राज्यों में मुख्यमंत्रियों को बदलकर भाजपा ने संदेश दिया है कि जो काम नहीं करेगा, उसे जाना पड़ेगा। अब देखना है कि पार्टी का यह दांव कितना कारगर साबित हो पाएगा
राजनीति में चुनावी सफलता के लिए पार्टियां हर दांव-पेंच आजमाने की कोशिशें करती हैं। भारतीय जनता पार्टी भी इन दिनों राज्यों में ‘डैमेज कंट्रोल का दांव’ चल रही है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक जहां कहीं भी पार्टी को लग रहा है कि सत्ताधारी नेतृत्व से खफा जनता का आक्रोश भविष्य में महंगा पड़ सकता है, वहां पार्टी मुख्यमंत्रियों को बदल रही है। बात सिर्फ किसी मुख्यमंत्री को हटाने की नहीं है, बल्कि इसमें यह भी ध्यान रखा जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनावों की दृष्टि से जातीय, क्षेत्रीय एवं धार्मिक समीकरणों को कैसे बेहतर ढंग से साधा जा सकता है। गुजरात का उदाहरण सबसे ताजा है, वहां भाजपा को लगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में जनता उलट- फेर कर सकती है, तो चुनाव से सवा साल पहले नेतृत्व बदल दिया गया। राज्य की कमान पाटीदार समाज के विधायक को सौंपने का यही अर्थ निकाला जा रहा है कि पार्टी की चिंता आगामी विधानसभा चुनाव की है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक राज्य की 70 विधानसभा सीटों पर पाटीदारों के वोट निर्णायक होते हैं। ऐसे में कांग्रेस हार्दिक पटेल को आगे करना चाह रही थी। स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने विजय रुपाणी को हटाकर भूपेंद्र पटेल की ताजपोशी कर दी। पटेल एकदम नए विधायक हैं। उन्हें कमान देकर पार्टी ने एक तो रुपाणी सरकार के खिलाफ जनता में उपजे आक्रोश पर पानी डालने का काम किया और दूसरी तरफ पाटीदारों को लुभाने की भी रणनीति अपनाई है। यानी एक तीर से दो निशाने साध दिए। भाजपा आलाकमान ने गुजरात में रूपाणी मंत्रिमंडल के सभी मंत्रियों हटाकर एक नई परंपरा को तो जन्मा ही है, बड़ा जुआ भी खेलने का दुस्साहस किया है। नितिन पटेल सरीखे दिग्गजों को बाहर का रास्ता दिखाकर उसने ऐसा जोखिमभरा कदम उठाया है जो आने वाले समय में दो धारी साबित हो सकता है।
दरअसल, भाजपा के रणनीतिकारों को अहसास है कि इससे पहले कि वो घाव नासूर बने, उसका समय रहते इलाज कर दिया जाए। अतीत के कटु अनुभव वे देख ही चुके हैं। वर्ष 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले झारखंड में भाजपा के भीतर रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग जोर पकड़ती रही। रघुबर दास के व्यवहार और कार्यशैली से आहत पार्टी के स्थानीय नेताओं ने शीर्ष नेतृत्व से शिकायतें की थीं। यहां तक कहा गया कि रघुबर के नेतृत्व में चुनाव में जाना खतरे से खाली नहीं होगा। लेकिन पार्टी नेतृत्व ने इन शिकायतों को नजरअंदाज करते हुए रघुबर दास के ही नेतृत्व में चुनाव में जाना पसंद किया। नतीजा यह हुआ कि विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद का चेहरा रहे रघुबर दास खुद पार्टी के बागी सरयू राय से तो हारे ही, भाजपा भी सत्ता गंवा बैठी। इस प्रकार पार्टी को स्थानीय नेताओं के सटीक फीडबैक को नजरअंदाज करना भारी पड़ा था।
झारखंड की चूक के बाद दूसरे किसी राज्य में खतरे की घंटी बजते ही पार्टी एक्शन मोड में आ जाती है। असम में जब सर्बानंद सोनोवाल सफल होते नहीं दिखे तो पार्टी ने अपेक्षाकृत
लोकप्रिय और हार्डलाइनर माने जाने वाले हिमंता बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया। इसी तरह उत्तराखण्ड में स्थानीय नेताओं के फीडबैक के आधार पर भाजपा को यह भनक लग गई कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के चेहरे पर पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव में सफलता हासिल नहीं कर सकती, तो आलाकमान ने बिना समय गंवाए उन्हें हटाने का निर्णय ले लिया। इसके बाद मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत को भी बहुत कम समय में ही हटना पड़ा। यह अलग बात है कि तीरथ सिंह रावत को बदलने का कारण संवैधानिक संकट बताया गया, लेकिन जानकार मानते हैं कि राज्य के तमाम चुनावी समीकरणों को साधना इसकी बड़ी वजह रही।
