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दिल्ली दंगों की रिपोर्ट ने दिल्ली पुलिस ,दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार पर उठाए सवाल

दिल्ली में दो साल पहले हुई सांप्रदायिक हिंसा को लेकर उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों की एक कमेटी ने दिल्ली पुलिस ,दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार पर तीखे आरोप लगाने वाली एक रिपोर्ट जारी की है। इसके अलावा इस रिपोर्ट ने मीडिया के भूमिका पर भी सवाल उठाया है। इस रिपोर्ट का नाम अनसर्टन जस्टिस: अ सिटिजन्स कमिटी रिपोर्ट ऑन द नॉर्थ ईस्ट दिल्ली वायलेंस 2020 है। इसमें कहा गया है कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा लोगों की जिंदगी, संपत्ति और कानून के शासन की रक्षा करने की अपनी जिम्मेदारी निभाने से चूक गई। हिंसा को दो साल हो गए लेकिन जवाबदेही का मुद्दा अब भी जस का तस बना हुआ है।

 

दरअसल, साल 2020 में दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाके में सांप्रदायिक दंगे हुए थे जिनमें 53 लोग मारे गए। इसमें में 40 मुसलमान और 13 हिंदू शामिल थे। इस दौरान कई घर, दुकान और धार्मिक स्थलों को भी नुकसान पहुंचा था। इस हिंसा के बाद कई गिरफ्तारियां भी हुई ,जिसमें यूएपीए के तहत कई एक्टिविस्ट को भी गिरफ्तार किया गया था। जिसके बाद देश के केंद्र सरकार और राज्य सरकारों में काम कर चुके पूर्व नौकरशाहों के एक समूह ‘कॉन्स्टिट्यूशनल कंडक्टर ग्रुप(सीसीजी)’ ने अक्टूबर 2020 में इन सांप्रदायिक हिंसा की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच के लिए उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों की एक कमेटी बनाई थी। जिसमें उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मदन लोकुर, दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह, दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस आरएस सोढ़ी, पटना हाईकोर्ट की पूर्व जज जस्टिस अंजना प्रकाश सहित केंद्र सरकार के पूर्व गृह सचिव जी.के पिल्लई आदि लोग इसमें शामिल थे। इस कमेटी सीसीजी को अपनी रिपोर्ट कब सौंपी है। इसकी सार्वजनिक जानकारी नहीं है। लेकिन सीसीजी ने रिपोर्ट 7 अक्टूबर,2022 को सार्वजनिक की है।

171 पन्नों की इस रिपोर्ट को तीन हिस्सों में बांटा गया है। इसमें पहले इस बात की जांच की गई है कि सांप्रदायिक हिंसा से पहले किस तरह से सांप्रदायिक माहौल बनाया गया,दंगों के दौरान क्या हुआ, दिल्ली और सरकार का रोल कैसा रहा है। दूसरे हिस्से में मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका की जांच की गई है कि कैसे उन्होंने हिंसा से ठीक पहले और उसके बाद, अपनी मीडिया रिपोर्ट पेश की है। तीसरे हिस्से में दिल्ली पुलिस की जांच को कानूनी नजरिए से परखा गया है। इसमें यूएपीए कानून लगाने को लेकर सबसे ज्यादा ध्यान दिया गया है। इसके अलावा इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कुछ अन्य सिफारिशें भी की है। इस पर उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने इस रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इस रिपोर्ट को मौजूदा सरकार की ओर से कोई तवज्जो मिलने की कोई उम्मीद नहीं है,लेकिन भविष्य में इतिहासकार और शोधकर्ता इस रिपोर्ट को दिल्ली में 2020 में सचमुच में क्या हुआ था, इसको एक ईमानदार दस्तावेज के तौर पर रेफेरेंस की तरह इस्तेमाल करेंगे। इसके अलावा संजय हेगड़े आगे कहते हैं कि सत्ता के खिलाफ व्यक्ति का संघर्ष भूल जाने के खिलाफ याद रखने का संघर्ष जैसा होता है और यह रिपोर्ट इस बात को सुनिश्चित करती है कि नाइंसाफ़ी को दस्तावेजों में दर्ज किया गया है, उसे भुलाया नहीं गया है।

कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में क्या पाया?

