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निर्णायक मोड़ पर कांग्रेस

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को सूरत की अदालत से मानहानि के एक मामले में दो वर्ष की सजा सुनाए जाने के बाद उन्हें संसद की सदस्यता से अयोग्य ठहरा दिया गया है, जिससे कांग्रेस की राजनीति एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है। अभी तक गैर-भाजपा दल कांग्रेस को विपक्ष का नेतृत्व सौंपने में आनाकानी कर रहे थे। लेकिन अब कांग्रेस को गैर-भाजपा विपक्षी दलों का व्यापक समर्थन मिलता नजर आ रहा है

आगामी लोकसभा चुनाव में भले ही अभी करीब साल भर का समय बाकी है, लेकिन देश का राजनीतिक तापमान बहुत तेजी से बढ़ने लगा है। गत सप्ताह कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को सूरत की अदालत से मानहानि के एक मामले में दो वर्ष की सजा सुनाए जाने के बाद उन्हें संसद की सदस्यता से अयोग्य ठहरा दिया गया है, जिससे कांग्रेस की राजनीति अभी एक निर्णायक मोड़ पर आ गई है। अभी तक गैर-भाजपा दल कांग्रेस को विपक्ष का नेतृत्व सौंपने में आनाकानी कर रहे थे। लेकिन 23 मार्च की घटना के बाद कांग्रेस को गैर-भाजपा विपक्षी दलों का व्यापक समर्थन मिलता नजर आ रहा है। इस समर्थन को लेकर कहा जा रहा है कि यह कांग्रेस के लिए एक सुनहरा अवसर है, लेकिन क्या कांग्रेस इस स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाने में सक्षम है? क्या वह सभी गैर-भाजपा दलों को साथ लेकर भाजपा को टक्कर दे पाएगी? इसमें एक बड़ीअड़चन खुद राहुल गांधी का व्यक्तित्व है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस घटना के बाद बाकी विपक्षी नेताओं की तुलना में उनका राजनीतिक कद बहुत बढ़ गया है, मगर इस कद के साथ उन्हें न्याय करना होगा और यहीं पर कई अड़चनें दिखाई देती हैं।

कांग्रेस पार्टी को ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव, नीतीश कुमार जैसे विपक्षी नेताओं के साथ तालमेल बनाकर चलना होगा, जो बड़ा कठिन काम है। दरअसल जबसे राहुल राजनीति में सक्रिय हैं, उन्होंने सहयोगी दलों के नेताओं के साथ एक तरह से दूरी बनाकर रखी। एमके स्टालिन को छोड़ दें, तो बाकी सहयोगी दलों के नेताओं के साथ कभी राहुल ने गर्मजोशी नहीं दिखाई। बल्कि कई बार उन्होंने अपने बयानों से अन्य सहयोगी दलों के नेताओं के लिए मुश्किल खड़ी कर दी, जैसे सावरकर को लेकर दिए गए बयान के जरिए उन्होंने उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को कठिनाइयों में ही डाल दिया। मगर अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे अनुभवी और सुलझे हुए नेता हैं, जिनके तमाम गैर-भाजपा, गैर-राजग दलों से बहुत अच्छे संबंध हैं। ऐसे में सवाल है कि जिस तरह महाभारत में अर्जुन के सारथी श्रीकøष्ण बने थे, क्या खरगे भी वही भूमिका निभा पाएंगे। जानकार कहते हैं, राहुल गांधी के साथ जो हुआ है, उसके दो पहलू हैं। एक तो अदालती और दूसरा राजनीतिक पहलू है। जब भी किसी व्यवस्था के खिलाफ विपक्ष लड़ता है तो वह लड़ाई लंबी होती है। उस लड़ाई को सतत् जारी रखने के लिए हर समाज का सहयोग बहुत जरूरी होता है। जैसा जेपी आंदोलन में भी हुआ था, राजीव गांधी के खिलाफ वीपी सिंह के अभियान में भी हुआ था और अन्ना आंदोलन के दौरान भी समाज की सक्रिय भूमिका देखी गई थी। यहीं पर कांग्रेस की जमीन कमजोर नजर आ रही है। अतीत में भी ऐसा कोई उदाहरण नहीं कि कांग्रेसने नागरिक समाज का राजनीतिक फायदा उठाया हो। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समय जरूर आम जनता उनके साथ जुड़ी थी, मगर उनमें से अधिकांश गैर-राजनीतिक समाज से थे। अब कांग्रेस या राहुल गांधी उन सबको अपने साथ जोड़ पाएंगे, इसे लेकर संशय है।

