‘चो ख पुरावो, मारी रंगावो, आज मेरे पिया घर आवेंगे ़ ़ ़’, बहे खून मेरा चमन के लिए, मेरी जान जाए वतन के लिए ़ इन सभी गीतों के साथ-साथ सरकारी स्कूल के छात्रों ने राग वृंदावनी गाकर सभागार में उपस्थित लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। नवंबर 14 और 15 को आयोजित हुआ ‘उम्मीदों का उत्सव µ पाखी महोत्सव’ दो दिवसीय कार्यक्रम में पहले ही दिन स्लम और सरकारी स्कूल से आये नन्हें बच्चों ने ‘देश की शान’ शूटर दादी प्रकाशी तोमर के साथ दीप प्रज्जवलित कर कार्यक्रम का आगाज किया। राजकीय सर्वोदय बाल/कन्या विद्यालय वेस्ट विनोद नगर से आए छात्रों ने अपनी सुरीली आवाज में गीत गाकर लोगों का मन मोह लिया।
विद्यालय के प्रधानाचार्य डाॅ एलके दुबे ने कहा कि आज सरकारी स्कूल के बच्चों को एक बड़े मंच पर परफाॅर्म करने का मौका मिला। इसके लिए मैं ‘पाखी’ परिवार का आभारी हूं। निश्चित तौर पर बच्चों के इस सर्वांगीण विकास में मौजूदा दिल्ली सरकार का महत्वपूर्ण योगदान है।
निसार इटावी ने क्या खूब कहा है कि वही हकदार हैं किनारों के, जो बदल दे बहाव धारों के। क्योंकि कुछ ऐसा ही साबित कर दिया स्लम से आये होनहार बच्चों ने। योग में विश्व स्तर पर प्रसिद्ध ‘स्लम गाॅट टैलेंट’ बच्चों ने जब कार्यक्रम प्रस्तुत किया तो सभी दर्शकों ने खड़े होकर तालियां बजाकर उनकी मेहनत को सलाम किया।
जीवन का उत्साह ही उत्सव है। यही उत्साह साहित्यिक पत्रिका पाखी की ओर से आयोजित ‘उम्मीदों का उत्सव’ में भी झलका। हाशिये पर पड़े स्लम क्षेत्रों और सरकारी स्कूल के बच्चों को उत्सव में प्रतिभा दिखाने का मंच मिला तो उनमें गजब का उत्साह दिखाई दिया। विचार गोष्ठियों में बुद्धिजीवियों ने आश्वस्त किया कि भविष्य की राह में आशंकाएं हैं तो उम्मीदें भी हैं। मीडिया के अपने स्वार्थ हो सकते हैं, पर पत्रकारिता बची रहेगी। मंचीय कवियों की भरमार के बावजूद अच्छी कविताएं रची जाती रहेंगी। सम्मान के हकदार वे ही होंगे जिनके सरोकार समाज के प्रति रहेंगे। 14-15 नवंबर को नोएडा के इंदिरा गांधी कला केंद्र में आयोजित ‘पाखी महोत्सव’ के विविध रंग प्रस्तुत कर रही हैं पाखी की
सह संपादक शोभा अक्षर
स्लम गाॅट टैलेंट के निर्देशक अख्तर खान ने बताया कि यह सभी बच्चे बेहद गरीबी में पले -बढ़े हैं। कुछ तो अपने मां-बाप के स्नेह से भी दूर रहे। फिर भी मेरा प्रयास है कि मंचों के माध्यम से इनके जज्बों में लगातार जान भरी जा सके। दो दिवसीय कार्यक्रम की शुरुआत हुई ‘भारत के भविष्य’ विषय पर चर्चा से। जहां शिक्षाविद्, नेता, अभिनेता, समाजसेवी आदि लोगों ने खुलकर अपने विचार रखे। देश की राजधानी दिल्ली के शिक्षामंत्री ने कहा कि देश में सिर्फ पांच प्रतिशत बच्चों को ही अच्छी शिक्षा मिल रही है। बाकियों को सिर्फ कामचलाऊ ही मिल रही है। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा कि बड़े और संपन्न राष्ट्र के लिए शिक्षा के प्रति समर्पण जरूरी है। राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा नियम बनाना चाहिए, जिससे यह तय हो सके कि देश के सभी स्कूलों में न्यूनतम सुविधाएं और गुणवत्ता के मानक तय हो सकें। वह बाल दिवस पर गुरुवार को सेक्टर-6 स्थित इंदिरा गांधी कला केंद्र में पाखी की ओर से आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम उम्मीदों का उत्सव में मौजूद लोगों को संबोधित कर रहे थे।