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फंसाने के चक्कर में खुद फंस गए अधिकारी 

यूपी में सरकारें भले ही आती-जाती रही हों लेकिन विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों के चरित्र में कोई प्रभाव नजर नहीं आता। यही हाल यूपी पुलिस का भी है। मुख्यमंत्री लाख चेतावनी देते रहें लेकिन यूपी पुलिस अपनी हरकतों से बाज नहीं आती। विभागीय अधिकारियों और पुलिस के गठजोड़ से उत्पन्न भ्रष्टाचार का यह मामला राजकीय नागरिक उड्डयन (लखनऊ, उत्तर प्रदेश) के एक कर्मचारी के शोषण से सम्बन्धित है।
देवेन्द्र कुमार दीक्षित नाम के एक कर्मचारी का शोषण करने में सम्बन्धित विभाग के अधिकारी इतने निम्न स्तर पर उतर आए कि उन्होंने कर्मचारी को सबक सिखाने के लिए फर्जी दस्तावेज तक तैयार कर डाले। जब इस फर्जीवाडे़ का खुलासा हुआ और भुक्तभोगी स्थानीय थाने में प्राथमिकी दर्ज कराने गया तो वहां भी विभाग के अधिकारियों का प्रभाव नजर आया। यदि कोर्ट के आदेश न होते तो निश्चित तौर पर यह मामला एक कर्मचारी की शहादत के साथ ही दफन हो गया होता। इस पूरे फर्जीवाड़े की जानकारी भुक्तभोगी कर्मचारी को थी और वह समस्त दस्तावेजों के साथ थाने के चक्कर लगाता रहा लेकिन किसी ने नहीं सुनी। जब कोर्ट का दबाव पड़ा और दोबारा मामले की विवेचना हुई तो विभाग के ही एक अधिकारी द्वारा बिछाए गए जाल के एक-एक तार निकलते चले गए। यहां तक कि आईएएस अधिकारियों के नाम से जारी फर्जी आदेशों की भी पुष्टि हो गयी। दोबारा हुई विवेचना में विवेचनाधिकारी ने इस बात की पुष्टि कर दी कि पूर्व में की गयी विवेचना पूरी तरह से सतही तौर पर की गयी थी और बिना विधिक अभिमत प्राप्त किए अन्तिम रिपोर्ट भी प्रेषित कर दी गयी। स्पष्ट है कि पूर्व में जिस विवेचनाधिकारी ने विवेचना के उपरांत अन्तिम रिपोर्ट प्रस्तुत की उसके सम्बन्ध विभाग के उस अधिकारियों से अवश्य रहे होंगे जिसने एक कर्मचारी को अनावश्यक दण्ड देने की गरज से सेवा से पृथक करने जैसे फर्जी आदेश जारी किए और वह भी एक नहीं दो-दो आईएएस अधिकारियों के नाम से। मामला यहीं तक सीमित नहीं है स्थिति यह है कि आईएएस के नाम से फर्जी आदेश पत्र जारी करने वाला अधिकारी आईपीसी एक्ट की धाराओं 419,420,467,468 एवं 471 में नामजद होने के बावजूद विभाग में शान से नौकरी कर रहा है जिसे फर्जी आदेश पत्र के आधार पर नौकरी से निकाला गया वह वर्ष 2002 से यानी तकरीबन डेढ़ दशक से सिर्फ इस बात को ही साबित करने की कोशिश में लगा है कि उसे नौकरी से पृथक किए जाने का जो आदेश जारी किया गया है वह फर्जी। दस्तावेजों के आधार पर विवेचनाधिकारी की जांच रिपोर्ट भी यही कहती है कि पूर्व में की गयी विवेचना सतही तौर पर की गयी थी लिहाजा पूर्व में जारी हुई एफआर (फाइनल रिपोर्ट) को रोककर कुछ विशेष बिन्दुओं पर पुनः जांच करवायी जाए।
यह भी जान लीजिए के देवेन्द्र दीक्षित नाम के इस कर्मचारी का दोष क्या था। देवेन्द्र दीक्षित की मुश्किलें उसकी नियुक्ति काल वर्ष 1987 से ही शुरु हो गयी थीं। या यूं कह लीजिए कि राजकीय नागरिक उड्डयन विभाग में पहले से ही चला आ रहा भ्रष्टाचार इस कर्मचारी पर भी अपना असर दिखा गया तो शायद गलत नहीं होगा।
देवेन्द्र दीक्षित का कहना है कि उसने कनिष्ठ लिपिक के पद हेतु लिखित परीक्षा दी। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात जब उसे नियुक्ति पत्र थमाया गया तो उसमें उसकी नियुक्ति चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में अंकित थी। जब इस त्रृटि को चुनौती दी गयी तो उसे 28 अगस्त 1987 को कनिष्ठ लिपिक के पद पर नियुक्ति दी गयी लेकिन कर्मचारी का यह दुस्साहस अधिकारियों को रास नहीं आया और शायद तभी से अधिकारियों ने उसे सबक सिखाने की ठान ली थी, बस मौके की तलाश भर थी।
