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सुविधाओं से वंचित सफाईकर्मी

राजनीतिक लाभ के लिए राजनेता बेशक सफाईकर्मियों के पैर धो लेते हैं, उनके साथ खाना भी खा लेते हैं। लेकिन आधुनिक उपकरणों के अभाव में सफाई करने को मजबूर कर्मचारियों की मौत पर किसी को चिंता नहीं होती

कुंभ स्नान करने गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच सफाईकर्मियों के पांव धोकर दलितों को राजनीतिक संदेश देने का पुरजोर कोशिश की। इस कोशिश की सफलता- असफलता का नतीजा चुनाव बाद आएगा, क्योंकि यह संदेश ही चुनाव के लिए था। मगर इन सबके बीच सवाल यह है कि क्या प्रतीकात्मक कार्य से समस्या का स्थायी हल हो सकता है। अधिकतर का जवाब नहीं में है। तो फिर प्रधानमंत्री जैसे लोग भी यदि किसी समस्या का हल निकालने के बजाय चुनाव-चुनाव खेलने लगें तो आम लोगों का गुस्सा होना स्वाभाविक है। यह गुस्सा आगामी चुनाव में भी देखने को मिल सकता है।

देश भर में सफाईकर्मी सिर पर मैला ढोने से लेकर गटर में उतरकर अपने हाथों से गंदगी साफ करने को मजबूर हैं। सिर पर मैला ढोने से उनका आत्मसम्मान दम तोड़ देता है तो गटर में मिथेन गैस से सफाईकर्मी दम तोड़ देते हैं। लेकिन पांच साल में एक बार अचानक उन सफाईकर्मियों के पांव धोने से उनका आत्मसम्मान वापस नहीं आ सकता। चुनावी लाभ लेने के लिए इस तरह के प्रतीकात्मक काम अकेले प्रधानमंत्री नहीं करते। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, आप संयोजक अरविंद केजरीवाल से लेकर अन्य सभी बड़े नेता भी इसका सहारा लेते हैं। उसके बाद फिर उन्हें भुला दिया जाता है। प्रधानमंत्री ने जहां कुंभ में सफाईकर्मियों के पांव धोए वहीं दिल्ली के बुराड़ी में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बाल्मीकि भवन का उद्घाटन करते समय सफाईकर्मियों के साथ बैठे, जबकि जगह-जगह सफाईकर्मी संसाधनों और वेतनों की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इसी दिल्ली में ही कितनी बार प्रदर्शन हुए। ध्यान न तो केंद्र सरकार ने दिया और न ही दिल्ली के मुख्यमंत्री ने।


यही नहीं गटर साफ करने के दौरान सैकड़ों लोग गैस से मर गए। हाल ही में राजधानी दिल्ली में कई सफाईकर्मियों की मौत गटर में घुसने से हुई है। इनमें से बहुतों को मुआवजा तक नहीं मिला। सरकार मीडिया में खबर हाइलाइट होने पर मुआवजा बढ़ाकर देने की घोषणा करती है। मगर मुआवजा लेने के लिए सफाई कर्मियों के परिजनों को ऑफिस-ऑफिस भटकना पड़ता है। सिर्फ दिल्ली में मरने वाले कई सफाई कर्मियों के परिजन भी मुआवजा के लिए भटक रहे हैं।

अगर बात सेप्टिक टैंक की करें तो सेप्टिक टैंक देश में हर जगह हैं। जब ये सेप्टिक टैंक भर जाते हैं तो सफाई कर्मचारियों को इसे खाली कर साफ करना होता है। सवाल ये है कि आखिर इसके लिए अभी तक कोई व्यवस्था या कोई तकनीक क्यों नहीं है। अगर सफाई की मशीन हो भी तो एक नगरपालिका के पास एक ही होगी या कहीं पर चार हो सकती हैं। जब राजधानी दिल्ली में मशीन उपलब्ध नहीं है तो देश के अन्य नगर निगमों और नगर पालिकाओं की बात करनी बेमानी है। दिल्ली में भी मशीनें इतनी कम हैं कि मजदूर को सीवर में उतरना ही होता है। देश में ऐसा कोई शहर नहीं है जो पूरी तरह से सीवर लाइन से जुड़ा हो। इसमें दिल्ली भी शामिल है। दिल्ली में सीवर लाइन का आंकड़ा 70 फीसदी बताया जाता है पर असल में इतना भी नहीं है।

बाल्मीकि भवन के उद्घाटन के दौरान मुख्यमंत्री केजरीवाल ने वादा किया कि अब संकरी गलियों में सफाई मशीनों से होगी। मुख्यमंत्री ने चुनाव के पहले यह वादा तो कर दिया मगर उन्होंने यह नहीं बताया कि इसके लिए कितनी मशीनें खरीदी गई हैं। असल में एक भी नहीं। प्रधानमंत्री की तरह केजरीवाल भी चुनाव देखते हुए ही इस प्रकार के वादे कर रहे हैं।