 

सांप्रदायिक हिंसा से ठीक पहले दिसंबर 2019 और जनवरी 2020 में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ माहौल को खराब करने की कोशिश की गई थी। साल 2019 में पारित हुए नागरिकता संशोधन कानून के कारण मुस्लिम समुदाय को इस बात का खौफ हो गया था कि सीएए और एनआरसी के ज़रिए उनकी नागरिकता पर खतरा पैदा किया जा सकता है। दिसंबर,2019 में देश के कई इलाकों में सीएए के विरोध में प्रदर्शन होने लगे जिसमें दिल्ली के कई शहर शामिल थे। इस दौरान दिल्ली के शाहीन बाग सबसे ज्यादा चर्चाओं में रहा था,क्योंकि शाहीन बाग़ विरोध का एक प्रमुख केंद्र बन गया था। इसी बीच दिल्ली विधानसभा चुनाव का घोषणा हुआ,जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने नागरिकता कानून के विरोध प्रदर्शन को अपना चुनाव प्रचार मुख्य मुद्दा बनाया था। यहाँ तक कि भाजपा नेताओ ने इस प्रदर्शन को राष्ट्र विरोधी और हिंसक करार दिया था।भाजपा नेता अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा ने तो प्रदर्शन पर रहे लोगों को खुलेआम देश का ‘गद्दार’ कहा और उन्हें ‘गोली मारने’ का नारा लगाया था। इस दौरान मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बनाए जा रहे माहौल को मीडिया ने भी हवा दी थी।

मीडिया की भूमिका पर सवाल

सांप्रदायिक हिंसा की जांच कर रहे कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में नेशनल न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया पर भी आरोप लगाया है कि उन्होंने सीएए के विरोध में हुए प्रदर्शनों को बदनाम करने और मुसलमानों के खिलाफ नफरत को और हवा दी थी।दिसंबर 2019 से लेकर फरवरी 2020 तक भारत के 6 प्रमुख न्यूज़ चैनलों के प्राइम टाइम शो के 500 से भी ज्यादा घंटे के फुटेज का अध्ययन किया है। इन 6 चैनलों में अंग्रेजी के दो (रिपब्लिक और टाइम्स नाउ) और हिंदी के चार (आज तक, ज़ी न्यूज़, इंडिया टीवी, रिपब्लिक भारत) चैनल शामिल हैं। इसके अलावा कमेटी का रिपोर्ट में कहना है कि,’न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया के विश्लेषण से पता चलता है कि सीएए संबंधित रिपोर्टों को न्यूज़ चैनलों ने मुसलमान और हिंदू के मुद्दे की तरह पेश किया है। मुसलमानों को हमेशा पूर्वाग्रह के साथ और शक की नजर से दिखाया गया। चैनलों ने सीएए विरोध प्रदर्शनों को हमेशा बदनाम किया, आधारहीन साज़िश को हवा दी और उन विरोध प्रदर्शनों को जबरन खत्म कराने की मांग की गई। कमेटी का यह भी दावा है कि नफ़रत ने इस तरह का माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें समाज के एक बड़े हिस्से को मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाया जा सका।

सवालों के घेरे में दिल्ली पुलिस

इस रिपोर्ट ने कानून -व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक,23 फरवरी के दिन और उससे पहले भी राजनेताओं के ज़रिए हेट-स्पीच दिए जाने के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में दिल्ली पुलिस बुरी तरह नाकाम रही है। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में दवा तो यह भी किया है कि इस तरह के कई दस्तावेज़ मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि दिल्ली पुलिस के लोगों ने भीड़ की मदद की और कई जगह मुसलमानों के खिलाफ हमलों में खुद शामिल हुए। इसके अलावा कमेटी ने इन दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका की जांच के लिए कोर्ट की निगरानी में एक स्वतंत्र कमेटी बनाए जाने की सिफारिस की है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय की भूमिका

 

