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पिछड़ों पर दांव लगा आगे निकलने की होड़ 

पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। इन चुनावी राज्यों में सबसे अहम माना जा रहा उत्तर प्रदेश में सभी दल जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश करते दिख रहे हैं।

 

उत्तर प्रदेश में अब तक  भाजपा और सपा  के बीच पिछड़ों पर दांव लगाकर आगे निकलने की मैराथन दौड़ जारी है। तीनों दलों के अब तक घोषित प्रत्याशियों पर नजर डालें तो उसमें जहां सपा और भाजपा ने ओबीसी पर दांव लगाया है तो बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग पर दांव लगाया है। सपा ने अपनी रणनीति में बदलाव कर ओबीसी पर फोकस रखा है। समाजवादी पार्टी ने जब अपने नए साथी तय करने शुरू किए तब ही संकेत मिलने शुरू हो गए थे कि वह अब मुलायम सिंह यादव द्वारा तय एमवाई समीकरण से आगे निकलना चाहती है। अब एमवाई रहेगा लेकिन पहचान केवल उससे नहीं होगी।

अब इस समीकरण में गैरयादव ओबीसी पर मुख्य फोकस होगा। कुछ वैसे ही जैसे इन गैरयादव ओबीसी के भरोसे भाजपा ने वर्ष 2017 में  सफलता हासिल की थी। इसलिए समाजवादी पार्टी कई चरणों में 262 प्रत्याशियों की सूची जारी कर चुकी है। इसमें बड़ा हिस्सा इसी वर्ग का है । इसमें कुर्मी, निषाद, राजभर, शाक्य, प्रजापति जैसी तमाम पिछड़ी व अतिपिछड़ी जातियों को प्रतिनिधित्व दिया गया है। पांच साल पहले सत्ता में रही सपा चुनाव के वक्त पारिवारिक कलह से जूझती रही। जब यह सब शांत हुआ तो अखिलेश यादव ने अपने पिता के बनाए समीकरण को आगे बढ़ाया और राष्ट्रीय दल कांग्रेस को गले लगाया। सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में रहते हुए 311 सीटों पर चुनाव लड़ा। नतीजों से साफ रहा कि भाजपा की बिछाई सामाजिक जातीय समीकरणों के आगे एमवाई का अंकगणित नहीं चला। तब सपा को मात्र 48 सीट मिलीं। उसमें केवल एक महिला जीती। मुस्लिम प्रत्याशी 17 जीते। इस बार अखिलेश ने पिछले अनुभवों से सबक लिया और बड़े दलों से तौबा कर ली और पूरब से लेकर पश्चिम तक अपने -अपने इलाकों के जातीय क्षत्रपों को साथ ले लिया। इस वजह से सपा की सोशल इंजीनियरिंग पुख्ता दिखती है। लेकिन यह अभी कागजों में है। इन समीकरणों से कितने वोट ट्रांसफर होते हैं और इसे कर पाने सपा व सहयोगी दल कितना कामयाब होते हैं,दस मार्च को ही पता चलेगा।

 

सपा का फोकस एमवाई  

 

सपा के रणनीतिकार मान रहे हैं कि उनके मुस्लिम और यादव वोट बैंक उनके साथ बना हुआ है। यह कहीं शिफ्ट नहीं होगा। इसलिए इस पर ज्यादा मुखर होने की जरूरत नहीं है। गैरयादव पिछड़ी जातियों को साधे रखना व अपने पाले में लाना नए समीकरण का मकसद है। इस बार के टिकट वितरण में यह मंशा साफ दिखती है।

 

बसपा का सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला 

 

बसपा विधानसभा चुनाव में चार चरणों के लिए अब तक 232 उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है। उम्मीदवारों के अब तक के आंकड़ों को देखा जाए तो वह मुस्लिम और ओबीसी के सहारे मैदान की बाजी अपने पक्ष में मोड़ना चाहती है। बसपा ने इन चारों चरणों के लिए 69 प्रत्याशी अन्य पिछड़ा वर्ग और 58 मुस्लिम मैदान में उतारे हैं। बसपा को अभी तीन चरणों के लिए और उम्मीदवारों की घोषणा करनी है। अब देखना होगा इन चरणों में वह किसको आगे लेकर चलती है। हालांकि टिकट बंटवारे के फार्मूले को देखा जाए तो बसपा सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर आगे बढ़ रही है। बसपा उम्मीदवारों की सूची में 28 ब्राह्मणों को टिकट अभी तक दिया गया है। लखनऊ में दो कायस्थों को भी मैदान में उतारा गया है।

 

 पिछड़ों पर भाजपा ने भी लगाया दांव 

 

भारतीय जनता पार्टी अभी तक कई सूचियों के जरिए 295 उम्मीद्वारों के नामों की घोषणा  कर चुकी है। इसमें 104 ओबीसी चेहरों पर दांव लगाया है, जो 2017 की तुलना में कुछ कम हैं। यानी अभी तक घोषित सीटों में पार्टी ने पिछली बार 37 सीटें ओबीसी को दी थीं तो इस बार यह आंकड़ा 35.2 है। वहीं दलितों के हिस्से जाने वाली सीटों में भी अब तक छह सीट का इजाफा हुआ है। बाकी करीब 21 फीसदी सीटें पहले की तरह उनके हिस्से आई हैं। ठाकुर और ब्राह्मणों के हिस्से पहले जैसी ही हिस्सेदारी आई है। वहीं वैश्य को जहां पहले आठ फीसदी सीटें दी गईं थीं, वहीं इस बार यह आंकड़ा घटकर लगभग पांच प्रतिशत ही रह गया है।

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