आम लोगों में भी अपने देश में सैनिटेशन को लेकर समझ बहुत कम है। बहुत से लोग सारी गंदगी, कागज, प्लास्टिक सेप्टिक टैंक में डालते हैं और जब ब्लॉक हो जाता है तो किसी न किसी को अंदर जाना पड़ता है। सरकार के पास बारिश के पानी से लेकर तूफान के बाद इकट्ठा जल का संरक्षण तो छोड़िए उसे निकालने की अलग-अलग व्यवस्था तक नहीं है। आखिरकार बारिश और तूफान जैसा शुद्ध पानी भी सीवर या नाले में मिलकर गंदा हो जाता है। इसलिए बारिश के समय अलग परेशानी खड़ी हो जाती है। सरकार अक्सर यह कहकर पल्ला झाड़ लेती है कि मजदूर को हमने नहीं, ठेकेदार ने सीवर में उतारा। पर जब कानून ठेके पर देने को ही अपराध मानता है तो यह कैसे संभव होता है। सीवर में किसी को अंदर भेजने पर मौत होने की स्थिति में उसका मुआवजा कौन देगा। मौत के बाद मुआवजा देने की बात होती है। मगर वह बात से आगे नहीं बढ़ती।

सफाई कर्मचारी आंदोलन के अगस्त 2017 के अध्ययन के मुताबिक पिछले पांच सालों में 1,470 मौतें हुई हैं। इस अवधि में सिर्फ दिल्ली में 74 सफाईकर्मियों की मौतें हुईं। इस दौरान आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार और कांग्रेस की शीला सरकार थी। किसी भी सरकार के कार्यकाल में सफाईकर्मियों के जीवन और कार्यपद्धति में कोई फर्क नहीं होता है। पिछले साल के एक आंकड़े के अनुसार अप्रैल से जुलाई के बीच पूरे देश में 54 सफाई कर्मियों की मौत हुई थी। इसके पीछे सरकार की इच्छाशक्ति जिम्मेदार मानी जाती है। सफाई कर्मियों के आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकारें सिर्फ राजनीति करती हैं और हमारे वोट पाने के लिए बड़े-बड़े घोषणा करती है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले से ही सफाई करते हुए मरने वाले लोगों को 10 लाख मुआवजा देने की बात कर रखी है।

 

‘सफाईकर्मियों को प्रधामंत्री से उम्मीद’

सफाई कर्मचारी आंदोलन के समन्वयक एवं मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन से बातचीत

क्या सफाई कर्मियों के पैर धोने से उनकी समस्या खत्म हो गई?
यह सफाई कर्मियों का मजाक है। प्रधानमंत्री जैसे व्यक्ति को इस समस्या को हल्के में नहीं लेना चाहिए, बल्कि उनसे देशभर के सफाईकर्मियों को उम्मीद है। इस तरह के प्रतीक से चुनावी लाभ तो हो सकता है, मगर हमें कुछ नहीं हासिल होता।

केंद्र सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान चलाया है। इससे सफाईकर्मियों को कितना लाभ हुआ है?

कोई लाभ नहीं हुआ है। सफाई करने वाले आज भी उसी प्रकार गटर या सेप्टिक टैंक की सफाई करते हैं। स्वच्छ भारत अभियान की बात करने वाले लोग इस समस्या पर ज्यादा से ज्यादा सेफ्टी किट, दस्ताने और मास्क उपलब्ध कराने की बात करते हैं, जबकि समस्या के असल समाधान की तरफ कोई भी नहीं बढ़ता। सफाई के लिए मशीनों के इस्तेमाल पर वर्षों से बहस चल रही है पर जमीन पर अधिक बदलाव नहीं हुआ।

सफाई कर्मियों के लिए कानून होने के बावजूद उसे अमल में क्यों नहीं लाया जाता?
मैला ढोने और सीवर श्रमिकों के पुनर्वास और क्षतिपूर्ति की नीतियां भी अधिक सफल नहीं हुई। इस संबंध में पहला कानून 1993 में पारित हुआ, जिसमें केवल सूखे शौचालयों में काम करने को समाप्त किया गया था। फिर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून आया जिसमें सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया। हमने संसद में 16 बार ज्ञापन दिया। हमने न कभी पैसा मांगा न ही कभी कोई पुनर्वास पैकेज मांगा। हमने सिर्फ कानून लागू करने की मांग की। पर कुछ नहीं हुआ। कोर्ट में भी कभी किसी न्यायाधीश ने संज्ञान नहीं लिया, क्योंकि किसी जज की सफाई कर्मचारियों के प्रति संवेदना ही नहीं होती। इसका जवाब तो आंबेडकर दे ही चुके हैं कि संवेदनाएं तो जाति आधारित होती हैं।

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