कार्यक्रम के दूसरे सत्र में भविष्य का भारत (उम्मीदें और आशंकाएं) विषय पर आयोजित गोष्ठी में मनीष सिसौदिया ने कहा कि फैंटेसी से बचते हुए बच्चों को पढ़ाने का फैसला और उस फैसले पर अड़े रहने का संकल्प ही भावी पीढ़ी को शिक्षित बनाने का मूलमंत्र है। उन्होंने कहा कि हमारी किसी एक पीढ़ी ने मुश्किल फैसला किया होगा। वह चाहे हमारे पिता की पीढ़ी हो या दादा की या फिर उसके पहले की पीढ़ी। जिस पीढ़ी ने बच्चों को शिक्षित बनाने का फैसला किया, उसके बाद आगे की पीढ़ी तर गई और उसके आगे की पीढ़ी तरती चली जाएगी। मौजूदा समय में जो सफल हैं, उनकी किसी एक पीढ़ी ने ऐसा ही फैसला लिया होगा। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा कि मौजूदा समय में पांच फीसदी बच्चों को ही अच्छी शिक्षा मिल पाती है, जबकि 95 फीसदी को काम चलाऊ शिक्षा। उन्होंने माना कि कहने को देश में बेशक आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान हैं, लेकिन क्वालिटी एजुकेशन की बात करने वालों से सवाल भी है कि आखिर देश में कितने छात्र-छात्राओं को अच्छी शिक्षा मिल पा रही है। दिल्ली की ही बात करें तो यहां के सरकारी स्कूलों में ब्लैक बोर्ड और वाशरूम जैसी सुविधाएं नहीं थीं।कार्यक्रम में मौजूद डाॅ राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ मनोज दीक्षित ने कहा कि ज्ञान गांवों से निकलता है। शहरों में सिर्फ कोर्स पूरा कराया जाता है। उन्होंने देश में समान शिक्षा प्रणाली की पैरवी करते हुए कहा कि देश में सच्चाई से जो शहर सबसे दूर है, वह दिल्ली है। नीति नियंताओं को समझना होगा कि देश दिल्ली से बड़ा है। हम आमतौर पर बेचारा उसी को कहते हैं, जो आर्थिक रूप से पिछड़ा होता है। बेचारा वह नहीं समझा जाता है जो गुणात्मक रूप से पिछड़ा होता है। डाॅ मनोज दीक्षित ने कहा कि हमें देश के कलाकारों किसानों और हर गुणशील व्यक्ति का सम्मान करना होगा क्योंकि यही हमारी पहचान है। भारत की पहचान कभी आर्थिक ताकत के तौर पर नहीं रही है। हमारी अर्थव्यवस्था पांच नहीं 10 ट्रिलियन डाॅलर भी हो जाए तो भी हमें उस रूप में नहीं पहचाना जाएगा। हमारी पहचान हमारी संस्कृति और हमारी विरासत है। उन्होंने कहा कि ऐसा दिखाया जाता है कि शहरी अमीर और ग्रामीण गरीब है। जहां से तिलहन, दलहन, गन्ना, गेहूं, धान और दूसरे अनाज आते हैं, वहां विकास नहीं होता है। जहां से अर्थव्यवस्था चली, वहां पर विकास न कर वहां विकास किया जा रहा है, जहां ईंधन का भोजन किया जाता है। डाॅ ़दीक्षित ने कहा कि अमेरिका में केवल चार प्रतिशत लोग खेती करते हैं। उनके पास जो सुविधाएं हैं, वैसी किसी के पास नहीं। लेकिन, हम उलटा करते हैं। बीच वाले को सबसे अधिक लाभ देते हैं, जिसका कोई योगदान नहीं होता है, और वह है बिचैलिया। हमने विश्व का माॅडल अपनाया, जबकि भारत का माॅडल अपनाए बिना देश की बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि हमारा यह दायित्व समाज के प्रति भी है। हमें लर्न और अर्न के बाद जिम्मेदारी निभाते हुए परिवार और समाज को रिटर्न करना होगा। क्योंकि वन वे ट्रैफिक में जाम का लगना स्वाभाविक होता है।
