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निर्दलियों के हाथ में ताज!

हिमाचल चुनाव में हुई बंपर वोटिंग के मिले-जुले संकेत मिल रहे हैं। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि हाई वोटिंग विपक्ष के लिए और कम मतदान सत्ता पक्ष के लिए अच्छा होता है। आयोग के आंकड़ों पर गौर करें तो सबसे कम वोटिंग वाली 10 में से 9 सीटों पर भाजपा के सिटिंग विधायक हैं। वोटिंग के इस पैटर्न ने राजनीतिक जानकारों के गणित को भी गड़बड़ा दिया है। ऐसी स्थिति में जानकार मानते हैं कि किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलाना मुश्किल है क्योंकि जिस तरह से बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती बागियों की रही उसे देख कहा जा सकता है कि जिसे निर्दलियों का साथ मिलेगा उसकी सरकार बनेगी

हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हुई बंपर वोटिंग ने पिछले सभी चुनावों के रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं। प्रदेश में इस बार कुल 75.6 प्रतिशत मतदान हुआ है। इस आंकड़े में और बढ़ोतरी की उम्मीद है क्योंकि डाक मतपत्र अब भी प्राप्त हो रहे हैं। राज्य चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार ईवीएम के माध्यम से मतदान प्रतिशत 74.60 था। लगभग दो प्रतिशत डाक मतपत्र अभी प्राप्त नहीं हुए हैं। वोटिंग का आंकड़ा 77 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद है। इस बार कुल महिला मतदाताओं में से 76.8 फीसद जबकि पुरुषों में से 72.4 प्रतिशत ने मताधिकार का प्रयोग किया।

इससे पहले हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक मतदान वर्ष 2017 में 75.57 प्रतिशत दर्ज किया गया था। वर्ष 2012 के चुनाव में मत प्रतिशत 73.5 फीसदी था। 2007 के चुनाव में 71.61, 2003 में 74.51 फीसदी और 1998 में 71.23 फीसदी रहा था। मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने बताया कि इस बार के विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक 85.25 प्रतिशत मतदान दून विधानसभा क्षेत्र में जबकि सबसे कम मतदान 62.53 प्रतिशत शिमला विधानसभा सीट पर दर्ज किया गया।

चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, सोलन जिले में सबसे अधिक 76.82 फीसदी मतदान प्रतिशत दर्ज किया गया। ऊना और कुल्लू जिले में भी सोलन की तरह खूब वोटिंग हुई है जहां क्रमशः 76.69 प्रतिशत और 76.15 फीसदी मतदान हुआ। जबकि राज्य की राजधानी शिमला में 69.88 फीसदी मतदान हुआ है।

राज्य चुनाव अधिकारी के मुताबिक राज्य चुनाव विभाग ने इस विधानसभा चुनाव में 2017 के चुनाव में कम मतदान वाले 11 निर्वाचन क्षेत्रों पर बहुत ध्यान दिया। राज्य चुनाव विभाग की ओर से मतदाताओं को जागरूक करने के लिए कई कार्यक्रमों का संचालन किया। विभाग की ओर से विशेष रूप से राज्य के कम मतदान प्रतिशतता वाले 11 विधानसभा क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया। इन निर्वाचन क्षेत्रों में शामिल धर्मपुर, जयसिंहपुर, शिमला, बैजनाथ, भोरंज, सोलन, कसुम्पती, सरकाघाट, जसवां प्रागपुर, हमीरपुर और बड़सर के तुलनात्मक विश्लेषण से पता चला कि उपरोक्त 11 में से 9 सीटों पर मतदान में 7 प्रतिशत का सुधार हुआ है।

धर्मपुर में 2017 के विधानसभा चुनाव में 63.6 फीसदी मत पड़े थे, जबकि 2022 में यहां 70.54 फीसदी वोटिंग हुई। इसी तरह जयसिंहपुर में 63.79 से बढ़कर 65.31 फीसदी, भोरंज में 65.04 प्रतिशत से बढ़कर 68.55 प्रतिशत वोटिंग हुई। सोलन में 66.45 प्रतिशत से बढ़कर 66.84 फीसदी, बरसर में 69.06 फीसदी से बढ़कर 71.17 प्रतिशत, हमीरपुर में 68.52 फीसदी से बढ़कर 71.28 प्रतिशत, जसवां-प्रागपुर में 68.41 फीसदी से बढ़कर 73.67 प्रतिशत, सरकाघाट में 67.23 फीसदी से बढ़कर 68.06 प्रतिशत और कुसुम्पटी में 66.86 फीसदी से बढ़कर 68.24 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया।

हालांकि शिमला शहरी में पिछले चुनाव की तुलना में 63.93 प्रतिशत से थोड़ा कम होकर 62.53 मतदान दर्ज किया गया। बैजनाथ में 64.92 फीसदी से कम होकर में 63.46 प्रतिशत रहा। मनीष गर्ग ने कहा कि 2022 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं में कुल पुरुष 27 लाख 88 हजार 925 थे जबकि महिला मतदाताओं की संख्या 27 लाख 36 हजार 306 थी। सभी स्ट्रांग रूम को तीन स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था से सील कर दिया गया है। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों, उम्मीदवारों या उनके प्रतिनिधियों और आरओ की मौजूदगी में जांच पूरी कर ली गई है।

