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पुण्यतिथि विशेष : अटल बिहारी वाजपेयी का साहित्यिक पक्ष

अटल बिहारी वाजपेयी

अटल बिहारी वाजपेयी, भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के उदारवादी चेहरा रहे और एक लोकप्रिय जननेता के तौर पर पहचाने गए।साथ ही उनकी एक छवि उनके साहित्यिक पक्ष से भी जुड़ी है। अटल बिहारी वाजपेयी एक माने हुए कवि हैं, उनकी कविता ‘हार नहीं मानूँगा……’ आज भी कई कवि सम्मेलनों का हिस्सा बनती है।उन्होंने अपने जीवन काल में कई कविताएं लिखीं और समय-दर-समय उन्हें संसद और दूसरे मंचों से पढ़ा भी।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihar Vajpayee )की यह पहचान जो उनके साहित्यिक पक्ष को बेबाक़ी से उजागर करती है उसमें उनके कविताओं का खास स्थान है। उनका कविता संग्रह ‘मेरी इक्वावन कविताएं’ उनके समर्थकों में खासा लोकप्रिय है। पेश है उनकी चुनिंदा कविताएं।
1: दो अनुभूतियां
-पहली अनुभूति
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
-दूसरी अनुभूति
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
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कवि 
2. दूध में दरार पड़ गई
खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया.
बंट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई.
दूध में दरार पड़ गई.
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है.
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई.
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता.
बात बनाएं, बिगड़ गई.
दूध में दरार पड़ गई.
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3. कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.
———————-
कवि 
4. मनाली मत जइयो
मनाली मत जइयो, गोरी
राजा के राज में.
जइयो तो जइयो,
उड़िके मत जइयो,
अधर में लटकीहौ,
वायुदूत के जहाज़ में.
जइयो तो जइयो,
सन्देसा न पइयो,
टेलिफोन बिगड़े हैं,
मिर्धा महाराज में.
जइयो तो जइयो,
मशाल ले के जइयो,
बिजुरी भइ बैरिन
अंधेरिया रात में.
जइयो तो जइयो,
त्रिशूल बांध जइयो,
मिलेंगे ख़ालिस्तानी,
राजीव के राज में.
मनाली तो जइहो.
सुरग सुख पइहों.
दुख नीको लागे, मोहे
राजा के राज में.
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5. एक बरस बीत गया
झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
एक जगह अटल बिहारी वाजपेयी  खुद अपने कवि हृदय के बारे में कहा करते थे कि कविता मुझे घुट्टी में मिली थी। अटल जी के अनुसार मेरे पितामह संस्कृत भाषा तथा साहित्य के अच्छे विद्वान थे। घर की एक बैठक पुरानी पोथियों से भरी हुई थी। वे जहां जाते वहां से अच्छी-अच्छी पुस्तकें ले आते थे। ज्योतिष का उनका गहरा अध्ययन था। दूर दूर से लोग उन्हें जन्मपत्रियां दिखाने के लिए लाते थे।
पिताजी कृष्ण बिहारी वाजपेयी बटेश्वर से आकर ग्वालियर में बस गए थे। उन्होंने बदलते हुए वक्त को देखकर अंग्रेजी का पठन प्रारम्भ किया। खड़ीबोली के साथ ब्रजभाषा में लिखी उनकी कविताएं और सवैये काफी पसंद किए जाते थे। बटेश्वर से ग्वालियर पहुँचकर साहित्य के लिए बड़ा क्षेत्र प्राप्त हुआ। रियासत के मुखपत्र ‘जीयाजी प्रताप’ में उनकी कविताएँ नियमित रूप से छपती थीं।
“मेरे पिता मेरी अंगुली पकड़कर मुझे आर्य समाज के वार्षिकोत्सव में ले जाते थे…” – अटल बिहारी वाजपेयी
मुझे यह बात अभी तक अच्छी तरह से याद है कि  मेरे पिताश्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी मेरी अंगुली पकड़कर मुझे आर्य समाज के वार्षिकोत्सव में ले जाते थे। उपदेशकों के सस्वर भजन मुझे अच्छे लगते थे। आर्य विद्वानों के उपदेश मुझे प्रभावित करने लगे थे। भजनों और उपदेशों के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम की बातें भी सुनने को मिलती थी। क्या यह एक संयोग मात्र था ? क्या इसके पीछे कोई विधान था ? घर में साहित्य प्रेम का वातावरण था। मैंने भी तुकबंदी शुरू कर दी। मुझे याद है कि मेरी पहली कविता ‘ताजमहल’ कुछ इस तरह थी-
ताजमहल, यह ताजमहल,
कैसा सुंदर अति सुंदरतर।
किंतु ताजमहल पर लिखी गई यह कविता केवल उसके सौंदर्य तक ही सीमित नहीं थी। कविता उन कारीगरों की व्यथा तक पहुंच गई थी, जिन्होंने पसीना बहाकर जीवन खपाकर ताजमहल का निर्माण किया था। कविता की अंतिम पंक्तियां मुझे अभी तक याद हैं-
जब रोया हिंदुस्तान सकल,
तब बन पाया यह ताजमहल।