बाॅलीवुड के हास्य कलाकर और सर्व समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजपाल यादव ने कहा कि बच्चों को अच्छी शिक्षा और देश के विकास के लिए हमें अपनी मानसिकता मानसिकता बदलने की जरूरत है। आज से 10-15 साल पहले सिर्फ बड़े शहरों से ही क्रिकेट के खिलाड़ी आते थे। तब हम उनकी जीत के लिए प्रार्थना करते थे। लेकिन, अब देश के छोटे शहरों से खिलाड़ी निकलकर सामने आए। अब पूरी दुनिया के लोग भारत के खिलाफ जीत के लिए प्रार्थना करते हैं। यह मानसिकता में बदलाव से ही संभव हुआ। उन्होंने पूरे देश में एक जैसी शिक्षा प्रणाली की पैरवी की। भाजपा नेता राजा बुंदेला बच्चों की शिक्षा पर कम और भाजपा की योजनाओं के प्रचार पर अधिक बोले। उन्होंने शौचालय और आवास जैसी योजनाओं को जिक्र किया और विरोधियों पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि जो नकारे थे, 70 साल के बाद अब घर बैठे हैं। हमने लाल किले से जो कहा, वो किया। हम कमियों से लड़ रहे हैं। विरोधी सब एक होकर लड़ रहे थे, फिर भी हम 300 के पार आए, आगे हम 400 के पार होंगे। देश सुरक्षित तब है, जब हम और आप सामूहिक जिम्मेदारी उठाने को तैयार हों और सोच बदलें। उन्होंने कहा कि किसी बच्चे की तस्वीर और तकदीर बदलने के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है।
कार्यक्रम के संयोजक अपूर्व जोशी ने कहा कि आशंकाएं बढ़ रही हैं। उम्मीदें कम हो रही हैं। ऐसे में उम्मीदों की ‘पाखी’ की उड़ान जरूरी है। वह कहते हैं कि देश बहुत बड़ा है। लोग बहुत अधिक हैं। लोगों की उम्मीदें भी अधिक हैं। उन्हें पूरा करने के साधन सीमित हैं। लेकिन, यह भी सच है कि इन्हीं के बीच से प्रतिभाएं आती हैं, जो हमें जीवन में रोशनी का नया रास्ता दिखाती हैं। ‘पाखी’ की भी यही कोशिश है कि कोई ऐसा पंख के जाए, जिससे पूरा देश खासतौर से हमारे बच्चे परवाज कर सकें। अगले सत्र की संगोष्ठी में ‘समय के आईने में कश्मीर’ पर चर्चा हुई। कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू होने से पहले कश्मीर घाटी के साहित्यिक माहौल के बारे में हिन्दी कवि और लेखक डाॅ अग्निशेखर ने अपनी यादें साझा की। लेखक, अशोक कुमार पांडेय ने कहा कि मौजूदा कश्मीर के हालात से इतर कश्मीर के इतिहास के पन्नों को कश्मीरनामा के जरिए पलटना शुरू करेंगे तो आपकी रूह कांप जाएगी। यही कि जिस आजादी के नारे तले अब आतंकवाद की बारूदी लौ नजर आती है, उस आजादी का जिक्र कैसे सदियों से कश्मीर में गूंजता रहा है। लेखक, अनिल आनंद ने कहा कि आजादी के बाद नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को जेल पहुंचाया और आजादी से 15 दिन पहले गांधी जी ने शेख की रिहाई के लिए कश्मीर की यात्रा भी की। 1943 में मीरपुर में हुए नेशनल काॅन्फ्रेंस के चैथे अधिवेशन में उन्हीं शेख ने कहा, ‘‘एक मुसलमान की तरह हमें भरोसा होना चाहिए कि हिंदुस्तान हमारा घर है। वरिष्ठ पत्रकार, शेष नारायण सिंह ने इस संगोष्ठी का संचालन किया।
चतुर्थ सत्र की संगोष्ठी में ‘लेखक और लेखन की ज़मीन’ पर चर्चा हुई। जिसमें साहित्यकार प्रो श्योराज सिंह ‘बेचैन’ ने कहा कि आज स्थिति ज्यादा बेहतर भी है और आंशिक रूप से बुरी भी। बेहतर इसलिए कि नवलेखन में कहानी को लेकर कहें तो शिल्प के स्तर पर बड़ा काम हुआ है, लेकिन बुरा यह हुआ कि अब सब कुछ बाजार के हवाले होता जा रहा है। अधिकांश युवा लेखकों के आदर्श प्रेमचंद, रेणु नहीं, बल्कि चेतन भगत हैं। सस्ती लोकप्रियता ज्यादा आकर्षित करती है। जैसे समाज और जीवन में मूल्य खत्म हो रहे हैं उसका असर रचनात्मकता पर भी पड़ रहा है। यह एक दुखद स्थिति है। सब कुछ बाजार के हवाले है। लेकिन अधिकांश लेखक खुश हैं और गर्व से कहते हैं कि यह विकास है वरना क्या अभी भी बैलगाड़ी युग में रहा जाए? बाजार जो विकास दे रहा है, उसका मूल्य हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिता को केंद्र मेंरखकर चुकाना पड़ रहा है। भाषा, समाज और संस्कृति