तीसरी बात भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने के लिए कांग्रेस को हर संभव तालमेल बैठाना होगा, जिसमें शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला, चंद्रबाबू नायडू जैसे लोगों को शामिल करना चाहिए, जिनकी राजनीतिक साख दलों से ऊपर है। ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं को इसमें सक्रिय भूमिका में लाना चाहिए। बेशक थोड़े-बहुत वैचारिक या मुद्दे आधारित मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इन सबको एकजुट करके पटरी पर लाना बहुत कठिन, मगर पार्टी के लिए महत्वपूर्ण होगा। जब तक एकजुट विपक्ष का जनाधार नहीं बढ़ेगा, तब तक भाजपा को बढ़त मिलती रहेगी, इसलिए सिविल सोसाइटी और आम लोगों को साथ लेकर चलने की आवश्यकता है और इसमें मीडिया सहायक हो सकता है। गैर-राजग दलों, सिविल सोसाइटी और मीडिया सबको साथ लेकर चलने में सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे कितना सफल हो पाते हैं, यह तो समय ही बताएगा। जानकार कहते हैं कि विपक्ष को राहुल गांधी के नाम पर एक बड़ा मुद्दा मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी और यह मुद्दा लोगों की समझ में आ रहा है। उसका फायदा उठाने के लिए कांग्रेस और विपक्ष को सही दिशा में निर्णायक फैसले लेने होंगे।

राहुल के समर्थन में उतरा विपक्ष
मानहानि केस में सजायाफ्ता राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म करने को लेकर लगभग सभी विपक्षी दलों ने इस फैसले के खिलाफ एक सुर में विरोध किया है। इस सूची में वे नेता भी शामिल हैं जो बीते कुछ दिनों से बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी बनाकर चल रहे थे। ऐसे में सवाल है कि क्या अगले साल होने वाले आम चुनाव से पहले बिखरा हुआ विपक्ष एकजुट हो गया है? तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि यह पार्टियों के बीच मतभेद का समय नहीं है।

भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) और तेलंगाना सीएम केसीआर ने इसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला दिन करार दे राहुल का समर्थन किया है। केसीआर पहले से ही थर्ड फ्रंट को लेकर खुलकर बोल चुके हैं। उन्होंने पार्टी का नाम बदलकर उसे राष्ट्रीय पार्टी बनाया था। समाजवादी पार्टी के चीफ अखिलेश यादव ने कोलकाता में पश्चिम बंगाल की सीएम और टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी से मुलाकात की और इस मोर्चे के बारे में सार्वजनिक तौर पर बात की। ममता बनर्जी भी क्षेत्रीय दलों से बात कर उन्हें साथ लाने में जुटी हैं। बीते दिनों इन नेताओं ने सार्वजनिक मंच पर कई बार कांग्रेस मुक्त तीसरे मोर्च की बात कही थी। लेकिन राहुल की सदस्यता छिनने पर ये सभी एकजुट होकर इस फैसले के खिलाफ कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी ने भी बिना नाम लिए ट्वीट कर सरकार पर निशाना साधा। ममता ने लिखा, ‘प्रधानमंत्री मोदी के नए भारत में विपक्षी नेता बीजेपी का मुख्य निशाना बन गए हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले भाजपा नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता है और विपक्षी नेताओं को उनके भाषणों के लिए अयोग्य घोषित किया जाता है। आज, हमने अपने संवैधानिक लोकतंत्र का एक नया निम्न स्तर देखा है।’

इस मामले में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने भी राहुल का समर्थन करते हुए कहा ‘जिस तरह एक निर्णय के 24 घंटे के अंदर राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त कर दी गई, यह चिंता पैदा करने वाली है। देश में वन पार्टी, वन सिस्टम लाने की कोशिश हो रही है। यह राहुल गांधी की लड़ाई नहीं है। यह देश बचाने की लड़ाई है और इसके लिए सबको एक साथ खड़े हो जाना चाहिए।’

