‘चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात’, कुछ ऐसी ही स्थिति है सपा-बसपा के नए-नवेले कथित महागठबन्धन की। दोनों ही दलों का चरित्र ऐसा है कि तमाम दावों-वायदों के बावजूद एक-दूसरे के प्रति विश्वास की वह बात कहीं नजर नहीं आती। दोनों ही दलों के प्रमुख इतने अधिक महत्वाकांक्षी हैं कि यदि किसी एक दल को अधिक सीटें मिलीं तो निश्चित तौर पर वह स्वयं को अपने साथी दल से महान साबित करने में कोई कसर नहीं छोडे़गा और वहीं से पडे़गी महागठबन्धन मे दरार।
मानो या न मानो ये गठबन्धन तो मजबूरी का ही है। भले ही इस गठबन्धन की असलियत लोकसभा चुनाव के दौरान नजर न आए लेकिन यूपी के अगले विधानसभा चुनाव में इस गठबन्धन की हकीकत खुद-ब-खुद उजागर हो जायेगी।
यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि बसपा प्रमुख मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव दोनों ही हद से अधिक महत्वाकांक्षी हैं। अपना महत्वाकांक्षा के आगे उन्होंने अपने रिश्तों तक की बलि देने से संकोंच नहीं किया है। जाहिर है जब यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री पद को लेकर बहस छिडे़गी तो निश्चित तौर पर इन दोनों में से कोई बैकफुट पर नहीं जायेगा। महत्वकांक्षा का इससे बड़ा सुबूत और क्या हो सकता है कि भले ही इन दलों का कोई भी प्रमुख पीएम बनने की दौड़ में शामिल न हो लेकिन प्रेस वार्ता के दौरान पत्रकारों द्वारा पूछे गए एक सवाल पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव का इस मुद्दे पर स्पष्ट जवाब न देना साफ दर्शाता है कि उनकी महत्वाकांक्षा किसी प्रकार का समझौता करने के लिए तैयार नहीं। याद दिला दें कि जब पत्रकारों ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव से यह पूछा कि वे पीएम पद के लिए किसका समर्थन करेंगे? इस पर अखिलेश यादव ने गोलमोल जवाब देते हुए कहा कि आप पत्रकार बंधु अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं किसका नाम लूंगा, लेकिन उन्होंने नाम बताने के बजाए सिर्फ इतना ही कहा कि जो भी होगा वह यूपी का ही होगा। गौरतलब है कि यह जवाब उन्हीं अखिलेश यादव का था जो इस प्रश्न के कुछ क्षण पहले ही इस बात की गर्जना कर रहे थे कि मायावती का अपमान वे अपना अपमान समझेंगे और किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेंगे। जो नेता कुछ ही क्षणों में दिल के बजाए दिमाग से खेल कर गया वह गठबन्धन के रिश्ते को कब तक निभा पायेगा? इस पर सन्देह है। बताना जरूरी हो जाता है कि गठबन्धन को लम्बे समय तक निभाने का दावा करने वाले ये वही अखिलेश यादव हैं जिन्होंने अपने पिता-चाचा की मेहनत पर खड़ी हुई पार्टी को हथियाने के लिए उन्हें बेरहमी से पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया और स्वयं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठे। ये वही संस्कारी अखिलेश यादव हैं जिन्होंने अपने चाचा को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए उनके बारे में न जाने क्या-क्या कहा। सपा के कुछ पुराने कार्यकर्ता तो यहां तक कहते हैं कि वर्ष 2012 में यूपी का मुख्यमंत्री बनने के लिए अखिलेश यादव ने ही अपने पिता मुलायम सिंह यादव पर नाजायज दबाव बनाया था। बताया जाता है कि भावनात्मक आधार पर ब्लैकमेलिंग करके मुलायम को वह करने पर मजबूर कर दिया था जो वह नहीं करना चाहते थे। ये वही अखिलेश यादव हैं जिन्होंने अपने पिता और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के उन तमाम मित्रों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जो भविष्य में उनके लिए मुसीबत का सबब बन सकते थे।
कमोवेश कुछ ऐसा ही हाल बसपा प्रमुख मायावती का भी है। मायावती ने बसपा पर एकछत्र राज कायम करने की गरज से पार्टी के संस्थापक और अपने कथित राजनीतिक गुरु कांशीराम के खिलाफ तमाम षडयंत्र रचे। कांशीराम का परिवार तो इन्हें हत्यारा तक साबित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाता रहा। ये वही मायावती हैं जिन्होंने पार्टी के उन विश्वासपात्रों को सिर्फ इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि फलां नेता बसपा पर कब्जा जमा सकते हैं। ये वही मायावती हैं जिन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेता आरके चैधरी से लेकर नसीमुद्दीन सिद्दीकी और स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे दिग्गजों को इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया क्योंकि ये नेता मायावती के पश्चात पार्टी को हथियाने की कूवत रखते थे। ये वही मायावती हैं जो आज भी बसपा को अपनी जेबी संस्था मानती हैं और उनके अलावा पार्टी के किसी अन्य नेता को मीडिया के समक्ष बोलने की आजादी आज भी उनके शब्दकोष में नहीं दी गयी है।
ऐसे दलों के प्रमुखों के बीच महागठबन्धन की नींव कितनी मजबूत होगी? इसका आंकलन स्वतः लगाया जा सकता है।