देवेन्द्र दीक्षित को उड़ान प्रशिक्षण से सम्बन्धित सबसीडी का कार्य दिया गया। श्री दीक्षित का कहना है कि कार्य के दौरान उन्हें जानकारी मिली कि विभागीय अधिकारियों और कुछ कर्मचारियों द्वारा विभाग को पिछले कई वर्षों से लाखों की क्षति पहुंचायी जा रही है। श्री दीक्षित ने जब दस्तावेजों के आधार इसका खुलासा मीडिया के माध्यम से किया और अधिकारियों को भी इस सम्बन्ध में अवगत कराया तो अधिकारियों ने उसकी पीठ थपथपाने के बजाए उसे इस खुलासे के एवज में दण्ड देने का मन बना लिया। जाहिर है अधिकारी इस भ्रष्टाचार में बराबर के जिम्मेदार होंगे तभी श्री दीक्षित की पीठ थपथपाने के बजाए उसे दण्डित करने की प्रक्रिया में जुट गए। श्री दीक्षित को विभाग के गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के अपराध में दोषी ठहराते हुए 16 मार्च 1988 को निलम्बित कर दिया गया लेकिन विभाग की तरफ से चार्जशीट नहीं दी गयी, ऐसा इसलिए कि यदि श्री दीक्षित को चार्जशीट दी जाती तो निश्चित तौर पर विभाग के कई अधिकारियों के फंसने का भय था लिहाजा महज एक सप्ताह के भीतर ही 23 मार्च 1988 को श्री दीक्षित से जबरदस्ती माफीनामा लिखवाकर बहाल कर दिया गया लेकिन अधिकारियों के स्तर पर श्री दीक्षित को परेशान किए जाने का सिलसिला बरकरार रहा। सेवाकाल के दौरान श्री दीक्षित को मानसिक रूप से परेशान करने की गरज से उनसे कनिष्ठ कर्मचारियों को प्रोन्नति दी जाती रही।
इस दौरान श्री दीक्षित का जहां कहीं तबादला किया गया वहीं पर उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठायी। चाहें अलीगढ़ में राइट्स जैसी कार्यदायी संस्था के माध्यम से गोलमाल किए जाने का मामला हो या फिर तकनीकी प्रभाग में वायुयानों/हेलीकाॅप्टर की खरीद में भ्रष्टाचार का मामला, श्री दीक्षित जहां कहीं रहे वे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहे, लिहाजा अधिकारी वर्ग हमेशा उनसे खफा रहा।
चूंकि सरकारी धन की लूट का यह सारा खेल विभाग के आला अधिकारियों के संज्ञान में चल रहा था लिहाजा आला अधिकारी चुप्पी साधे बैठे रहे लेकिन नुजहल अली नाम के विभाग के तत्कालीन वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी जो अब विभाग में उपनिदेशक (राजकीय नागरिक उड्डयन) के पद पर विराजमान हैं, ने श्री दीक्षित को सबक सिखाने की गरज से ऐसा खेल खेला कि अब यह खेल उन्हीं के गले की हड्डी बन चुका है।
उच्च स्तर पर धोखाधड़ी से जुड़ा यह खेल कुछ इस तरह से खेला गया। 04 नवम्बर 2002 को प्रदीप कुमार नाम के महानिदेशक द्वारा हस्ताक्षरित सेवा से पृथक करने सम्बन्धी आदेश वाला पत्र भुक्तभोगी कर्मचारी को दिया जाता है। पत्र हाथ में आते ही कर्मचारी को आभास हो जाता है कि ये पत्र फर्जी तरीके से तैयार किया गया है क्योंकि उस वक्त प्रदीप कुमार नाम का अधिकारी महानिदेशक के पद पर था ही नहीं। फर्जीवाड़े को चुनौती देने के लिए भुक्तभोगी श्री दीक्षित की तरफ से माननीय उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ में (याचिका संख्या 7197(एसएस)/2002) में चुनौती दी जाती है। हालांकि इस फर्जीवाडे़ से सम्बन्धित समस्त दस्तावेज हाई कोर्ट में दिए जा चुके थे फिर भी यह याचिका लगभग