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फैसले जो बन गए नजीर

अदालतों में देश की जनता की यदि आस्था है, तो इसकी ठोस वजह भी है। हाल में अदालतों ने कुछ ऐसे अहम फैसले लिये, कुछ ऐसी सटीक टिप्पणियां की जिनसे सरकारों को सोचना पड़ेगा कि आखिर जनहित के अहम फैसले कैसे लिए जा सकते हैं। अदालत ने केंद्र एवं दिल्ली सरकार को साफ किया कि सड़कों पर भिखारियों को नहीं आने की इजाजत देने के मामले में वह अभिजात्यवादी नजरिया नहीं अपनाएंगी। इन दिनों राजद्रोह कानून काफी चर्चा में रहा। यह अंग्रेजों के जमाने का बना कानून है। इस पर देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इसे खत्म क्यों नहीं करते? दो समानांतर कानूनी प्रणालियों पर भी उच्चतम न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि भारत में अमीर, संसाधनों से युक्त और राजनीतिक रूप से ताकतवर लोगों तथा न्याय तक पहुंच न रखने वाले एवं संसाधनों से वंचित छोटे लोगों के लिए दो समानांतर कानूनी प्रणालियां नहीं हो सकती

हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जनहित में न सिर्फ अहम फैसले लिए, बल्कि ऐसी टिप्पणियां भी की जो भारतीय राजव्यवस्था के लिए एक नजीर बनकर उभरे हैं। अदालतों ने जो निर्णय व टिप्पणियां की उस दिशा में सरकारों को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानकर पहले ही काम कर लेना था, लेकिन राजनीतिक खेमबाजी में उलझे नेता जब यह काम न कर सके तो भारतीय न्यायपालिका ने एक्शन लेकर उनके समक्ष एक मिसाल पेश की और साथ ही यह संदेश भी दिया कि देशहित में पफैसले कैसे लिये जाते हैं?

बीते दिनों देश ने शीर्ष अदालत के राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) की प्रवेश परीक्षा में लड़कियों को शामिल किये जाने का ऐतिहासिक फैसला दिया। इससे पूर्व भी सेना में महिलाओं को कमीशन अदालत के हस्तक्षेप के बाद ही मिल पाया था। अदालत ने कहा कि महिलाएं एनडीए के जरिए क्यों नहीं सेना में शामिल हो सकती हैं? सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम टिप्पणी करते हुए कहा कि यह सिर्फ लैंगिक सिद्वांतत का मामला नहीं, बल्कि भेदभाव का मामला है। महिला अध्किारियों को लड़ाकू भूमिकाएं दी जा रही हैं तो फिर इसमें क्यों नहीं? उल्लेखनीय है कि अभी तक एनडीए एवं आईएनए महिला कैडेट की भर्ती नहीं करती थी। जबकि यहां प्रवेश पाने की मांग लंबे समय की जाती रही है। आज तक भेदभाव का यह कार्य समानता के सांविधानिक मूल्यों के खिलाफ था। आज भी सेना को पुरुषों का काम माना जाता है। उन महिलाओं को सेना में आने से नहीं रोका जा सकता जिनकी इच्छा सेना में आने की हो। सेना में महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं को आगे आने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। दूसरा मामला भिखारियों के पुर्नवास का है। अदालत ने केंद्र एवं दिल्ली सरकार को साफ किया कि सड़कों पर भिखारियों को नहीं आने की इजाजत देने के मामले में वह अभिजात्यवादी नजरिया नहीं अपनाएगा। न्यायालय ने यह साफ किया कि भिक्षावृत्ति एक सामाजिक-राजनीतिक समस्या है और शिक्षा व रोजगार की कमी के कारण आजीविका की कुछ बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए लोग सड़कों पर भीख मांगने के लिए मजबूर होते हैं।

