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पंजाब के बाद उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के दलित वोटों पर कांग्रेस की नजर

 आगामी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पंजाब कांग्रेस ने दलित कार्ड खेल कर सभी राजनीतिक पार्टियों को चौंका दिया है। कांग्रेस की नजर पंजाब ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के दलित वोटों पर भी है। ऐसे में माना जा रहा है कि कांग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। पार्टी ने इस सियासी दांव से जहां प्रदेश में दूसरे दलों के मुद्दों को खत्म कर दिया है। वहीं, दलित कार्ड चलकर कांग्रेस ने एक राष्ट्रीय विमर्श भी शुरू किया है। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दलित है।

 

 

 


बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती

 

 

पंजाब के पहले दलित सीएम बनाए जाने को लेकर राजनीतिक पार्टियों की कई प्रतिक्रियाएं भी आने लगी हैं। भाजपा  ने इसे कांग्रेस का दिखावा करार दिया, तो  बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने  दलित सीएम की नियुक्ति को कांग्रेस का दोहरी चाल बताया है। पंजाब के आगमी चुनावों को लेकर बसपा प्रमुख ने कहा है कि  कांग्रेस अकाली दल और बसपा के गठबंधन से घबराई हुई है, मुझे पूरा भरोसा है कि पंजाब के दलित वर्ग इनके इस हथकंडे के बहकावे में कतई भी नहीं आने वाले हैं। यही नहीं  उन्होंने  कांग्रेस और बीजेपी को घेरते हुए कहा कि  सच्चाई तो ये है कि इन्हें  मुश्किल समय में ही दलित याद आते हैं।

दरअसल , पंजाब में करीब 32 फीसदी दलित है, मगर  कभी कोई दलित मुख्यमंत्री पद तक नहीं पहुंचा। यही वजह है कि अकाली दल से अलग होने के बाद भाजपा ने दलित मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था। आम आदमी पार्टी ने दलितों को ध्यान में रखते हुए हरपाल चीमा को नेता विपक्ष बनाया। वहीं, अकाली दल व बसपा ने उप मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था।

कांग्रेस के इस कदम के बाद पंजाब में दूसरे दलों पर रणनीति बदलने का दबाव बढ़ गया है। वहीं पार्टी के इस निर्णय का असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ेगा। पंजाब के साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव हैं। इन राज्यों में दलित मतदाता बड़ी भूमिका में हैं। ऐसे में पार्टी चुनाव में दलित, मुस्लिम और सवर्ण को जोड़ने में कामयाब रहती है, तो यह फैसला उसके लिए ब्रह्मास्त्र साबित हो सकता है।

उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी लगभग 21 फीसदी है, पर वह राजनीतिक तौर पर बहुत जागरूक हैं। ऐसे में पार्टी मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के जरिए दलितों का भरोसा जीतने की कोशिश करेगी। पंजाब में 34 सीट आरक्षित है। वर्ष 2017 के चुनाव में पार्टी ने इसमें से 21 सीट पर जीत दर्ज की थी। लेकिन आकाली दल और बसपा के गठबंधन से चुनाव में पार्टी की चुनौती मिल सकती है, इसलिए चरणजीत सिंह चन्नी के जरिए मालवा, दोआबा और माझा में अपनी पकड़ मजबूत की है।

राजनीतिक पंडितों की मानें तो कांग्रेस अगर इस दलित कार्ड को  राजनीतिक रूप से भुना सकी तो पंजाब का उसका प्रयोग सबसे ज्यादा असर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड पर देखने मिल सकता है। दरअसल ,  दोनों राज्यों में जाति आधारित राजनीति होती है। ठीक से काम और टिकट वितरण हुआ तो इन दोनों राज्यों की अधिकांश दलित जातियां कांग्रेस के पक्ष में जा सकती हैं। लेकिन जाति आधारित बसपा जैसे दल के उदय के बाद से दोनों राज्यों में बाकी जातियों का दलितों के साथ सामाजिक तानाबाना बिगड़ा पड़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों का दलितों के साथ छत्तीस का आंकड़ा है तो पूर्वी यूपी में दलितों से उच्च जातियों का कोई तालमेल ही नहीं है। मुस्लिम समुदाय भी दलितों से दूरी बना कर रखता है। ऐसे हालात में दूसरी जातियों के छिटकने से उत्तराखंड में सत्ता में वापसी और यूपी में अपनी स्थिति मजबूत करने की कांग्रेस की लालसा से भारी नुकसान भी हो सकता है।

गुजरात में सात फीसदी दलित और 11 प्रतिशत आदिवासी हैं। विधानसभा में 13 सीट दलित और 27 सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। वर्ष 2017 के चुनाव में कांग्रेस 16 आदिवासी सीट जीतने में सफल रही थी, पर अधिकतर दलित सीट पर भाजपा ने जीत दर्ज की थी। ऐसे में कांग्रेस चरणजीत सिंह चन्नी के जरिए पार्टी गुजरात चुनाव में दलितों में अपनी पैठ को मजबूत कर सकती है।

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