की चिंता किसी को नहीं है, यह दुखद स्थिति है। दरअसल हर कालखंड में साहित्य के सामने चुनौतियां भिन्न- भिन्न होती हैं। आज पूर्व साहित्यकारों के नेतृत्व से गहन अंतर्दृष्टि और सरोकारों के साथ संबंध नहीं बन पा रहे हैं। प्रत्येक के अपने निजी आग्रह वैशिष्टय प्रकट होने लगे हैं। लिखे हुए की सार्थकता इसी में है कि बाद के लेखक उससे एक रचनात्मक चुनौती हासिल कर सकें। दरअसल, लेखन सामाजिकता में शामिल होकर खुद की तलाश का आध्यात्मिक और मौलिक तरीका है। श्योराज सिंह ने कहा कि दलित साहित्य को दलित लेखक ज्यादा अच्छे से लिख सकता है।
लेखक भालचंद्र जोशी ने कहा कि लेखन में बाजारवाद हावी है। यही आज के साहित्यिक समाज की सच्चाई है। मनीषा कुलश्रेष्ठ ने लिव इन रिलेशनशिप पर कहा कि मैं इसका समर्थन करती हूं पर इसमें कहीं न कहीं पुरुषों को अधिक स्वतंत्रता मिली है। वरिष्ठ लेखिका डाॅ सूर्यबाला ने कहा कि यदि हमें साहित्य के सामाजिक न्याय को बचाना है तो भारतीय संस्कृति की तरफ जाना होगा। इस वर्ष के ‘पाखी महोत्सव- 2109’ में मूर्धन्य कवि स्व केदार नाथ सिंह को वर्ष 2016 का ‘शब्द साधक शिखर सम्मान’ दिया गया। स्वर्गीय केदारनाथ सिंह, हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में प्रकाश स्तंभ की तरह हैं। वे अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तीसरा सप्तक’ के कवि रहे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष 2013 का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। वे यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के 10वें लेखक थे। केदारनाथ सिंह की कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, स्पैनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं।
इसी के साथ वर्ष 2016 का ‘शब्द साधक रचना सम्मान’ मनोज रूपड़ा को उनके उपन्यास ‘काले अध्याय’ के लिए दिया गया। वर्ष 2016 का ‘शब्द साधक अनुवाद सम्मान’ अजय चैधरी को उनकी पुस्तक ‘शस्त्र विराम’ (लियो टालस्टाय की विश्व प्रसिद्ध कृति ष्ॅंत दक च्मंबमष् ) के लिए दिया गया। वर्ष 2016 का ‘शब्द साधक अन्य भाषा रचना सम्मान’ उर्दू के ख्याति प्राप्त लेखक खालिद जावेद को उनकी पुस्तक ‘मौत की किताब’ के लिए दिया गया और ‘शब्द साधक कविता सम्मान’ सूरज सहरावत को दिया गया। सूरज सहरावत को यह सम्मान कविता की विधा में उनके अभी तक के समग्र योगदान की दृष्टि से दिया गया है। इसी क्रम में वर्ष 2017 का ‘शब्द साधक शिखर सम्मान’ हिन्दी कथा साहित्य में प्रथम पंक्ति के रचनाकार असगर वजाहत को दिया गया है। असगर वजाहत उन विरले कहानीकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने पूरी तरह अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखते हुए भाषा और शिल्प के सार्थक प्रयोग किए हैं। वे न केवल अपनी गति बनाए हुए हैं, बल्कि उनके रचना-संसार में संवेदना के धरातल पर कुछ परिवर्तन भी आए हैं। हास्य, व्यंग्य और खिलंदड़ापन के साथ- साथ अब उनकी कहानी में गहरा अवसाद और दुःख शामिल हो गया है। बहुआयामी जटिल यथार्थ और आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए वे नए ‘हथियारों की तलाश’ में दिखाई पड़ते हैं।
