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संशय में अदालत और सरकार

 

वैवाहिक बलात्कार

देश में वैवाहिक बलात्कार को कानूनी रूप से मान्यता देने का मुद्दा 1980 के दशक में पहली बार अदालती बहस का हिस्सा तब बना जब कुछ मामलों में महिलाओं ने अपने पतियों के खिलाफ बलात्कार की शिकायतें दर्ज कराई थी। 1983 में भारतीय दंड संहिता के तहत बलात्कार की परिभाषा को संशोधित किया गया लेकिन वैवाहिक बलात्कार कानूनी रूप से अपवाद ही बना रहा। 1990 में ‘शुभा कौल बनाम भारत सरकार’ मामले में पहली बार उच्चतम न्यायालय तक यह मामला पहुंचा लेकिन तब भी इसे बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा गया। 2017 और 2019 में इस मुद्दे पर कई जनहित याचिकाओं के दर्ज होने बाद अब सुप्रीम कोर्ट इस पर व्यापक विचार-विमर्श की बात कह रहा है। ‘रुमीटू’ जैसे आंदोलनों के बाद अब इसे कानूनी रूप से अपराध घोषित करने की मांग तेज होने लगी है। हालांकि केंद्र सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। अब सबकी निगाहें उच्चतम न्यायालय पर जा टिकी हैं

भारत महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की उच्च दर से निपटने के लिए वर्षों से संघर्ष कर रहा है। घर हो या घर के बाहर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के मामले बढ़ते जा रहे हैं। मैरिटल रेप भी इसी श्रेणी में आता है। देश में एक बार फिर यह चर्चा का विषय बना हुआ है। विवाहित महिला के बिना सहमति के उनके पति द्वारा बनाया गया सम्बंध बलात्कार माना जाना चाहिए या नहीं, यह मामला उच्च न्यायालय के बाद अब सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुका है। मैरिटल रेप को 100 से अधिक देशों में अपराध माना जाता है। लेकिन भारत उन देशों में शामिल है जहां अभी भी मैरिटल रेप अपवाद का विषय बना हुआ है।

‘इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेंस एसोसिएशन’ समेत कुछ अन्य संगठनों का मानना है कि मैरिटल रेप को लेकर कानून बनना चाहिए। वहीं सरकार समेत भारत में पुरुषों के अधिकारों के लिए सक्रिय संगठन भी मैरिटल रेप पर कानून बनाने के खिलाफ हैं। भारतीय न्याय संहिता के तहत अगर कोई पुरुष किसी महिला की सहमति के बिना उसके साथ शारीरिक सम्बंध बनाता है तो ये बलात्कार की श्रेणी में आता है। इस अपराध के लिए दोषी को कम से कम दस साल तक की सजा या कुछ मामलों में उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। लेकिन एक वैवाहिक महिला के लिए यह स्थिति बिल्कुल विपरीत है। इसी साल जुलाई में देश में तीन नए आपराधिक कानून लागू किए गए। इन तीनों कानूनों ने ब्रिटिशकाल से चल रहे इंडियन पैनल कोड यानी आईपीसी की जगह ली। नए कानून के तहत रेप की धारा 375 नहीं अब 63 है। पुराने हो चुके आईपीसी की धारा 375 के मुताबिक किसी महिला के साथ उसकी सहमति के बिना सम्बंध बनाना, उसे धमकाकर, धोखे में रखकर, नशे की हालत में सेक्स के लिए राजी करना या किसी नाबालिग से संबंध बनाना रेप के दायरे में आता था। हालांकि इसी धारा का (अपवाद-2) कहता है- पति द्वारा पत्नी के साथ संबंध बनाना रेप के दायरे में नहीं आएगा बशर्ते पत्नी की उम्र 18 साल से ज्यादा हो। भारतीय न्याय संहिता में भी मैरिटल रेप को लेकर कोई खास बदलाव नहीं किया गया है। बस धारा बदल गई है। धारा 63 के अपवाद (2) में भी मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में नहीं डाला गया। भारतीय न्याय संहिता के इस अपवाद के मुताबिक देखा जाए तो एक पति का अपनी पत्नी के साथ किसी भी तरीके का यौन कृत्य करना अपराध नहीं है।

इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई जारी है। केंद्र सरकार द्वारा तीन अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर किया गया है। सरकार का कहना है कि विवाहित जोड़े के बीच असहमति से बने सम्बंध को बलात्कार नहीं माना जा सकता। केंद्र सरकार के अनुसार शादी एक अलग श्रेणी में आती है, जिसे दूसरे मामलों की तरह नहीं देखा जा सकता है। सरकार का मानना है कि अगर मैरिटल रेप के लिए कानून बनाया जाता है तो विवाह की संस्था में कई मुश्किलें पैदा होंगी और यह अत्यधिक कड़ी व्यवस्था होगी। हलफनामे में केंद्र ने अलग-अलग राज्यों के जवाब भी शामिल किए। जिनमें 19 राज्यों द्वारा जवाब दिए गए हैं। दिल्ली, त्रिपुरा और कर्नाटक मैरिटल रेप के मामले भारतीय कानून में दिए गए अपवाद के खिलाफ थे। छह राज्यों का कोई साफ नजरिया नहीं था। जबकि 10 राज्य चाहते थे कि ये अपवाद जारी रखे जाएं। भारत सरकार का कहना है कि वैवाहिक सम्बंध में पति और पत्नी लगातार एक-दूसरे से उचित यौन संबंध की अपेक्षा रखते हैं। हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि पति अपनी पत्नी के शरीर की स्वायत्तता को भंग कर सकता है। इसलिए हमारे यहां घरेलू हिंसा और यौन हमले से जुड़े कानून के तहत सजा का प्रावधान है। 17 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता करुणा नंदी आौर कॉलिन गॉनलास्वेस ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखे जाने के पक्ष में जोरदार बहस की। करुणा नंदी ने कहा कि ‘ये लड़ाई एक आदमी और औरत के बीच नहीं, बल्कि समाज और पितृसत्ता के बीच है।’

गौरतलब है कि बलात्कार का आरोप लगाने वाली महिलाओं के पास अपने पतियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के कुछ रास्ते हैं, लेकिन अपराधीकरण के पक्षधरों का कहना है कि मौजूदा कानून पर्याप्त नहीं हैं। महिलाएं सिविल कानून के तहत निरोधक आदेश की मांग कर सकती हैं या भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के तहत आरोप लगा सकती हैं जो बलात्कार के अलावा यौन उत्पीड़न को भी कवर करती हैं। धारा 498 ए, जिसका उद्देश्य विशेष रूप से दहेज के संदर्भ में महिलाओं के प्रति क्रूरता को दंडित करना है। महिलाएं घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भी आरोप लगा सकती हैं। लेकिन हालिया अध्ययनों के अनुसार देखा जाए तो कानून की व्याख्या खुली हुई है और महिलाओं को प्रारम्भिक पुलिस शिकायत दर्ज कराने में भी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। ऐसा ही एक मामला मध्य प्रदेश का देखा जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय में सरकार द्वारा दायर किए गए हलफनामे में कहा गया है कि मैरिटल रेप कानून से अधिक समाज से जुड़ा है, इसलिए इस पर नीतियां बनाने का फैसला संसद पर छोड़ देना चाहिए। बता दें कि सर्वोच्च न्यायालय में इस दौरान इस मामले से संबंधित आठ याचिकाएं लम्बित हैं। यह पहली बार नहीं है जब देश की अदालतों में मैरिटल रेप के मुद्दे पर बहस छिड़ी है। इससे पहले दिल्ली उच्च न्यायालय में साल 2022 में इस मुद्दे पर सुनवाई हुई थी। उस दौरान उच्च न्यायालय ने बंटा हुआ फैसला सुनाया था। जस्टिस राजीव शकधर ने कहा कि मैरिटल रेप का अपवाद कानून रद्द हो तो वहीं दूसरे जस्टिस सी. हरि शंकर ने कहा कि यह अपवाद असंवैधानिक नहीं है। उस समय भी सरकार ने यही तर्क दिए थे कि मैरिटल रेप पतियों के उत्पीड़न का एक हथियार बन सकता है। सरकार के कहे अनुसार मैरिटल रेप को अपराध बना देने से गलत मकसद से दायर किए जाने वाले मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी। सरकार के तर्क आश्चर्यजनक नहीं हैं, लेकिन यह उन महिलाओं के लिए एक कदम पीछे है जो पहले से ही एक गहरे पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं जहां यौन हिंसा बड़े पैमाने पर होती हैं। साल 2012 में दिल्ली में हुए गैंगरेप के बाद बनी जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में भी यह सुझाव दिया गया था कि भारतीय कानून में मैरिटल रेप से जुड़े अपवाद को हटा देना चाहिए। शादी के रिश्ते को ‘यौन गतिविधि’ के लिए ऐसी सहमति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, जिसे बदला ना जा सके।