दिल्ली हिंसा की जांच कर रह कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय गृह मंत्रालय पर भी उंगली उठाई है। कमेटी रिपोर्ट में कहा है कि दिल्ली पुलिस और केंद्रीय पैरामिलिट्री बल पर नियंत्रण होने के बावजूद केंद्रीय गृह मंत्रालय सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाने में नाकाम रहा है। पुलिस और सरकार के उच्च अधिकारियों ने 24 और 25 फरवरी को बार-बार यह विश्वास दिलाया था कि स्थिति नियंत्रण में है लेकिन इसके बावजूद जमीन पर हिंसा होती रही थी।

दिल्ली सरकार पर भी आरोप

 

दिल्ली हिंसा की जांच कर रही कमेटी ने दिल्ली की केजरीवाल सरकार पर भी गंभीर आरोप लगाए गए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस दौरान दोनों समुदायों के बीच मध्यस्थता की कोई कोशिश नहीं की गई ,हालांकि 23 फ़रवरी से पहले ही हालात के खतरनाक होने के साफ संकेत मिल रहे थे। हिंसा के कुछ ही दिन पहले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भारी बहुमत के साथ जीतकर आए थे लेकिन दंगों के दौरान वो अप्रभावी और असहाय से देखे थे।कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में दंगा प्रभावित लोगों को राहत पहुँचाने के मामले में भी केजरीवाल सरकार पर सख्त टिप्पणी की है। आम आदमी पार्टी या केजरीवाल सरकार ने अभी तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। पार्टी का पक्ष जानने के लिए विधायक सौरभ भारद्वाज से संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन उनका कोई जवाब नहीं आया है। दिल्ली सरकार का पक्ष मिलते ही कॉपी में अपडेट कर दिया जाएगा।

दिल्ली पुलिस और दंगों की जांच

 

इस रिपोर्ट में दंगों के बाद दर्ज हुए केस की जांच को लेकर दिल्ली पुलिस पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। दिल्ली के अलग-अलग थानों में इन दंगों से जुड़े क़रीब साढ़े सात सौ केस दर्ज किए गए थे। पुलिस ने 1700 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार भी किया था।कमेटी का कहना है कि पुलिस ने उन लोगों की कोई जांच नहीं की उन्होंने दंगों से पहले हेट-स्पीच दी और लोगों को हिंसा के लिए उकसाया गया था। कमेटी ने यूएपीए के तहत दर्ज किए मामलों और आईपीसी की धाराओं के तहत दर्ज किए गए मामलों का अलग-अलग अध्ययन किया है।दिल्ली पुलिस ने अदालत में जो चार्जशीट दाखिल की है उसमें दंगों के लिए एक सुनियोजित साज़िश का ज़िक्र किया है, लेकिन कमेटी का कहना है कि पुलिस ने जो आरोप लगाए हैं वो सब बाद में दिए गए बयानों पर आधारित हैं और उनमें कई विरोधाभास और अनियमितता हैं। कमेटी के अनुसार कानून के नजरिए से देखा जाए तो उन पर भरोसा करना मुश्किल है। कमेटी का तो यह भी कहना है कि दिल्ली पुलिस का यह आरोप बहुत ही हास्यास्पद है कि सीएए का विरोध करने वालों ने दंगों के लिए साज़िश रची जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों और सीएए का विरोध करने वालों का ही हुआ है। कमेटी यह भी मानती है कि पुलिस ने जानबूझकर कुछ लोगों को निशाना बनाते हुए उन पर यूएपीए की धारा लगाई है जबकि ऐसा कोई सबूत नहीं है कि यह कोई आतंकवादी गतिविधि थी जिससे देश की अखंडता और सार्वभौमिकता को कोई खतरा हो। कमेटी का कहना है कि यूएपीए मामले में ज्यादातर लोग आखिरकार अदालत से बरी हो जाते हैं लेकिन इस बीच उन्हें बेल नहीं मिलती और कई साल जेल में गुजारने पड़ते हैं। कमेटी के अनुसार इन मामलों में क़ानूनी प्रक्रिया ही अपने आप में सज़ा हो जाती है। कमेटी ने यूएपीए कानून की समग्र समीक्षा की सिफारिश की है। कमेटी ने दिल्ली दंगों की निष्पक्ष जांच के लिए एक स्वतंत्र जांच आयोग के गठन की सिफारिश की है और यह भी कहा है कि जांच आयोग का अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिनकी निष्पक्षता और योग्यता पर दंगा पीड़ितों को पूर्ण विश्वास हो।