इसी के साथ वर्ष 2017 का ‘शब्द साधक अनुवाद सम्मान’ ख्याति प्राप्त अनुवादक डाॅ प्रभाती नैटियाल को स्पैनिश से हिन्दी में कई महत्वपूर्ण कृतियों के अनुवाद के लिए दिया गया। डाॅ प्रभाती नौटियाल रचनाओं को स्पैनिश से हिन्दी में अनुवाद करने वाले एक समर्पित व्यक्तित्व हैं। स्पैनिश साहित्य, भाषा तथा लेटिन अमेरिकी संस्कृति व सभ्यता से संदर्भित कृतियों के हिन्दी अनुवाद के लिए आपको विशेष ख्याति प्राप्त है। जोस मोर्त्ती की कविताएं, मेक्सिको का संक्षिप्त इतिहास, वास्कोडिगामा की पहली समुद्री यात्रा रोजनामचा (पुर्तगाली) के हिन्दी अनुवादक समेत अन्य अनेक महत्वपूर्ण अनुवाद कार्य आपने किये हैं। वर्ष 2017 का ‘शब्द साधक जनप्रिय लेखक सम्मान’ कथाकार मनीष वैद्य को उनकी कहानी संग्रह ‘फुगाटी का जूता’ के लिए दिया गया। मनीष वैद्य सामाजिक सरोकार एवं सकारात्मक पत्रकारिता के साथ-साथ उल्लेखनीय कथा साहित्य भी रच रहे हैं। ‘फुगाटी का जूता’ तथा ‘टुकड़े-टुकड़े धूप’ इनके महत्वपूर्ण व चर्चित कहानी संग्रह हैं। वर्ष 2017 का ‘शब्द साधक आलोचना सम्मान’ बजरंग बिहारी तिवारी को दिया गया। बजरंग बिहारी का आलोचना क्षेत्र भक्ति काव्य और भक्ति आंदोलन से लेकर समकालीन साहित्य तक विस्तृत है। उन्होंने विशेष रूप से विभिन्न भारतीय भाषाओं के दलित साहित्य में मौजूद आंतरिक एकता व वैविध्य को रेखांकित किया है। उन्होंने समकालीन भारतीय समाज और लोकतंत्र के मध्य एक रचनात्मक संसार विकसित किया है।
वर्ष 2017 का ‘शब्द साधक कविता सम्मान’ 1990 के बाद कविता के स्वर में बदलाव लाने वाले कवियों में अग्रणी कवि महेश आलोक को दिया गया। महेश आलोक को यह सम्मान कविता की विधा में उनके समग्र योगदान के दृष्टिगत दिया जा रहा है। उनका पहला संग्रह ‘चलो खेल जैसा कुछ खेलें’ कोई 18 वर्ष पहले प्रकाशित हुआ था। जबकि दूसरा संकलन ‘छाया का समुद्र’ हालिया प्रकाशित हुआ है। दो दिवसीय कार्यक्रम में दूसरे दिन के प्रथम सत्र में ‘हिंदी कविता-मंच और गैर मंच का जंजाल: कारण, क्षति और समाधान’ विषय पर वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने कहा कि जनता के साथ संवाद खत्म करना कहीं से भी सही निर्णय नहीं है। दो पक्ष हुए, एक ने मंच को छोड़ना शुरू किया, दूसरे से मंच पर जाना शुरू किया। जिन्होंने शुरुआती दौर में मंच छोड़ा उन्होंने बिल्कुल सही नहीं किया क्योंकि यदि वो परंपरा बनाये रखते तो कविता में फूहड़ता न आती। देखिये! एक लड़का किसी गांव का मेहनत करके आईएएस बन गया या कोई अधिकारी बन गया तो इसका मतलब यह नहीं हो गया कि उसके साथ कई लड़के अधिकारी बन जाते हैं, पर दूसरी तरफ कोई लड़का गांजा पीने लगता है तो उसके साथ के कई लड़के गांजा पीने लगते हैं। तो मेरे कहने का मतलब यह है कि पतन की तरफ जाना बहुत आसान है। उत्थान की तरफ जाने का रास्ता थोड़ा मुश्किल होता है। यह समाज को तय करना है कि उसे किस तरफ जाना है। अच्छी कविता, अच्छी कविता होती है। बुरी कविता का तो कोई अर्थ नहीं होता। कविता छन्द में हो या छन्द मुक्त हो वो कविता है, कोई परफाॅरमेंस तो नहीं है। उर्दू के मंच को आप छोड़ दीजिये, पर हिन्दी कविता में शायद ही कोई दुरुस्त छन्द लिखता हो। अगर आप बात कुमार विश्वास की कर रहें हैं तो उनकी तुलना कपिल शर्मा से होनी चाहिए, राजू श्रीवास्तव से होनी चाहिये। क्योंकि परफाॅरमेंस की तुलना परफाॅरमेंस से हानी चाहिये। इनके साथ क्योंकि गला भी है इसलिये ये संगीत का भी भद्दा मजाक उड़ा रहे हैं और कविता का भी भद्दा मजाक उड़ा रहे हैं । यह दुःखद है। और इसीलिये कुमार विश्वास की तुलना कवियों से नहीं होनी चाहिये। इस विषय पर कवियित्री एवं लेखिका अनामिका ने कहा कि विश्वयुद्ध के बाद हमारे यहां भी बंटवारे के बाद हर जगह मातम का माहौल हो गया था। लोग ये तर्क