जुलाई में कर्नाटक में भी नेतृत्व परिवर्तन हुआ। हालांकि यहां लोकप्रियता या परफॉरमेंस को आधार बनाने की जगह उम्र के पैमाने पर 78 वर्षीय बीएस येदियुरप्पा की विदाई की पटकथा पार्टी ने लिखी। अब हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में भी मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चाएं सियासी गलियारों से उठने लगी हैं। जानकार मानते हैं कि कहीं कोई धुआं तब ही उठता है जब वहां आग लगी हो। खास बात यह है कि मुख्यमंत्री बदलते वक्त भाजपा राज्यों की परंपरागत राजनीति का भी ध्यान रखती जा रही है, मसलन अब उसे महसूस होने लगा है कि गुजरात में रूपाणी कोई चमत्कार नहीं कर सकते वहां किसी पाटीदार को आगे करना ही सुरक्षित रहेगा।
बहराल इस वक्त गुजरात की चर्चा सबसे ज्यादा है। गुजरात को लेकर एक सवाल यह उठ रहा है कि अगर पाटीदार को ही मुख्यमंत्री बनाना था, तो सबसे मजबूत चेहरे उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल में आखिर कमी क्या थी? उम्र और राजनीतिक अनुभव दोनों पैमानों पर वह भूपेंद्र पटेल से कहीं आगे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साथ कई गोल किए हैं। भाजपा ने पहला संदेश यह दे दिया कि उसके लिए परंपरागत पाटीदार मतदाता सर्वाेपरि हैं और दूसरा संदेश यह कि पार्टी किसी जातीय क्षत्रप विशेष के दबाव में भी नहीं आने वाली है। पार्टी की राजनीति अब मुट्ठी भर चेहरों के इर्द- गिर्द सिमटकर नहीं रहने वाली। मुख्यमंत्री बनने की रेस से कोसों दूर सिर्फ एक बार के विधायक भूपेंद्र पटेल के मुख्यमंत्री बनने से जमीनी नेताओं में भी यह संदेश गया कि पार्टी के लिए समर्पित भाव से कार्य करने पर वह भी एक दिन सीएम बन सकते हैं।
राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन का एक बड़ा कारण यह भी है कि गृहमंत्री अमित शाह कई अवसरों पर कह चुके हैं कि जनता ‘पॉलिटिक्स ऑफ परफॉरमेंस’ चाहती है। केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद इसका दौर शुरू हुआ है। ठीक इसी तर्ज पर चुनावी रैलियों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘नामदार बनाम कामदार’ का नारा भी उछाल चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की इन बातों से साफ संकेत मिलते रहे हैं कि अब केवल नाम के सहारे लंबी राजनीति नहीं चलने वाली, बल्कि परफार्मर यानी कामदार बनना होगा। भूपेंद्र पटेल नामदार नहीं हैं, लेकिन उन्होंने कार्र्यों से अपनी पहचान जरूर बनाई है। अहमदाबाद शहरी विकास प्राधिकरण के मुखिया के तौर पर कुछ उल्लेखनीय कार्य किए हैं। नगर निकायों से उनका जुड़ाव रहा है। पटेल समाज की महत्वपूर्ण संस्थाओं सरदार धाम और विश्व उमिया फाउंडेशन में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। भूपेंद्र लो-प्रोफाइल जरूर हैं, लेकिन जमीनी नेता हैं। वह 2017 के विधानसभा चुनाव में 1 .17 लाख वोटों से जीतकर आए हैं।
मोदी-शाह की जोड़ी की पॉलिटिक्स ऑफ परफॉरमेंस के पैमाने पर विजय रूपाणी खरे नहीं उतर सके। उत्तराखण्ड में तो त्रिवेंद्र रावत के खिलाफ निरंतर जनता का आक्रोश फूटता रहा। विकास के मायने में त्रिवेंद्र पर फिसड्डी मुख्यमंत्री होने के आरोप लगते रहे। ऐसे में मुख्यमंत्रियों को बदलकर भाजपा ने डैमेज कंट्रोल का दांव चला है। अब देखना है कि राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में यह दांव कितना कारगर साबित हो पाता है।