विवाहित या अविवाहित महिला के बीच बलात्कार में कोई भेदभाव नहीं दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिकाकर्ताओं ने इस मामले को लेकर अपनी दलील देते हुए कहा था कि ये प्रावधान असंवैधानिक है, क्योंकि ये महिलाओं के शरीर की स्वायत्तता और गरिमा के अधिकारों का हनन है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि विवाहित या अविवाहित महिला के बीच बलात्कार के मामले में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। एक महिला को अपने पति के साथ सम्बंध बनाने से ना कहने का हक न देकर उनसे एक उत्पाद के जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता है। इस तरह के अपवाद औपनिवेशिककाल से चले आ रहे हैं जिसे बदलने की जरूरत है।

याचिकाकर्ताओं के अनुसार बलात्कार ‘गम्भीर और जघन्य’ अपराध है, जबकि इसके लिए मौजूदा सजा बहुत कम है। याचिकाकर्ताओं द्वारा तर्क दिया जाता है कि एक बार न्यायालय मैरिटल रेप के अपवाद को खत्म कर देती है, तो ट्रायल कोर्ट व्यक्तिगत मामलों से निपट सकते हैं ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि कानून का दुरुपयोग न हो। वहीं भारत में पुरुषों के अधिकारों के लिए सक्रिय संगठन भी मैरिटल रेप पर कानून बनाने के खिलाफ हैं। कई पुरुषों का मानना है कि अगर मैरिटल रेप पर कानून बना तो पुरुषों को शादी ही नहीं करनी चाहिए। गौरतलब है कि कई सर्वेक्षण दावे करते हैं कि वैवाहिक सम्बंधों में महिलाओं के साथ यौन हिंसा होती है। अमेरिकी थिंक टैंक ‘प्यू रिसर्च’ के मुताबिक हर 10 में से 9 भारतीयों का यह मानना है कि पत्नियों को पतियों की बात माननी चाहिए। बात ना मानने पर महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता के हनन का नतीजा अक्सर हिंसा के रूप में सामने आता है। दुनिया के एक बड़े हिस्से में इस अवधारणा को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है कि शादी के रिश्ते में सेक्स के लिए सहमति का कोई महत्व नहीं है। वहीं साल 2022 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार भी 18 से 49 साल की 82 फीसदी शादीशुदा महिलाओं के साथ उनके पति यौन हिंसा करते हैं।

भारतीय दंड सहिंता आईपीसी की धारा 375 के तहत मैरिटल रेप को अपवाद माना गया है। यानी विवाहित जोड़े के बीच यौन सम्बंध को बलात्कार की परिभाषा से बाहर रखा गया है। इस वजह से शादी के बाद यदि पति-पत्नी के साथ जबरदस्ती सम्बंध बनाता है तो उसे सजा नहीं हो सकती। अब यदि इस अपवाद की संवैधानिक वैधता की बात की जाए तो संविधान के अनुच्छेद 14,19,21 के तहत दिए गए अधिकारों का उल्लंघन होता है। इस अपवाद को हटाने के बाद दुष्परिणामों में जहां तक सवाल गलत मकसद से दायर किए जाने वाले मुकदमों का है तो यह हमारे कानून और न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि ऐसा न हो। बाकी मुझे लगता है कि इस अपवाद को खत्म कर मैरिटल रेप के खिलाफ कानून बनना चाहिए क्योंकि यह एक न सिर्फ स्त्री के शरीर पर उसके अधिकार और निजता का हनन है, बल्कि ये सहमति के साथ बने सम्बंधों तथा मनुष्य की गरिमा से जुड़ा सवाल भी है। मैरिटल रेप के खिलाफ बना कानून सामाजिक तौर पर भी महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ करने में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है, क्योंकि मैरिटल रेप को अपवाद मान लेने पर स्त्री के शरीर का वस्तुकरण कहीं न कहीं उसे देह भर में रिडयूज करता है, जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए ठीक नहीं है।
विभावरी, लेखिका एवं टिप्पणीकार