देने लगे थे कि सजावट पाप है। एक भूकंप की तरह आई थी आधुनिकता, जिसमें सारी की सारी संरचनायें ढह गई थी। सिर्फ गीतों से ही छन्द नहीं ढहे थे बल्कि वास्तुकला से बात शुरू हुई थी। वास्तुकला में मिनारें, गुम्बद, ये चीजें थी जिसमें सजावट थी, संरचनायें थी उन सबका एक संकल्प के साथ त्याग किया गया और सरलता की ओर बढ़े थे। कहानियों में भी लिनियर स्ट्रक्चर ढह गया, उसके अलावा गीतों में भी लयहीनता जानबूझकर लाई गयी। ऐसा नहीं है कि सिर्फ कविता के साथ ऐसा हुआ बल्कि सभी संरचनाओं के साथ ऐसा हुआ। तनिक लोग रुके और सोचें। हम जिन वाहट्सएप गु्रप के सदस्य हैं उनमें 2,3 बजे आती हैं कवितायें, कौन लिखता है उन कविताओं को? वो बेरोजगार युवक लिखते हैं, वो अकेली औरतें लिखती हैं। देखिये, जब लेखक का अकेलापान पाठक के अकेलेपन से मिलता है तो कविता लिखी जाती है। इसी सत्र के समन्वयक लेखक सुधीश पचैरी जो कि पूर्व कुलपति, दिल्ली यूनिवर्सिटी भी हैं, उन्होंने कहा कि एक अच्छे सुपरहिट मंचीय कवि की जो कमाई के वो मैं कह सकता हूं कि सभी हिन्दी लेखकों की कमाई है ज्यादा है। एक कवि सम्मेलन का कुमार विश्वास कम से कम 2 लाख या 12 लाख तक तो लेते ही होंगे, लेकिन आप देखिये कि यदि हिन्दी लेखकों की राॅयल्टी मिला दी जाए तो भी कम है। मैं तो जानना चाहता हूं कि मदन कश्यप जी जैसे या अन्य कवि क्यों नहीं मंचीय कविता में आगे बढ़ते हैं, 12 लाख न सही, दो लाख ही सही। मैं तो जानना चाहता हूं इस सिस्टम में मुझे स्वीकार नहीं किया जायेगा, क्योंकि मैं ये मंचीय कविता वाली कबड्डी नहीं खेल सकता। नागार्जुन जी तो घर जा-जाकर नाच कर कविता सुनाते थे। और उनकी कविता बूढ़े से लेकर बच्चे तक पसंद करते थे।
महोत्सव के दूसरे दिन आयोजित द्वितीय सत्र में ‘भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्यः अपेक्षाएं तथा आशंकाएं’ में उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत ने कहा कि मीडिया ठर्रे जैसा हो गया है, जो दिमाग को जकड़ देता है। वह यह नहीं सोचता है कि उसके कार्य, बयान, सोच का समाज और देश पर क्या असर पड़ेगा। इसकी तैयारी बड़ी चालाकी से वर्षों पहले ही शुरू हो गई थी। संगोष्ठी के समन्वयक डाॅ ़ सैय्यद कल्वे रिजवी थे। उन्होंने किसी दल का नाम लिए बिना कहा कि इस बात की तैयारी बड़ी चालाकी से आज से 20-25 साल पहले शुरू हो गई थी। ये उसी का नतीजा है कि लोगों के मन में ठर्रे के प्रति लालसा पैदा हो गई है। हम उनके डिजाइन या जाल को समझ नहीं पाए। सोशल मीडिया पर भी उन्हीं का कब्जा है। इस बाबत मौजूदा परिस्थितियों में हमें भी अपने से सवाल करना होगा। उन्होंने कहा कि इस वक्त समझदारी की बात करने वालों को समर्थन नहीं मिल रहा है। इसके लिए सर्वधर्म समभाव मिजाज के लोगों को गंभीरता से विचार करना होगा। आम जनता अनपढ़ हो सकती है, लेकिन बेवकूफ नहीं है। हरियाणा और महाराष्ट्र का ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने है। हमें बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं है। आम आदमी ही इन सवालों का जवाब खोजेगा। ‘आम आदमी पार्टी’ के वरिष्ठ नेता संजय सिंह ने कहा कि सब कुछ ठीक ही चल रहा है। इस राज में आप कह ही नहीं सकते कि कुछ खराब चल रहा है। अगर कह दिए तो देशद्रोही कहे जाएंगे। इन हालात को बनाने में पूंजी और दुर्भाग्य से टीवी चैनलों का बड़ा समूह भी शामिल है। इसके साथ-साथ लोगों की मानसिकता भी शामिल है। जब कहा जाता है कि देश में सभी शांति और धर्म निरपेक्षता