कहा कि विभिन्न एम्स में एमबीबीएस और अन्य स्नातक स्तर तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दाखिले का समग्र प्रतिशत अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत के अपेक्षित स्तर से बहुत कम है। इसलिए, समिति पुरजोर सिफारिश करती है कि ‘एम्स को सभी पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत को सख्ती से बनाए रखना चाहिए। समिति इस तथ्य पर न्याय संगत रूप से फिर जोर देती है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए और अधिक अवसर सुनिश्चित किए जाएं ताकि छात्र-छात्राओं के साथ जाति के आधार पर भेदभाव न हो सके।’ पैनल में अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि एम्स के छात्रों को एक कोड नंबर का उपयोग करके अपनी परीक्षा देने के लिए कहा जाए, न कि उनके नाम को पूछा जाए। परीक्षा के डीन को एक दलित या आदिवासी छात्र के फेल होने की हर घटना को स्कैन करना होगा। साथ ही एक निर्धारित समय के भीतर आवश्यक कार्रवाई के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक को एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी
होगी।

 

 

एम्स ही नहीं तमाम बड़े संस्थानों में एससी- एसटी नियुक्ति और प्रमोशन का मामला बहुत उदास करने वाला है। असल में जिस सामाजिक बराबरी की कामना और कल्पना हमारे संविधानविदों ने की। उसको लगभग एक साजिश की तरह इस देश के जो अगड़े वर्ग हैं उन्होंने अमल में आने नहीं दिया। तमाम जगहों पर जब आरक्षण की व्यवस्था हुई, तब तमाम जगहों पर वे सारे पद खाली रखे गए। वे सारे पद भरे होते तो बराबरी का माहौल बनता। तो यह सिर्फ एम्स की नहीं पूरे सामाजिक, सांस्कृतिक और सरकारी संस्थानों की त्रासदी है कि वे अपने समाज के पिछड़े वर्गों के प्रति उदार नहीं हैं बल्कि बेईमान और चालाक हैं।
प्रियदर्शन, लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार

 

You may also like

MERA DDDD DDD DD