सत्तर-अस्सी के दशक में यदि किसी को कांग्रेस का टिकट मिलता था तो उसे चुना हुआ प्रतिनिधि मानकर मिठाइयां बंट जाती थी। पार्टी नेतृत्व को लेकर तब कहीं कोई समस्या नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे खिसकता जनाधार आज नेतृत्व की दृष्टि से पार्टी को दोहराहे पर खड़ा कर गया है
सत्तर-अस्सी के दशक तक कांग्रेस का जनाधार देश में इतना मजबूत था कि किसी को पार्टी टिकट मिलते ही मान लिया जाता था कि उसकी जीत पक्की है। विधानसभा चुनाव का टिकट मिलते ही प्रत्याशी को विधायक मानकर मिठाइयां बंट जाती थी।
लोकसभा चुनाव में भी यही स्थिति थी। लेकिन धीरे-धीरे क्षेत्रीय दलों के उभार और राष्ट्रीय स्तर पर गैरकांग्रेसवाद का जो नारा चला उसके चलते पार्टी की स्थिति निरंतर कमजोर होती गई। पार्टी नेतृत्व के कई फैसलें और बोफोर्स एवं फेयर फैक्स जैसे मामलों ने भी पार्टी की साख पर बुरा असर डाला। नतीजा यह हुआ कि देश में गैर कांग्रेसी सरकारों का उदय हुआ और 2014 के लोकसभा चुनाव में तो भाजपा अकेले अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में आ गई। उत्साहित भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देखने लगी। भाजपा का सपना साकार हुआ, इसे मानने से कांग्रेस भले ही इनकार कर दे। लेकिन सच यही है कि कांग्रेस बुरी तरह सिमट गई है।
सिमटती कांग्रेस के सामने अब एक नई समस्या यह खड़ी हो चुकी है कि आखिर पार्टी का नेतृत्व किन हाथों में रहे। जिस गांधी -नेहरू परिवार को पूरे देश के लोग अपने करीब मानते थे उसके प्रतिनिधि राहुल गांधी का नेतृत्व कोई करिश्मा नहीं दिखा पाया है। भाजपा उन्हें परिवारवाद का प्रतिनिधि करार देती रही है, अन्य जो बड़े नेता हैं वे भी अपने परिजनों को राजनीति में स्थापित करने के मंसूबे पाले रहते हैं। यही कांग्रेस के असमंजस की वजह है।
एक महीने पहले पद छोड़ने की घोषणा के बाद आखिरकार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 3 जुलाई को अपना इस्तीफा दे दिया। यही नहीं, बल्कि इस्तीफे के बाद पत्र में उन्होंने वजह भी लिखी और पार्टी का भविष्य संवारने का तरीका भी सुझा दिया है। हालांकि अभी ये तय नहीं है कि कांग्रेस का अगला अध्यक्ष कौन होगा। ऐसे में सवाल ये भी है कि क्या राहुल के इस्तीफे से रसातल में जा चुकी कांग्रेस का कायाकल्प हो पाएगा? क्या नया अध्यक्ष पार्टी को नई ऊंचाइयों पर ले जाने में काबिल होगा?
पांच साल पहले जब कांग्रेस को अपने इतिहास में सबसे कम 44 सीटें मिली थी, तो उस वक्त लोगों को ज्यादा ताज्जुब नहीं हुआ था, क्योंकि कांग्रेस के साथ यूपीए-दो सरकार की विफलताएं थी। इन पांच वर्षों में कांग्रेस विपक्ष में थी, उसके पास संगठन मजबूत करने और रणनीति को जमीन पर उतारने का पूरा मौका था। लेकिन पार्टी कई प्रदेशों में नामांकन के आखिरी दिन तक अपनी मजबूत रणनीति तक तय नहीं कर पाई थी।
कांग्रेस ने महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, केरल और तमिलनाडु सहित कई राज्यों में गठबंधन में चुनाव लड़ा, पर इन सभी प्रदेशों में आखिरी वक्त तक सीट को लेकर सहयोगियों से जोर आजमाइश चलती रही। पूरे प्रचार के दौरान चुनावी रणनीति का अभाव रहा। कर्नाटक और बिहार में घटक दल आखिरी वक्त तक एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे। इसके चलते जमीनी स्तर पर महागठबंधन में शामिल दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच असमंजस की स्थिति बनी रही। जिससे कांग्रेस की चुनावी रणनीति पूरी तरह परवान नही चढ़ सकी।
पार्टी के लिए सबसे चिंता की बात यह है कि छह माह पहले विधानसभा चुनाव जीतकर जिन राज्यों में कांग्रेस ने सरकार बनाई थी, वहां ‘हनीमून पीरियड’ माने जाने वाले छह माह में ही स्थिति बदल गई है। इन प्रदेशों में पार्टी का प्रदर्शन 2014 के चुनाव से भी खराब रहा है, जबकि कांग्रेस ने दस दिन के अंदर किसानों की कर्ज माफी को बड़ा मुद्दा बनाया था। ऐसे में साफ है कि कर्ज माफी और दूसरी योजनाओं का लाभ लोगों तक नहीं पहुंच सका। पार्टी को इन प्रदेशों पर अधिक ध्यान देना चाहिए था, लेकिन ऐसा हो नहीं सका और मामला सिर्फ बयानबाजी तक सिमटकर रह गया।
