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  •    कुमार गुंजन
  • देश में मंदिर-मस्जिद का विवाद नए कलेवर के साथ फिर से शुरू हो गया है। अयोध्या में मिली अदालती जीत के बाद अब इनका ठिकाना बनारस हो गया है। लेकिन इस बार मस्जिद गिराने को लेकर जल्दबाजी नहीं है। क्योंकि विवाद खड़ा करने वाले पक्ष को लगता है कि जब अदालत से ही उनका काम हो जाए तो विवादित ढांचा गिराने में बेफिजूल मेहनत क्यों की जाए। बनारस का ज्ञानवापी मामला सेशन कोर्ट से होते हुए वाया उच्चतम न्यायालय जिला अदालत पहुंच गया है। जिला अदालत बनारस जल्द ही इस पर सुनवाई कर फैसला सुनाने वाली है।

    पिछले एक महीने से उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर विवाद तूल पकड़ चुका है। मामला अदालत में विचाराधीन है, इसलिए अभी दोनों पक्ष ज्यादा आक्रामक नहीं हैं। लेकिन बनारस में कुछ हिंदू समर्थक लगातार सड़कों पर इस मुद्दे को उछालने में लगे हैं। हालांकि कोर्ट के आदेश पर मस्जिद का सर्वे पूरा कर लिया गया है। कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुना है। हिंदू पक्ष का दावा है कि मस्जिद में वजू के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तालाब में शिवलिंग स्थित है। जबकि मुस्लिम पक्ष इस दावे को सिरे से खारिज कर रहा है।

    बनारस की अदालत के आदेश पर नियुक्त एडवोकेट कमिश्नर और एक टीम ने ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण पूरा कर लिया है। मुस्लिम पक्ष इस सर्वे और सुनवाई रुकवाने के लिए उच्चतम न्यायालय भी गया। जिस पर सर्वे रोकने का आदेश उच्चतम न्यायालय ने तो नहीं दिया, लेकिन इस मसले को सेशन कोर्ट से जिला कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया है। मस्जिद का सर्वे हिंदू पक्ष के उस दावे की जांच करने के लिए किया गया कि ज्ञानवापी मस्जिद वास्तव में मंदिर तोड़कर बनाई गई थी। बनारस सिविल अदालत के आदेश पर इस स्थान का वीडियोग्राफी और सर्वे भी हुई है। शिवलिंग मिलने का दावा सामने आने के बाद कोर्ट ने मस्जिद का वजूखाना सील करने का आदेश दिया है।

    मस्जिद में शिवलिंग मिलने के दावे को मुस्लिम पक्ष ने खारिज किया है। भारत में मुसलमानों के प्रमुख संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद में कथित रूप से शिवलिंग मिलने के बाद अदालत के आदेश पर मस्जिद का वजूखाना बंद कराए जाने को नाइंसाफी करार देते हुए कहा कि यह पूरा घटनाक्रम सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की एक साजिश से ज्यादा कुछ नहीं है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने एक बयान में कहा है कि ज्ञानवापी मस्जिद, मस्जिद है और मस्जिद ही रहेगी। इसे मंदिर करार देने की कोशिश सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की एक साजिश से ज्यादा कुछ नहीं है। यह संवैधानिक अधिकारों और कानून के खिलाफ है।

    मुस्लिम पक्ष का कहना है कि वर्ष 1937 में दीन मोहम्मद बनाम स्टेट सेक्रेटरी मुकदमे में अदालत ने जुबानी गवाही और दस्तावेजों के आधार पर यह तय कर दिया था कि यह पूरा अहाता (ज्ञानवापी मस्जिद परिसर) मुस्लिम वक्फ की मिल्कियत है और मुसलमानों को इसमें नमाज पढ़ने का हक है। अदालत ने यह भी तय कर दिया था कि कितना हिस्सा मस्जिद है और कितना हिस्सा मंदिर है। उसी वक्त वजूखाने को मस्जिद की मिल्कियत स्वीकार किया गया था। इस मुद्दे पर अभी तक राजनीतिक दलों की ओर से कोई खुलकर समर्थन या विरोध में सामने नहीं आया है। सिर्फ एआईएमआईएम सांसद ओवैसी ही इसके खिलाफ लगातार मुखर हैं। उनका कहना है कि यदि मस्जिद की जगह मंदिर का हक दिया जाता है तो यह संसद द्वारा पारित एक एक्ट का उल्लंघन होगा। संसद में सन् 1991 में ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट’ पारित हुआ था। इसमें निर्धारित किया गया था कि सन् 1947 में जो इबादतगाहें जिस तरह थीं, उनको उसी हालत पर कायम रखा जाएगा। साल 2019 में बाबरी मस्जिद मुकदमे के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अब तमाम इबादतगाहें इस कानून के मातहत होंगी और यह कानून दस्तूर हिंद की बुनियाद के मुताबिक है।

    वक्फ बोर्ड इस सिलसिले में हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा चुका है। वहां यह मुकदमा विचाराधीन है। ज्ञानवापी मस्जिद की इंतजामिया कमेटी भी सुप्रीम कोर्ट से होते हुए जिला अदालत में अपना पक्ष रख रही है। पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है कि सरकार को चाहिए कि फौरी तौर पर इस तरह के मसले को रोका जाए। क्योंकि पिछले कुछ समय से देश भर में कई मस्जिदों, मीनारों को लेकर इस तरह के विवाद पैदा करने की कोशिश की जा रही है। अब सब की निगाहें बनारस जिला अदालत पर टिकी है कि वहां से क्या फैसला आता है। जिला अदालत के फैसले के बाद ही पता चल पाएगा कि यह विवाद कितना लंबा खींचेगा।

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