के साथ रहना चाहते हैं तो यह बात कहने और सुनने में तो अच्छी लगती है, लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या। उन्होंने कहा कि आज एक पढ़ा -लिखा तबका भी सांप्रदायिकता में शामिल हो गया है। उनकी मानसिकता में हिंदू-मुसलमान और मंदिर-मस्जिद भरा हुआ है। संजय सिंह ने कहा कि इस भंवर से निकलने के लिए मीडिया के प्रकोप से बचना पड़ेगा। ये मानसिक प्रदूषण फैला रहा है। कुछ पार्टियां नफरत फैला रहीं हैं, जो दंगे फसाद कर वोट लेना चाहती हैं। उनका एक मकसद सिर्फ एक है कि विविधता में एकता की जो संस्कृति है, उसे कैसे हम बर्बाद करें। ऐसे लोगों से पीछा छुड़ाना पड़ेगा।
वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपने आख्यान में कहा कि चीन की सत्ता ने एक अच्छा काम किया। वहां सोशलिज्म था, उसने अपनी इकोनाॅमी को कैपिटलिज्म से जोड़ा न कि दोनों को मिलाया। दोनों को मिक्स नहीं किया इसलिये वहां मार्केट इकोनाॅमी तेजी से आई। चीन ने गांवों से शहरों को घेरा। और हमेशा से सोशलिज्म, पार्टी पाॅलिटिक्स मार्केट इकोनाॅमी को अलग-अलग रखा। इसलिये जो परेशानी हिटलर या तमाम तानाशाहों को झेलनी पड़ी वो माओ ने नहीं झेली। जैसे कि हिटलर को भी बुरी इकाॅनमी का दौर देखना पड़ा था। अब बात करते हैं बीजेपी की, जिसे धर्म आधारित पार्टी कहा जाता है या जिसे बिचैलियों की पार्टी कहा जाता है, उसने शहरों से गांवों को घेरने का कार्य किया है। बीजेपी ने तय किया कि वह शहरों से गांवों को घेरेगा न कि गांवों को शहरों से क्योंकि बीजेपी को पता है कि उनकी पकड़ पहले से शहरों में है। हमारे यहां जो राजनीति है वो पिरामिड की तरह है, जिसका सबसे निचला भाग जो होता है उसका इनर्शिया ऊपर तक धीरे-धीरे कम होता है मसलन आप देखिये कि कांग्रेस के वोट काटने में इन्हें 60 साल लग गए। कांग्रेस ने अब पाॅलिटिक्स बीजेपी में शिफ्ट हुई तो देखिये इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी जी ने पहले भाषण में क्या कहा, उन्होंने बात की किसान की, मजदूर की, गाय की, मतलब ग्रामीण परिपवेश के लोगों की। हमारे यहां का जो सोशलिज्म कल्चर है उसका इकोनामी के साथ यह हाल है कि 1991 में चंद्रशेखर जी के पास बजट पेश करने के लिए कुछ नहीं था। फिर 1991 से 2012 तक इकाॅनमी थोड़ी बढ़ी, हर कोई घर खरीद रहा था, गाड़ी खरीद रहा था क्योंकि सबको पता था कि हमारा विकास निरंतर हो रहा है। लेकिन अब जो स्थिति है हमारे इकाॅनमी की वो इसलिये है क्योंकि जो सत्ता चला रहा वो आरएसएस से है। जहां होना ये चाहिये था कि सरकार को थर्ड जेनेरेशन से जुड़ कर इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारना चाहिये था, पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। वही आरएसएस प्रथा अपनाई गयी, उनमें शनिवार या इतवार को उनका प्रचारक जाता है और एक ही विषय पर बोलता है। अगर आज देश की अर्थव्यवस्था सही होती तो देश के युवा कुछ नया सोच रहे होते न कि वो सोचते जो आज सोच रहे हैं। इस समय विषय जो मुद्दा बना हुआ है यह विषय मुद्दा न बना होता। मसलन अगर इकोनाॅमी ठीक होती तो राम मंदिर पर फैसला न आता। हमारा युवा वो सोचता जो वो अब नहीं सोच पा रहा है क्योंकि हमारा पावर वहां सिमटा है। जहां से सारी पाॅलिसीज चलती है। इस दौर में क्या हो रहा है, बेहतरीन आईएएस पद छोड़ रहा है। सारे अच्छे इंस्टीट्यूशन की साख भी दांव पर है। इस देश में ईडी कैसे काम कर रहा हैं, कहां काम कर रहा है ये लीक कहां से होता है। सीबीआई का काम कैसे होगा, ये लीक कहां से हो रहा है। कौन सा आॅर्गेनाइजेशन किस रूप में काम कर रहा है ये लीक कौन कर रहा है? मुझे बताइये।