क्या है पूरा मामला
राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कर्नाटक के कोलार में एक रैली में कथित तौर पर कहा था कि ‘सभी चोरों का सरनेम मोदी ही कैसे हो सकता है?’ उनकी इस टिप्पणी के खिलाफ भाजपा विधायक और गुजरात के पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी ने शिकायत दर्ज कराई थी जिस पर बीते 23 मार्च को सूरत की अदालत ने राहुल गांधी को 2 साल जेल की सजा सुनाई है। हालांकि अदालत ने उन्हें जमानत दे दी और सजा के खिलाफ अपील करने के लिए 30 दिनों का समय दिया है।

क्या कहता है जनप्रतिनिधि कानून
वर्ष 1951 में जनप्रतिनिधि कानून आया था। इस कानून की धारा 8 में लिखा है कि अगर किसी सांसद या विधायक को आपराधिक मामले में दोषी ठहराया जाता है, तो जिस दिन उसे दोषी ठहराया जाएगा, तब से लेकर अगले 6 साल तक वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा। धारा 8(1) में उन अपराधों का जिक्र है जिसके तहत दोषी ठहराए जाने पर चुनाव लड़ने पर रोक लग जाती है। इसके तहत, दो समुदायों के बीच घृणा बढ़ाना, भ्रष्टाचार, दुष्कर्म जैसे अपराधों में दोषी ठहराए जाने पर चुनाव नहीं लड़ सकते। हालांकि इसमें मानहानि का जिक्र नहीं है। पिछले साल समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान की विधायकी चली गई थी, क्योंकि उन्हें हेट स्पीच के मामले में दोषी ठहराया गया था। इस कानून की धारा 8(3) में लिखा है कि अगर किसी सांसद या विधायक को दो साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो तत्काल उसकी सदस्यता चली जाती है और अगले 6 साल तक चुनाव लड़ने पर भी रोक लग जाती है।

लिली थॉमस वाला फैसला, जिस कारण गई सदस्यता
वर्ष 2005 में अधिवक्ता लिली थॉमस और लोक प्रहरी नाम के एनजीओ के महासचिव एसएन शुक्ला ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इस याचिका में जनप्रतिनिधि कानून की धारा 8(4) को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई थी। उन्होंने दलील दी कि यह धारा दोषी सांसदों-विधायकों की सदस्यता को बचाती है, क्योंकि इसके तहत अगर ऊपरी अदालत में मामला लंबित है तो फिर उन्हें अयोग्य नहीं करार दिया जा सकता। इस याचिका में उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 102(1) और 191(1) का भी हवाला दिया था। अनुच्छेद 102(1) में सांसद और 191(1) में विधानसभा या विधान परिषद को अयोग्य ठहराने का प्रावधान है। 10 जुलाई 2013 के अपने ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को असंवैधानिक ठहराते हुए कहा कि कम से कम 2 साल की सजा होने पर जनप्रतिनिधि की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म हो जाएगी। सजा खत्म होने की तारीख से अगले 6 साल तक वह चुनाव लड़ने के लिए भी अयोग्य होगा। इस फैसले से पहले तक आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जा चुके जनप्रतिनिधियों की सदस्यता तुरंत नहीं जाती थी। उन्हें सजा के ऐलान के बाद 3 महीने के भीतर उसे चुनौती देते हुए ऊपरी अदालत में जाना होता था। ऊपरी अदालत में जब तक उसकी अपील लंबित होती थी, तब तक उसकी सदस्यता नहीं जा सकती थी। अपील पर अंतिम फैसला आने तक उसकी सदस्यता खत्म नहीं हो सकती थी। अगर हाई कोर्ट ने भी सजा पर मुहर लगा दी तो उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने पर सदस्यता बच जाती थी। अगर सुप्रीम कोर्ट ने भी सजा बरकरार रखा तो रिव्यू पिटिशन लंबित होने तक उसकी सदस्यता बची रहती थी। दोषी प्रतिनिधि की सदस्यता तभी जाती थी जब उसके पास कोई कानूनी चारा नहीं बचता था यानी अपील पर भी अंतिम फैसला आ जाए और उसमें भी सजा बरकरार रहे। एक तो बरसों ऊपरी अदालत में मामला रहता था और ऐसे मामलों में जब तक सुप्रीम कोर्ट से रिव्यू पर फैसला आता तब तक संबंधित जनप्रतिनिधि का कार्यकाल निश्चित तौर पर खत्म हो जाता था।

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