इन दिनों राजद्रोह कानून काफी चर्चा में रहा। यह अंग्रेजों के जमाने का बना कानून है। इस पर देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इसे खत्म क्यों नहीं करते? सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि अंग्रेजों ने महात्मा गांधी, गोखले और अन्य को चुप कराने के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया था। हमें नहीं पता कि इसे खत्म करने के लिए सरकार निर्णय क्यों नहीं ले रही है। अभी तक 151 वर्ष पुराने इस कानून पर कोई जवाबदेही तय नहीं की गई है। आजाद भारत में पिछले 75 वर्षों से यह कानून ज्यों का त्यों है। कोर्ट ने कहा कि इस कानून को अभी तक समाप्त क्यों नहीं किया गया। आजादी के 75 वर्ष बाद भी इसे बनाए रखना क्या जरूरी है? वहीं दो समानांतर कानूनी प्रणालियों पर भी उच्चतम न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया था। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि भारत में अमीर, संसाधनों से युक्त और राजनीतिक रूप से ताकतवर लोगों और न्याय तक पहुंच न रखने वाले एवं संसाधनों से वंचित छोटे लोगों के लिए दो समानांतर कानूनी प्रणालियां नहीं हो सकती। कोर्ट ने कहा, एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका लोकतंत्र का आधार है और इस पर किसी प्रकार का राजनीतिक दबाव नहीं होना चाहिए। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि दोहरी व्यवस्था की मौजूदगी कानून की वैधता को ही खत्म कर देगी। यह टिप्पणी न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ एवं न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने कांग्रेस नेता देवेंद्र चौरसिया की हत्या के मामले में मध्य प्रदेश की बसपा विधायक के पति को दी गई जमानत खारिज करते हुए कही थी। अदालत ने कहा कि निचली अदालतों के न्यायाधीश भयावह परिस्थितियों, बुनियादी ढांचे की कमी, अपर्याप्त सुरक्षा में काम करते हैं। स्थानांतरण-पदस्थापना के लिए उच्च न्यायालयों के प्रशासन की अधीनता उन्हें कमजोर बनाती है। अगर न्यायपालिका में नागरिकों का विश्वास कायम करना है, तो जिला न्यायपालिका पर ध्यान देना होगा।

अभी कर्नाटक के बेंगलरू की एक अदालत ने पूर्व प्रधनमंत्री एचडी देवगोड़ा पर 2 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया। ज्ञात हो कि एक दशक पूर्व उन्होंने एक टेलीविजन इंटरव्यू में नंदी इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर इंटरप्राइजेज (एनआईसीई) के खिलाफ अपमानजनक बयानबाजी की थी। इस फैसले से आमजन तक यह बात पहुंची कि भले ही व्यक्ति कितना भी प्रभावशाली एवं ताकतवर क्यों न हो, लेकिन उसे अनर्गल बयानबाजी की कानूनी छूट नहीं है। मद्रास हाईकोर्ट ने सीबीआई को पिंजड़े से मुक्त करने को कहा है उसने देश की इस अग्रणी संस्था को ‘तोते’ की उपाधि तक दे डाली। पूर्व में भी अदालतें जनहित में कई आदेश दे चुकी हैं। साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम मशीन में नोटा का विकल्प दिए जाने का आदेश दिया था। आदेश के मुताबिक अगर कोई मतदाता अपने निर्वाचन क्षेत्र में किसी प्रत्याशी को पंसद नहीं करता तो वह नोटा का विकल्प चुन सकता है। वर्ष 2017 में
सर्वोच्च अदालत ने निजता के अधिकार को भारत के संविधान के तहत मौलिक अधिकार घोषित किया। पूर्व में नैनीताल हाईकोर्ट ने नदियों को विधिक व्यक्तित्व का दर्जा दिया था। इसका मकसद उनके अधिकारों को सुरक्षित एवं संरक्षित करना था। अदालत ने कहा था कि नदी का अधिकार उसकी निर्मलता एवं अविरलता में है। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति के अपराधीकरण से जुड़े एक मामले में फैसला देते हुए कहा अगर किसी उम्मीदवार पर कोई आपराधिक मुकदमा दर्ज है या फिर वह किसी मामले में आरोपी है तो राजनीतिक दलों को 48 घंटे के भीतर उस जानकारी को सार्वजनिक करना होगा। चयनित उम्मीदवारों का आपराधिक इतिहास भी प्रकाशित करना होगा। यही नहीं देशभर के थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश, आरक्षण के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं मानना, कोरोना टेस्ट को फ्री करने जैसे अहम फैसले न्यायालयों ने दिए। राइट टू हेल्थ को मौलिक अधिकार बताते हुए अदालत ने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 इसकी गारंटी देता है। बेटी को अपने पैतृक संपत्ति में बेटे के बराबर अधिकार देने का फैसला हो या फिर मानवीय लिबर्टी को बहुमूल्य संवैधानिक अधिकार मानना के साथ ही अदालत का यह भी कहना कि शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन का अधिकार संवैधानिक अधिकार है लेकिन पब्लिक रोड पर कब्जा कर सड़कों पर चलने वालों के अधिकारों की रक्षा का यह उल्लंघन करता है।

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