आजादी के पहले और देश की सबसे पुरानी पार्टी का रुतबा रखने वाली कांग्रेस की ऐसी हालत 70 साल में कभी नहीं हुई। इसी का नतीजा है कि भाजपा 21वें राज्य में अपनी सरकार बनाने की ओर बढ़ रही है। इसमें भी चौंकाने वाली बात ये है कि क्षेत्रीय दलों का कंट्रोल देश में कांग्रेस से ज्यादा है। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडगम (एआईएडीएमके), तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) भी इस मामले में फिलहाल कांग्रेस से आगे हैं।
पार्टी के चुनाव की बागडोर अकेले राहुल गांधी के कंधों पर ही रही। जिन पार्टी दिग्गजों को चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी वह सिर्फ अपने परिवारजनां तक सिमट कर रह गए। इस मामले को लेकर राहुल गांधी का दर्द 25 जून को कार्यसमिति की बैठक में सामने भी आया था। कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी ने बिना नाम लिए कुछ नेताओं पर सीधा प्रहार किया कि पुत्र मोह ने कांग्रेस को बर्बाद कर दिया। उनका इशारा साफ था पूर्व वित्त और गृहमंत्री पी चिदंबरम, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमल नाथ और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ओर। गांधी का कहना था कि इन तीनों नेताओं को कांग्रेस की जीत से मतलब नहीं था, मतलब सिर्फ एक था अपने- अपने पुत्र को जिताने का।
राजनीतिक लोग कहते सुने गए कि यहां जिस पुत्र मोह की बात राहुल गांधी कर रहे हैं क्या उन्हें यह नहीं पता कि स्वयं राहुल गांधी भी पुत्रमोह की ही परिपाटी को आगे बढा रहे हैं। सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी को ही अध्यक्ष पद क्यों बनाया गया। क्या राहुल गांधी से बेहतर और कोई कांग्रेस का नेता नहीं था? कांग्रेस का इतिहास गवाह है कि कांग्रेस की जीत का सेहरा गांधी परिवार को जाता है और हार का ठीकरा कांग्रेस के नेताओं के सर पर फोड़ा जाता रहा है। हालांकि इस बार हार की यह जिम्मेदारी खुद राहुल गांधी ने अपने कंधों पर ली है।
उन्होंने 3 जुलाई को इस्तीफा देते समय स्पष्ट कहा कि क्योंकि मैं अध्यक्ष था इसलिए इस नाते मै हार की जिम्मेदारी लेता हूं। हालांकि फिलहाल कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष की तलाश की जा रही है जो गांधी परिवार से अलग का हो। लेकिन सभी जानते हैं कि वर्षों से गांधी परिवार का कांग्रेस पर एकछत्र राज रहा है। शुरुआत आजादी के पूर्व 1919 में मोतीलाल नेहरू से हुई । मोतीलाल नेहरू के बाद उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बने। कहा जाता है कि मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी को पत्र लिखा कि मेरे पुत्र जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाए। हालांकि गांधी मोतीलाल नेहरू के आग्रह से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। फिर भी पिता के बाद पुत्र जवाहरलाल नेहरू 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बन गए। गांधी परिवार की राजनीति की शुरुआत वहीं से होती है। उसके बाद नेहरू प्रधानमंत्री थे फिर भी 1959 में अपनी पुत्री इन्दिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनने दिया या बनवा दिया था। कुछ ऐसा ही मोह सोनिया गांधी में दिखाई दिया था जब उनकी मौन सहमति के बाद राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया था।
बहरहाल, कांग्रेस पार्टी दो राहे पर खड़ी दिखाई दे रही है। जिसमें एक रास्ता गांधी परिवार की तरफ जाता है तो दूसरा बिना गांधी परिवार की ओर। सभी जानते हैं कि बिना गांधी परिवार का रास्ता सुगम नहीं है। ऐसे में पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता गांधी परिवार की परिक्रमा तक ही सिमटकर रह जाते हैं। फिर यह जरूरी भी तो नहीं कि मोदी मैजिक के सामने कांग्रेस का बिना गांधी परिवार का नया अध्यक्ष टिक भी पाएगा?