अन्य वक्ताओं ने भी अपनी बात रखी एवं दर्शकों द्वारा प्रश्न पूछने पर उत्तर भी दिए गए। ईशानी अग्रवाल अकेडमी गु्रप ने कथक प्रस्तुति कर सभी को शास्त्रीय धुन पर थिरकने भर मजबूर कर दिया। चार वर्ष से लेकर लगभग सत्तर वर्ष की आयु तक के कलाकारों ने अपने हिम्मत का बखूबी प्रदर्शन किया। ईशानी अग्रवाल की सोलो परफाॅरमेंस ने सूफीयाना माहौल बना दिया और आकर्षक प्रस्तुति दी। लगभग 66 वर्ष की रश्मि सूद के कथक परफाॅरमेंस के बाद लोगों ने जमकर तालियां बजाई। सभी लोगों ने उनके जज्बे को सराहा। रश्मि सूद का मानना भी है कि ऐज इज जस्ट ए नंबर। इसी क्रम में 2018 का ‘शब्द साधक शिखर सम्मान’ अग्रणी कथाकार स्वयं प्रकाश को दिया गया। कथाकार स्वयं प्रकाश अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए विख्यात हैं। वरिष्ठ कथाकार स्वयं प्रकाश, प्रेमचंद की परंपरा के महत्वपूर्ण कथाकार माने जाते हैं। इनकी कहानियों का अनुवाद रूसी भाषा में भी हो चुका है। कथाकार की खिलंदड़ी भाषा और अत्यधिक सहज शैली का निजी और मौलिक प्रयोग उन्हें हमारे समय का सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार बनाता है।
वर्ष 2018 का ‘शब्द साधक कथा सम्मान’ मीनाक्षी नटराजन को दिया गया। इनकी पुस्तक ‘अपने-अपने कुरुक्षेत्र’ इन्हें सिद्धहस्त कथाकार की पहचान देती है। इस उपन्यास में मीनाक्षी ने सत्यवती, गांधारी, कुंती, शिखंडी के भीष्म के माध्यम से महाभारत-कथा के कतिपय अंतः सूत्रों का नवीन विवेचन प्रस्तुत किया है। वर्ष 2018 का ‘शब्द साधक आलोचना सम्मान’ युवा आलोचक पल्लव को दिया गया। ये अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ ही बहुआयामी सक्रियता के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने नामवर सिंह, सुरेंद्र चैधरी, विश्वनाथ त्रिपाठी व विजय मोहन सिंह की आलोचना परम्परा को युगीन सन्दर्भ के साथ नये तेवर दिए हैं। वे सैद्धांतिकी और समाज वैज्ञानिक अध्ययनों के रूबाबों में आये बिना आत्मीयता तथा सहजता से कहानी का आलोचकीय पाठ प्रस्तुत करते हैं। वर्ष 2018 का ‘शब्द साधक अनुवाद सम्मान’ संतोष अलेक्स को प्रदान किया गया। इनकी हिन्दी में अनुवाद की 15 पुस्तकें हैं। लगभग 9 किताबें अन्य भारतीय भाषाओं की भी हैं। इन्होंने अंग्रेजी के अलावा तमिल, तेलुगू और मलयालम से भी हिन्दी में अनुवाद कार्य किया है। वर्ष 2018 का ‘शब्द साधक कविता सम्मान’ ज्योति चावला को दिया गया। ज्योति चावला की कविताएं अपने समय के स्त्री विमर्श की कविताओं से इस मायने में अलग हैं कि यहां स्त्रियों का अलग-अलग रूप है। यहां स्त्री मां है, बेटी है, दोस्त है और सभी अपनी-अपनी जगह पर अपने-अपने स्तर से स्त्री के जीवन में नया सौंदर्य रच रही हैं। ज्योति चावला को यह सम्मान कविता की विधा में उनके अभी तक के समग्र योगदान के दृष्टिगत दिया गया है। इस वर्ष से साहित्य के लिए समर्पित जीवन जीने वाले विभूतियों को ‘शब्द साधक जीवन मानक’ (स्पमि ज्पउम ।बीपमअमउमदज ।ूंतक) की शुरुआत की जा रही है।
वर्ष 2018 का ‘शब्द साधक जीवन मानक’ सम्मान हिन्दी साहित्य के लिये समर्पित जीवन जीने वाले भारत भारद्वाज को दिया गया है। सभी सम्मान दिनांक 14/11/2019 एवं 15/11/2019 को आयोजित ‘पाखी महोत्सव’ में दिए गए। यह महोत्सव इंदिरा गांधी कला केंद्र, सेक्टर-6 नोएडा में आयोजित हुअ।