निश्चित रूप से कानून बनना चाहिए। भारतीय परिवारों में प्रेम और हिंसा के अंतर्विरोध अब कोई छुपी हुई वस्तु नहीं है। विशेषतः गांवों में जहां स्त्री-पुरुष संबंधों में बराबरी का कोई कॉन्सेप्ट ही नहीं है, वहां स्त्री की इच्छा या उसकी असहमति का आदर कभी नहीं हुआ। भारतीय परिवारों के अधिकांश पुरुष और पितृसत्तात्मक ढांचे में ढली स्त्रियां आज भी इस बात से हैरान होती हैं कि पति अगर जबरदस्ती यौन-सम्बंध बना ले, तो वह बलात्कार कैसे हो गया। इस धारणा के मूल में सदियों से चला यह विचार काम करता है कि अंततः स्त्री पर पति का अधिकार है, चाहे वह अपनी पत्नी के साथ कैसा ही व्यवहार करें। अब समय बदल चुका है। सरकार महिला सशक्तिकरण की योजनाओं और उसके प्रचार के लिए हजारों करोड़ रुपए खर्च कर रही है, लेकिन जब तक संवैधानिक और कानूनी रूप से सक्रियता नहीं दिखाएगी, परिवारों में स्त्री-शोषण होता रहेगा। रही बात सरकार के इस तर्क की कि मैरिटल रेप पर कानून बना देने से गलत मकसद वाले मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी तो अनुसूचित जाति और जनजातियों से सम्बंधित प्रावधानों में भी यह संकट बना हुआ है। इसका मतलब यह तो नहीं कि जातिगत भेदभाव नहीं होता। दहेज प्रताड़ना से सम्बंधित कानून में भी यह संकट है, लेकिन सरकार ने तब भी कानून बनाया ही। इस कानून से देश की आधी आबादी सीधे जुड़ी है, तो नीति-निर्माताओं को थोड़ा साहस दिखाना चाहिए।
डॉ. देवीलाल गोदारा, लेखक और आलोचक

क्या शादी का मतलब किसी को बलात्कार करने का अधिकार मिल जाना है। एक तरफ समाज द्वारा विवाह नामक संस्था को पवित्र बंधन, आदि कहा जाता है तो ‘वैवाहिक बलात्कार’ क्या इस पवित्रता को अपवित्र नहीं करता? बलात्कार तो बलात्कार है, अपराध है, चाहे वो वैवाहिक बलात्कार हो या अन्य। शब्दावली बदलने से बलात्कार की परिभाषा नहीं बदलती। यह हिंसा है। कोर्ट के न्यायाधीशों को ‘मैरिटल रेप’ को कानूनी अपराध की श्रेणी में लाना चाहिए। किसी संस्थान को बचाने के नाम पर अपराध को संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। विशेषकर स्त्रियां, जिनके साथ लिंग आधारित हिंसा होती है उन पर घरेलू हिंसा, और अब पति तथाकथित जीवन साथी द्वारा बलात्कार को झेलने के लिए कानून न बनाया जाए। समाज को निरंतर प्रगतिशील होना चाहिए, अफसोस कि यहां मैरिटल रेप पर न्याय पाने के लिए अभी तक कोई कानून ही नहीं है। यह समाज और न्याय व्यवस्था की संवेदन शून्यता है। केंद्र सरकार को भी ऐसे महत्त्वपूर्ण और सेंसिटिव मुद्दों पर रवैया बदलना चाहिए। इस तरह से तो पति नामक आदमी को बलात्कार के लिए, हिंसा के लिए आप लीगल इम्युनिटी देने की बात कर रहे हैं। यह जितना अतार्किक है उतना ही अमानवीय। जबकि यहां स्त्री को पत्नी ही नहीं एक सेपेरट आइडेंटिटी ही मानकर क़ानून बनने चाहिए। इस मुद्दे पर मैं महसूस कर पा रही हूं कि केंद्र सरकार का व्यवहार स्त्री-विरोधी है। क्या स्त्री-द्वेष पहले कम था जो सरकारें और न्याय-व्यवस्था इसमें हाथ आजमाएंगी। यह सब पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बनाए रखने की कवायद है। इसका सिर्फ स्त्रियों को ही नहीं, पूरे समाज को प्रतिकार करना चाहिए। क्या वे एक बेहतर और सुरक्षित माहौल में नहीं रहना चाहते।
शोभा अक्षर, कवयित्री एवं टिप्पणीकार

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