पश्चिम बंगाल में भाजपा करीब दो साल पहले तक राजनीतिक चर्चाओं का विषय भी नहीं होती थी। कोई नहीं सोचता था कि वामपंथियों, कांग्रेसियों और अब तृणमूल कांग्रेस के गढ़ इस राज्य में भाजपा के लिए बेहतर संभावनाएं होंगी। लेकिन आज का सच यही है कि भाजपा राज्य में अपनी उन पुरानी जड़ों तक पहुंचना चाहती है जिन्हें कभी डाॅ श्याम प्रसाद मुखर्जी ने सींचा था। पश्चिम बंगाल में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी सरगर्मी तेज हो गई है। ऐसा माना जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी और टीएमसी के बीच कड़ी टक्कर है। मुख्यमंत्री ममता बनर्ती का दावा है कि वे एक बार फिर बंगाल में स्थापित अपने किले को बचा लेंगी तो दूसरी ओर बीजेपी ने दावा किया है वह नरेंद्र मोदी की अगुवाई में दीदी के किले को ध्वस्त कर अपनी ऐतिहासिक जीत दर्ज करेगी।
बहरहाल अभी तक चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा नहीं की है। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि यह चुनाव अप्रैल माह में लगभग सात चरणों में हो सकते हैं। पश्चिम बंगाल की राजनीति में कुछ वर्षों से जो अप्रत्याशित बदलाव हो रहे हैं उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2014 में भी बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसका अनुमान तक नहीं लगाया जा रहा था। वर्ष 2014 के चुनावों में राज्य में भारतीय जनता पार्टी को 16.8 प्रतिशत मत मिले थे। कमजोर हो चुके वाम मोर्चें और लगभग खत्म होने की कगार पर आ चुकी कांग्रेस और दल-बदलू नेताओं की आमद से भाजपा ने स्थानीय चुनावों में अपने लिए जगह बनानी शुरू कर दी।
पश्चिम बंगाल में भाजपा करीब दो साल पहले तक राजनीतिक चर्चाओं का विषय भी नहीं होती थी। कोई नहीं सोचता था कि वामपंथियों, कांग्रेसियों और अब तृणमूल कांग्रेस के गढ़ इस राज्य में भाजपा के लिए बेहतर संभावनाएं होंगी। लेकिन आज का सच यही है कि भाजपा राज्य में अपनी उन पुरानी जड़ों तक पहुंचना चाहती है जिन्हें कभी डाॅ श्याम प्रसाद मुखर्जी ने सींचा था।
इससे पहले तो यही माना जा रहा था कि हिंदी पट्टी के राज्यों में दक्षिणपंथी राजनीति का दबाव बनाया जा सकता है लेकिन दक्षिण-पश्चिम राज्य विशेषकर पश्चिम बंगाल की राजनीति का झुकाव तो हमेशा से वाम की ओर ही रहा है, पर यह सब मान्यताएं आने वाले विधानसभा चुनाव की बहस में धराशायी होती नजर आ रही हैं।
राज्य के राजनीतिक इतिहास में बड़े परिवर्तन की बात करें तो वर्ष 2011 में ममता बनर्जी ने बंगाल में तीन दशक से भी पुरानी वाम मोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकने के असंभव से दिखने वाले कारनामे को अंजाम दिया था। यह वो दौर था जब वाम मोर्चा, वामपंथी विचारों को आधार बना सत्ता पर अपने अधिकार की ताल ठोकती तो ममता दीदी उन्हें नकली वाम बोल ‘असली वाम’ की बहस छेड़ देती। जब ममता बनर्जी साड़ी और रबर की चप्पल पहने मैदान में उतरतीं तो उनके असली वाम के दावे को मजबूती भी मिल जाती।
वर्ष 1977 में कम्युनिस्टों के सत्ता में आने के बाद से राज्य में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का लगभग न होना, पश्चिम बंगाल की वाम राजनीति का एक प्रमुख आधार रहा है। ऐसा माना जाता है कि इन्हीं कारणों से ही वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद देश के बाकी हिस्सों के विपरीत यहां शांति रही। हालांकि विपक्षी पार्टियों को इसका मलाल भी रहा कि वाम मोर्चे के लंबे शासन ने किसी अन्य को उभरने ही नहीं दिया। लेकिन वाम मोर्चे के इस लंबे शासन को बंगाल की जनता सुशासन मानती है या कुशासन इसके लिए भी उनके अपने- अपने तर्क हैं।
राज्य के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की बात करें तो शायद यह पहली बार है जब राज्य की इस सियासी जंग में हिंदू- मुस्लिम चुनावी रणनीति का अधिक ही तनाव देखने को मिल रहा है। इसी तनाव की बाबत यह तो सुनिश्चित है कि टीएमसी की पूरी लड़ाई सिर्फ और सिर्फ एक ही पार्टी से है वह है भारतीय जनता पार्टी। पर यह भी स्पष्ट तौर पर नकारा नहीं जा सकता कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंदू-मुस्लिम कार्ड के किस्से ही नहीं रहे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि संघ परिवार के प्रमुख अंग रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी यहीं से थे। वे नेहरू सरकार के मंत्रिमंडल में रहे थे। लेकिन मतभेदों के चलते उन्होंने अलग राह पकड़ ली और वर्ष 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की। जो आगे चलकर वाजपेयी की अगुवाई में ‘भारतीय जनता पार्टी’ के नाम से भारत की राजनीति में मुख्य राजनीतिक पार्टी बनकर उभरी।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी साल 1943 से 1946 तक अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे। लेकिन यह सब इसलिये याद किया जाना चाहिए क्योंकि हिंदू महासभा और जनसंघ ने मिलकर बंगाल के पहले विधानसभा चुनावों में 13 सीटें जीती थीं। बाद में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु ने पश्चिम बंगाल में दक्षिणपंथ की जड़ों को कमजोर करना शुरू कर दिया। लेकिन आरएसएस द्वारा चलाए जाने वाले संगठनों का कार्य जमीन पर लगातार कायम रहा।
वर्तमान में भाजपा, टीएमसी के कई बड़े नेताओं के साथ- साथ उनके अन्य सदस्यों को भी तोड़ने में कामयाब रही। लेकिन इन सबके बावजूद सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बंगाल राजनीति की पर्यायवाची बनीं ममता बनर्जी को आने वाले विधानसभा चुनाव में कम कर आंकना ठीक होगा? या फिर अभी भी कई दांव हैं जो दीदी खुद संभाल के रखे हुए हैं और वह सही समय के आने का इंतजार कर रही हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक भाजपा राज्य की सत्ता पर काबिज होने के लिए हर दांव आजमा रही है, लेकिन सियासी दांव आजमाने में ममता दीदी भी कम कुशल नहीं हैं। आगे वे और बड़े दांव चलाएंगी।