अदालत ने भी दिल्ली पुलिस की जांच पर उठाए हैं सवाल

 

दंगों के बाद जब मामला अदालत में पहुँचा, उस दौरान ऐसे कई मौके आए जब अदालतों ने दिल्ली पुलिस पर सख्त टिप्पणी की और उनकी जांच के स्तर को खराब करार दिया दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट के जज रहे जस्टिस एस मुरलीधर, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव, और दिल्ली के चीफ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट अरुण कुमार गर्ग कई बार सुनवाई के दौरान दिल्ली पुलिस को चेतावनी दे चुके हैं। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने तो एक मामले की सुनवाई के बाद दिल्ली पुलिस पर 25 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया था।

दिल्ली पुलिस का क्या कहना है?

दिल्ली पुलिस की प्रवक्ता सुमन नालवा ने कहा कि यह मामला अदालत के समक्ष है इसलिए वो इस पर कोई भी टिप्पणी नहीं करना चाहेंगी।लेकिन इससे पहले जब कभी भी दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे हैं, दिल्ली पुलिस ने तमाम आरोपों को खारिज किया है। दिल्ली पुलिस का कहना है कि उसने वीडियो एनालिटिक्स से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों की मदद से इन मामलों की जांच की है। लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी संसद में दिल्ली पुलिस के काम की सराहना कर चुके हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने 11 मार्च 2020 को संसद में दिल्ली के दंगों को “एक बड़ी सुनियोजित साजिश का हिस्सा ‘बताते हुए दिल्ली पुलिस के बारे में कहा था कि उन्होंने सराहनीय काम करते हुए दंगों को 36 घंटे के भीतर काबू में कर लिया था।

 

गौरतलब है कि दिल्ली हिंसा को लेकर इससे पहले भी कई रिपोर्ट आ चुकी है। इसको लेकर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की ओर से गठित एक कमेटी ने जुलाई 2020 में एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें उच्चतम न्यायालय के वकील एमआर शमशाद कमेटी के चेयरमैन थे जबकि गुरमिंदर सिंह मथारू, तहमीना अरोड़ा, तनवीर काजी, प्रोफेसर हसीना हाशिया, अबु बकर सब्बाक़, सलीम बेग, देविका प्रसाद और अदिति दत्ता कमेटी के सदस्य थे। इस कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि दिल्ली पुलिस की भूमिका बहुत खराब थी। उन्होंने भी हाईकोर्ट के किसी रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक जांच आयोग के गठन की सिफारिश की थी। ‘देल्ही रॉयल्स 2020: अ रिपोर्ट फ्रॉम ग्राउंड ज़ीरो – द शाहीन बाग़ मॉडल इन नॉर्थ-ईस्ट देल्ही: फ्रॉम धरना टू दंगा। साल 2020 में बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों के एक समूह (जीआईए) ने 48 पन्नों की एक रिपोर्ट जारी की थी। इस समूह में उच्चतम न्यायालय की वकील मोनिका अरोड़ा भी थीं। इस रिपोर्ट में दिल्ली दंगों के लिए ‘अर्बन-नक्सल-जिहादी नेटवर्क’ को जिम्मेदार ठहराया गया था।

इसके अलावा कॉल फॉर जस्टिस (सीएफ़जे) नामक एक समूह ने मई 2020 में दिल्ली दंगों पर एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट का नाम था, ‘दिल्ली दंगे: साज़िश का पर्दाफाश’ था। 70 पन्नों की इस रिपोर्ट को बॉम्बे हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज, जस्टिस अम्बादास के नेतृत्व वाली एक छह सदस्यीय कमेटी ने तैयार किया था. कमेटी ने इस रिपोर्ट को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को भी सौंपी थी। जीआईए और सीएफ़जे दोनों रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘राष्ट्रविरोधी, चरमपंथी इस्लामिक समूहों और अन्य आतंकवादी समूहों’ ने मिलकर एक साज़िश रची और एक पूर्व नियोजित और संगठित तरीके से हिंदू समुदाय को निशाना बनाकर हमला किया गया।

 

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