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मशीनों के बजाए इंसानों से कराई जा रही है सेप्टिक टैंकों की सफाई

आज के इस आधुनिक युग में देशभर में गडरों , सेप्टिक टैंकों की सफाई मशीनों के बजाए इंसानों से कराई जाती है। जबकि इसे साल 2013 में हीप्रतिबंध कर दिया गया था,बावजूद इसके गडरों , सेप्टिक टैंकों की सफाई इंसानों से कराई जा रही है। जिसके चलते सैकड़ों सफाई कर्मचारी अपनी जान गवा चुके हैं।

समाजिक न्याय मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 6 वर्षो में इस तरह की सफाई करने के दौरान 347 लोगों की जान जा चुकी है । लोकसभा में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने माना है कि देश में अभी भी इंसानों से गंदे नालों को साफ कराने की प्रथा जारी है और इससे सैकड़ों लोगों की जान जा रही है। मंत्रालय ने यह भी बताया कि इस खतरनाक काम को करने के दौरान वर्ष 2017 में 92, 2018 में 67, 2019 में 116, 2020 में 19, 2021 में 36 और व 2022 में अभी तक 17 सफाई कर्मियों की जान जा चुकी है। यानी कोरोना महामारी के दौरान भी यह प्रथा चलती रही और आज भी चल रही है। इतना ही नहीं, यह प्रथा कोविड-19 महामारी की घातक पहली और दूसरी लहरों के बीच भी चल रही थी। कम से कम 18 राज्यों के आंकड़े मंत्रालय के पास हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक इन 6 वर्षो में इस तरह की सफाई के दौरान सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में 51 सफाई कर्मियों की जान गई है। दूसरे नंबर है तमिलनाडु का यहां 48 कर्मियों की जान जा चुकी है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 44, हरियाणा में 38, महाराष्ट्र में 34 और गुजरात में 28 सफाई कर्मचारी अपनी जान गवा चुके हैं।

इस प्रथा को बंद करने की मांग करने वाले ऐक्टिविस्टों का कहना है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में आज भी गंदे नालों और सेप्टिक टैंकों की सफाई इंसानों से करवाई जाती है।भारत सरकार इस पर खुद व्यक्त करती है लेकिन सच्चाई यह है कि इस समस्या के निवारण में कानून भी अभी दो कदम पीछे है। मैनुअल स्केवेंजर्स का रोज़गार और शुष्क शौचालय का निर्माण अधिनियम के तहत देश में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को वर्ष 2013 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन इस कानून में कुछ शर्तों के साथ गंदे नालों और सेप्टिक टैंकों की इंसानों द्वारा सफाई कराने की इजाजत है। लेकिन इन शर्तों के तहत सफाई के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों का इस्तेमाल अनिवार्य है। फिर भी अक्सर इस नियम का पालन नहीं किया जाता है। सफाई कर्मियों को बिना किसी सुरक्षा उपकरण के गडरों और टैंकों में उतरने के लिए कहा जाता है।


गौरतलब है कि गडरों में लंबे समय से गंदगी होने की वजह से जहरीली गैसें बन जाती है और अक्सर यही गैस सफाई कर्मियों की जान ले लेती है। कई स्थानों पर अब इस तरह की सफाई के लिए मशीनों और रोबोटों के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है। मंत्रालय ने भी अपने जवाब में बताया कि केंद्र सरकार की वैज्ञानिक शोध संस्था सीएसआईआर ने एक मशीनी सीवेज सफाई प्रणाली बनाई गई है जिसका इस्तेमाल 5000 और उससे ज्यादा जनसंख्या के घनत्व वाले शहरी और स्थानीय निकाय कर सकते हैं।

मंत्रालय के मुताबिक इस प्रणाली को कंपनियों को औद्योगिक उत्पादन के लिए दे दिया गया है। लेकिन इसका इस्तेमाल अभी तक व्यापक तौर पर नहीं किया जा रहा है। इस पर लोगों का कहना है कि सरकार द्वारा सिर्फ मैला ढोने पर प्रतिबंध लगाने से काम नहीं चलेगा और सीवर-सेप्टिक टैंकों की इंसानों द्वारा सफाई पर भी रोक लगाना चाहिए। इस पर रमोन मैगसेसे पुरस्कार विजेता और सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन ने इस मांग को लेकर एक आंदोलन भी छेड़ा है। इसके साथ उनका कहना हैए कि संसद के सत्र दर सत्र इस देश के मासूम नागरिक सीवरों और सेप्टिक टैंकों में मारे जाते हैं और संसद ये सब चुप रहकर देखती रहती है।

 

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