कुल मिलाकर बंपर वोटिंग के साथ ही राज्य में अब नई सरकार की संभावनाओं पर चर्चा का बाजार गर्म हो गया है। राजनीतिक गतिविधियों और लंबे वक्त से चुनावी पैटर्न पर नजर रखने वाले एक्सपर्ट्स के मुताबिक इस पहाड़ी प्रदेश में इस बार भी बीजेपी और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर है। ऐसे में सवाल है कि इस बार राज्य में किसकी बन सकती है सरकार?

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि इस बार राज्य में कांग्रेस और बीजेपी ने काफी सूक्ष्म स्तर पर काम किया। लेकिन बड़ी बात यह है कि यहां बीजेपी चुनाव नहीं लड़ रही थी बल्कि प्रधानमंत्री चुनाव लड़ रहे थे, जबकि कांग्रेस की तरफ से हर कार्यकर्ता चुनाव लड़ रहा था। बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती बागियों की रही। एक बागी तो ऐसे निकले जो प्रधानमंत्री द्वारा मनाए जाने के बाद भी नहीं माने और चुनाव लड़े।

बीजेपी के इश्तहारों में पूर्व पीएम वाजपेयी जी की तस्वीर थी, जबकि कांग्रेस के इश्तेहार में पूर्व सीएम वीरभद्र सिंह की तस्वीर थी और लिखा था, ‘मुझे याद रखिएगा।’ कुल मिलाकर बीजेपी राष्ट्रीय मुद्दों पर जबकि कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने ओपीएस, महंगाई, बेरोजगारी और पेंशन के मुद्दे को प्रमुखता दी। यहां हर घर में सरकारी नौकरी करने वाले लोग हैं। लिहाजा पुरानी पेंशन का मुद्दा यहां बड़ा मुद्दा बनता दिखा। पिछले उप चुनाव में भी स्थानीय मुद्दों की वजह से कांग्रेस यहां जीत चुकी है।

राज्य में छोटे मार्जिन से हार-जीत तय होती है। यहां बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या बागियों की है। बीजेपी में करीब दो दर्जन बागी हैं, जबकि कांग्रेस में आधा दर्जन बागी हैं। कांग्रेस कुछ हद तक बागियों को मैनेज कर चुकी है, जबकि बीजेपी के बागी नहीं माने और मैदान में डटे रहे।बीजेपी के बागी तो बी टीम के तौर पर काम कर रहे जो कांग्रेस के लिए थोड़ा फायदेमंद हो सकता है। हिमाचल छोटा राज्य है, इसलिए यहां कई सीटों पर 1000 से भी कम वोट से हार-जीत तय होती रही है। ऐसे में अगर बागियों ने करीब दो दर्जन सीटों पर खेल किया तो बीजेपी की राह बहुत मुश्किल हो सकती है। 2017 के चुनाव में 17 सीटों पर हार-जीत 1500 वोटों के अंतर से हुई थी।

जानकार मानते हैं कि आम आदमी पार्टी हिमाचल प्रदेश के चुनावी मैदान में जरूर है लेकिन असरकारी नहीं दिख रही। लिहाजा मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही है। बीजेपी ने हिमाचल में चुनाव रक्षात्मक रूप है जबकि कांग्रेस आक्रामक मोड में रही। टक्कर प्रधानमंत्री और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच दिखी क्योंकि सरकार ने वहां विकास का कोई काम नहीं किया है। टूरिज्म के क्षेत्र में काम हो सकता था, आधारभूत संरचना का विकास हो सकता था लेकिन वहां हुआ नहीं। कांग्रेस स्थानीय मुद्दों की बात कर रही है, जबकि बीजेपी राष्ट्रीय स्तर की बात कर रही है। बीजेपी के खिलाफ राज्य और केंद्रीय दोनों स्तर पर एंटी इनकमबेंसी फैक्टर भी है।

यही नहीं विश्लेषक मानते हैं कि हिमाचल में लोकल मुद्दे हावी रहे हैं। ओपीएस वहां एक बड़ा मुद्दा है। वहां करीब हर घर से एक शख्स सरकारी कर्मचारी है। बीजेपी के शांता कुमार बहुत लोकप्रिय और ईमानदार मुख्यमंत्री थे, बावजूद इसके वह पिछला चुनाव हारे क्योंकि वहां के सरकारी कर्मचारी उनकी नीतियों की वजह से नाराज थे। कांग्रेस ने जो भी मुद्दे उठाए, वह स्थानीय जरूर है लेकिन वह केंद्र से जुड़े मुद्दे हैं। यानी कांग्रेस स्थानीय मुद्दों के सहारे केंद्र पर भी निशाना साधती रही है। कांग्रेस ने यह चतुराई की कि राहुल को हिमाचल से दूर रखा क्योंकि अगर राहुल वहां जाते तो वह राष्ट्रीय मुद्दों की बात करते और उन पर बीजेपी लीड ले सकती थी।

