विश्व भर में समलैंगिक संबंधों को अब संवेदनशील नजरिए से देखा जा रहा है। भारत में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा आईपीसी की धारा 377 को वर्ष 2018 में खत्म कर दिया गया था । जिसके तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध की कैटेगरी से बाहर कर दिया गया। हालांकि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं दी गई है। लेकिन इसी संदर्भ में अब केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह की मान्यता का विरोध किया है, यह तर्क देते हुए कि समलैंगिक विवाह एक मौलिक अधिकार नहीं हो सकता है, क्योंकि सभी व्यक्तिगत कानून एक पुरुष और एक महिला के बीच विवाह को मान्यता देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में केंद्र सरकार ने आशंका जताई है कि समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने से पर्सनल लॉ और स्वीकृत सामाजिक मानदंडों के बीच संतुलन बिगड़ जाएगा। समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने की मांग वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट 18 अप्रैल को सुनवाई करेगा। इसके लिए कोर्ट ने केंद्र से राय मांगी थी।
केंद्र सरकार ने कहा कि याचिकाकर्ता यह दावा नहीं कर सकते कि समलैंगिक विवाह एक मौलिक अधिकार है, भले ही समलैंगिक संबंधों को अनुच्छेद 377 के तहत कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त है। केंद्र ने यह मुद्दा उठाया कि समलैंगिक विवाह को न तो किसी पर्सनल लॉ के तहत मान्यता दी जाती है और न ही इसे स्वीकार किया जाता है। विवाह की मूल अवधारणा के अनुसार यह व्यक्तियों के बीच अंतर करना है और इस अवधारणा का सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी आधार है। केंद्र सरकार ने कहा है कि न्यायपालिका के दखल से इसमें बाधा नहीं आनी चाहिए।
इस हलफनामे में भारत में हिंदू धर्म और इस्लाम जैसे प्रमुख धर्मों के साथ मिताक्षरा, दयाभंग जैसी धर्म की शाखाओं में विवाह से संबंधित रीति-रिवाजों का जिक्र किया गया है। केंद्र सरकार के मामले में, 2018 में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने फैसला सुनाया कि समलैंगिक विवाह संविधान के अनुच्छेद 377 से बाहर था। इस धारा के तहत निजी तौर पर दो वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध बनाना अपराध था। इस धारा को खारिज करते हुए निर्वाला बेंच ने कहा था कि समलैंगिकता कोई अपराध नहीं है।
विवाह की मूल अवधारणा के अनुसार यह व्यक्तियों के बीच किया जाना चाहिए। विषमलैंगिक विवाह की अवधारणा का सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी आधार है। केंद्र सरकार ने कहा है कि न्यायपालिका के दखल से इसमें बाधा नहीं आनी चाहिए।