डेढ़ दशक का समय पूरा करने के बावजूद लम्बित है। इस सम्बन्ध में विभाग की तरफ से शपथ पत्र दाखिल किया गया कि टंकण त्रृटि के कारण प्रदीप कुमार टंकित हो गया जबकि उक्त आदेश प्रदीप शुक्ला (आईएएस) द्वारा जारी किए गए थे। यह शपथ पत्र भी पूरी तरह से झूठ के आधार पर था क्योंकि जिस भुक्तभोगी को सेवा से पृथक करने सम्बन्धी पत्र दिया जाता है उस वक्त प्रदीप शुक्ला (आइएएस) भी महानिदेशक के पद पर कार्यरत नहीं थे, इसका खुलासा हुआ आरटीआई से प्राप्त जानकारी से। 15 दिसम्बर 2017 को जो सूचना दी गयी उसमें कहा गया है कि 09 नवम्बर 2002 को प्रदीप शुक्ला का तबादला महानिदेशक उड्डयन के पद से महानिरीक्षक कारागार के पद पर कर दिया गया था लिहाजा ऐसी सूरत में उनके आदेश से किसी कर्मचारी को सेवा से पृथक करने का आदेश कैसे जारी हो सकता था। कारागार विभाग से इस बात की पुष्टि भी कर दी गयी थी। इस लिहाजा से देखा जाए तो विभाग के कर्मचारी श्री दीक्षित को सेवा से पृथक करने का जो आदेश जारी हुआ था वह न तो किसी प्रदीप कुमार के हस्ताक्षार से जारी हुआ था और न ही आईएएस अधिकारी प्रदीप शुक्ला की तरफ से। स्पष्ट है कि उक्त आदेश पूरी तरह से फर्जी थे और प्रदीप कुमार (आइएएस) के फर्जी हस्ताक्षर बनाकर भुक्तभोगी को थमाया गया था।
भुक्तभोगी कर्मी डीके दीक्षित का कहना है कि फर्जीवाडे़ से सम्बन्धित यह समस्त कार्य विभाग के तत्कालीन वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी नुजहत अली के द्वारा अंजाम दिया गया था।
इस सम्बन्ध ने नुजहत अली के खिलाफ 04 जनवरी 2018 को थाना सरोजनीनगर में प्रार्थना पत्र देकर मुकदमा पंजीकृत करने की गुजारिश की गयी लेकिन सरोजनी नगर पुलिस ने दस्तावेजों की मौजूदगी के बावजूद नुजहत अली के खिलाफ मुकदमा पंजीकृत नहीं किया, लिहाजा भुक्भोगी को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (लखनऊ) के समक्ष प्रार्थना पत्र देकर गुजारिश की गयी। यह प्रार्थना पत्र 09 जनवरी 2018 को दिया गया था। वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने भी भुक्तभोगी की गुहार को सिरे से नजरअंदाज कर दिया और उसके प्रार्थना पत्र पर ध्यान दिए बगैर ही उसे बैरंग लौटा दिया। बताते चलें कि दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 154 के तहत शिकायती प्रार्थना पत्र में वर्णित तथ्य ही पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अन्वेषण किए जाने के लिए पर्याप्त हैं। खासतौर से जब प्रस्तुत मामले में प्रार्थी द्वारा तमाम साक्ष्य एवं दस्तावेज लगाए गए हों तो एफआईआर दर्ज करने की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।
इस प्रकरण के बाद मामला जब खुला तो परत दर परत खुलती चली गयी। आखिरकार पुनः विवेचना में इस बात की पुष्टि हो गयी कि पूर्व में जो अन्तिम रिपोर्ट प्रस्तुत करके एफआर लगाने की कोशिश की गयी थी वह अत्यंत आपत्तिजनक थी लिहाजा उक्त अभियोग में प्रेषित की गयी एफआर को रोककर एक बार फिर से विवेचना कराया जाना सुनिश्चित किया जाए।
फिलहाल नुजहत अली नााम के अधिकारी द्वारा अपने अधीनस्थ एक कर्मचारी को हनक दिखाना उन्हें मुश्किल में डालता नजर आ रहा है। दावा किया जा रहा है कि यदि कोर्ट ने सख्त रुख अपना लिया तो निश्चित तौर पर नुजहत अली के खिलाफ कानूनी कार्रवाई रोकी नहीं जा सकती। कहा तो यहां तक जा रहा है कि मामला खुलते ही कई बड़े अधिकारी भी गिरफ्त में आयेंगे।

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