जानकारों का यह भी कहना है कि पीएम मोदी की लोकप्रियता बरकरार है लेकिन राज्य सरकार के कामकाज पर लोग सवाल उठा रहे हैं। बेरोजगारी, महंगाई, खाद्य वस्तुओं की कीमतों में इजाफा का मुद्दा राज्य में बरकरार है। कांग्रेस इसे भुनाने की कोशिश में लगी रही। जबकि आम आदमी पार्टी कहीं मुकाबले में नहीं दिखी।

गौरतलब है कि इस विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर मानी जा रही है। 68 में से लगभग 24 सीटें ऐसी रहीं, जहां दोनों दलों के बागियों ने मुकाबला त्रिकोणीय बनाया है। इनमें से 10 सीटों पर तो बागी मुख्य मुकाबले में नजर आए। आम आदमी पार्टी भी खेल बिगाड़ सकती है। ऐसे में सवाल है कि अब प्रदेश की सत्ता किसे मिलेगी? कहा जा रहा है कि इसका फैसला इन्हीं 10 सीटों के नतीजे करेंगे। हालांकि चुनाव से कुछ दिन पहले तक कांग्रेस अच्छी स्थिति में दिख रही थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के बाद भाजपा ने इस चुनाव को मोदी के चेहरे के इर्द-गिर्द बुना, उसका फायदा पार्टी को निश्चित तौर पर मिलता भी दिख रहा है। लेकिन 5 साल की एंटी इनकमबेंसी, ओल्ड पेंशन स्कीम पर ढुलमुल स्टैंड, बेरोजगारी, महंगाई और बड़ी संख्या में बागियों का मैदान में उतरना भाजपा के खिलाफ जाता दिख रहा है। कांग्रेस के लिए इन्हीं चीजों ने प्लस प्वाइंट का काम किया है। कहा जा रहा है कि भाजपा के बागी नेता 12 सीटों पर सीधा नुकसान पहुंचा रहे हैं।

दरअसल, 21 सीटों पर टिकट न मिलने से नाराज होकर भाजपा के नेता निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे है। कांग्रेस की स्थिति इस मामले में कुछ बेहतर रही, क्योंकि उसे 7 सीटों पर ही बगावत का सामना करना पड़ा है। यह बात सही है कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के बागियों की संख्या अधिक रही, लेकिन अगर यह बागी जीते तो इनके भाजपा में ही वापसी करने के चांस ज्यादा रहेंगे। उस सूरत में भाजपा की सरकार बनाने में मदद कर सकते हैं।

राज्य में हर 5 साल में सरकार बदलने का ‘रिवाज’ है। पिछले 5 साल से सरकार चला रही भाजपा इस बार ‘रिवाज’ बदलने का नारा लेकर मैदान में उतरी है,लेकिन भाजपा के लिए सबसे मुश्किल उनके अपने ही नेताओं ने खड़ी की है। भाजपा के 21 नेताओं ने बगावत का झंडा उठाकर चुनावी ताल ठोक रखी है। भाजपा ने 11 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे हैं तो दो मंत्रियों के विधानसभा क्षेत्र बदल दिए हैं। ऐसे में भाजपा ने जिन नेताओं के टिकट काटे हैं, उनमें से ज्यादातर नेता निर्दलीय चुनावी लड़े हैं। इसके अलावा कई नेता जो चुनाव लड़ने की दावेदारी कर रहे थे, लेकिन टिकट नहीं मिलने के बाद निर्दलियों ने ताल ठोकी है।

इतना ही नहीं इस बार पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल चुनाव नहीं लड़े, 1984 के बाद यह पहला मौका रहा, जब धूमल चुनावी दंगल से बाहर रहे हैं। हिमाचल में यह चर्चा आम है कि अपने समर्थकों की अनदेखी के कारण ही धूमल इस बार चुनावी रण में नहीं उतरे, न प्रचार के लिए हमीरपुर जिले से बाहर निकले हैं। जिसका नुकसान पार्टी को देखने को मिल सकता है। इन सब कारणों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही भांप चुके थे। इसी वजह से उन्हें सोलन, हमीरपुर, कांगड़ा और मंडी जिले में की गई अपनी आखिरी चारों रैलियों में मंच से अपील करनी पड़ी कि लोग अपना वोट पार्टी कैंडिडेट का चेहरा देखकर नहीं, बल्कि ‘कमल’ का फूल देखकर दें। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री मोदी को यहां तक कहना पड़ा कि कमल के फूल को दिया गया हर वोट खुद उन्हें मजबूत करने का काम करेगा। फिलहाल 68 विधानसभा सीटों के लिए मैदान में उतरे 412 प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम में बंद हो गई है, जिसका परिणाम 8 दिसंबर को आएगा।

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