एक ओजस्वी कवि

निश्चय ही उन दिनों मुझे आर्य विद्वानों के साथ-साथ कम्युनिस्ट क्रांति प्रभावित करने लगी थी। आज जब भी मैं उन दिनों की बात सोचता हूं तो अपने अधकचरे मन की तस्वीर मेरे सामने खड़ी हो जाती है। मुख्य रूप से मैंने देशभक्ति(patriotic) से परिपूर्ण कविताएं लिखी थीं। कवि सम्मेलनों में उनकी मांग थी। लोग उन्हें पसंद करते थे। वीर रस की कविताएं पसंद की जाती थीं। कविता के साथ उन दिनों नौजवानों में वक्तृत्व कला की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं। ओजस्वी कवि श्रोताओं द्वारा पसंद किए जाते थे। आजादी के आंदोलन से ऐसे नौजवानों को प्रेरणा मिलती थी।
यह उन दिनों की बात है जब मैं विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर में पढ़ा करता था। पढ़ाई-लिखाई के साथ साहित्य में भी मेरी रुचि थी। मैं कॉलेज में छात्र संघ का पहला प्रधानमंत्री और फिर उपाध्यक्ष चुना गया था। अध्यक्ष उन दिनों कोई प्रोफेसर हुआ करता था। छात्र संघ की जिम्मेदारी थी कि वह वार्षिक उत्सव का आयोजन करे।

निरालाजी को आमंत्रित किया जाए……

मुझे याद है कि छात्र संघ ने एक साल कॉलेज में कवि सम्मेलन करने का फैसला किया। ग्वालियर से बाहर के कवि भी आमंत्रित किए गए थे। यह तय हुआ कि कॉलेज के वार्षिक समारोह में महाकवि निरालाजी को आमंत्रित किया जाए। उन दिनों महादेवी वर्मा तथा सुमित्रानंदन पंत की बड़ी धूम थी। निरालाजी को आमंत्रित करने का काम प्रो. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shiv mangal singh ‘suman’) को सौंपा गया। कॉलेज के लिए यह बड़े गौरव का दिन था।
कवि 

निराला जी के लिए अलग से एक कंबल का प्रबंध किया..

जब हम निरालाजी को रेलवे स्टेशन से उनके ठहरने की जगह ले जा रहे थे, एक ऐसी घटना हुई जो जीवन भर प्रभावित करती रही। हुआ यह कि जब तांगा उस सड़क से निकला जिसपर महारानी लक्ष्मीबाई(Maharani Laxmi Bai) स्मृति चिह्न बना हुआ था, तो निरालाजी ने उस वीरांगना को नमन करने के लिए तांगा थोड़ी देर रुकवा लिया। उनकी नजर लक्ष्मीबाई के स्मारक के निकट बैठी एक निर्धन महिला पर गई। वह महिला सर्दी से अपने को बचाने के प्रयास में लगी थी। जैसे ही निरालाजी की नजर उस महिला के ऊपर गई, तो महाकवि ने अपना कंबल उतारकर उस महिला को ओढ़ा दिया। हम सब यह देखकर दंग रह गए।
निरालाजी (suryakant tripathi ‘nirala’)के महान व्यक्तित्व की एक छोटी सी झलक पाकर हम लोग भाव-विभोर हो गए। घर पहुंचने पर हमने निराला जी के लिए अलग से एक कंबल का प्रबंध किया। लेकिन निरालाजी द्वारा सर्दी से ठिठुरती हुई महिला को कंबल देने की घटना हमारे मानस-पटल पर सदैव के लिए अंकित हो गई।
वर्ष  2014 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को जन्मदिन का बेशकीमती तोहफा मिला। यह तोहफा था देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किए जाने का ऐलान। राष्ट्रपति के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से जैसे ही यह सूचना साझा की गई, उनके प्रशंसकों में खुशी की लहर दौड़ गई।और यह वाक़ई गौरवान्वित क्षण था।

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