- प्रियंका यादव, प्रशिक्षु
बिहार में जातिगत जनगणना कराने को लेकर मुहर लग गई है। राज्य सरकार अपने संसाधन से जातिगत गणना कराएगी। इस बीच अब महाराष्ट्र में भी जातिगत जनगणना की मांग उठने लगी है। इसको लेकर राज्य की महाविकास अघाड़ी सरकार में शामिल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इस मांग को लेकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मुलाकात करेगी
देश की राजनीतिक गलियारों में एक बार फिर जातिगत जनगणना को लेकर सियासत तेज हो गई है। जाति आधारित जनगणना को लेकर एक ओर जहां केंद्र की मोदी सरकार विरोध में है, वहीं दूसरी तरफ बिहार में बीजेपी के समर्थन से चल रही नीतीश कैबिनेट में जाति आधारित जनगणना कराने को लेकर मुहर लग गई है। राज्य सरकार अपने संसाधन से जातीय गणना कराएगी। इसके लिए 500 करोड़ रुपए का इंतजाम भी कर दिया गया है। इस बीच अब महाराष्ट्र में भी जातिगत जनगणना की मांग उठने लगी है। खबर है कि राज्य की महाविकास अघाड़ी सरकार में शामिल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इस मांग को लेकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मुलाकात करने की तैयारी कर रही है। इसके लिए राकंपा ने अलग-अलग समुदायों के सामाजिक स्तर का पता लगाने के लिए जातिगत जनगणना की मांग उठाई। राकपा प्रदेश इकाई के अध्यक्ष और जल संसाधन मंत्री जयंत पाटिल ने एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान कहा कि एनसीपी इस मुद्दे पर सीएम ठाकरे से सर्वदलीय बैठक बुलाने की अपील करेगी। यह फैसला शरद पवार की अध्यक्षता में हुई बैठक में लिया गया है।
दूसरी तरफ बिहार में जल्द ही जातीय आधारित जनगणना की जाएगी जिसकी घोषणा बिहार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कर दी है। जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने इसे बिहार के लोगों की जीत बताया है। नीतीश कुमार ने इस जनगणना को ‘जाति आधारित जनगणना’ नाम दिया है और कहा कि यह समाज के सबसे पिछड़े वर्गों का डेटा बेस बनाने मे मदद करेगा। गौरतलब है कि देश में जाति आधारित जनगणना की मांग काफी पहले से हो रही है। आजादी से पहले साल 1931 में
जातिगत जनगणना हुई थी, जिसके बाद से दोबारा नहीं हुई है। मौजूदा समय में देश की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस दोनों ही राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां हैं। 2010 में जब कांग्रेस केंद्र में थी तब बीजेपी नेता ‘गोपीनाथ मुंडे’ ने संसद में जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया था। लेकिन अब सत्ता में आने के बाद बीजेपी इससे कतराती रही है। कांग्रेस सरकार ने भी 2011 में लालू यादव, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव के दबाव में जातिगत जनगणना जरूर कराई थी। लेकिन इसके डेटा प्रकाशित नहीं किये थे।
साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया जरूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया। साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया लेकिन उसमें ओबीसी और दूसरी जातियों का डेटा शामिल नहीं किया गया। हालांकि साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफारिश को लागू किया था, जिसकी वजह से ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ मिल रहा है।
इस फैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया। मंडल कमीशन के आंकड़ों के आधार पर पिछड़े समुदाय के लोग कहते हैं कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है। ऐसे में ओबीसी नेता जातिगत जनगणना की मांग करते रहे हैं, जिसके चलते साल 2011 में सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस सर्वे आधारित डेटा जुटाया था लेकिन इसे अभी तक प्रकाशित नहीं किया गया है। अब नीतीश कुमार की सरकार बिहार में जातिगत जनगणना कराने को लेकर फैसला ले चुकी है। ऐसे में देखना है कि नीतीश राज्य स्तर पर किस तरह से जातिगत जनगणना करते हैं और उसे क्या अमलीजामा पहनाते हैं।
आर्थिक स्थिति का भी होगा सर्वेक्षण
बिहार मुख्य सचिव के अनुसार जाति आधारित गणना के दौरान लोगों की आर्थिक स्थिति का सर्वेक्षण भी होगा। जाति आधारित गणना की प्रगति से समय-समय पर विधानसभा के विभिन्न दलों के नेताओं को अवगत कराया जाएगा। बिहार सरकार का मानना है कि जाति आधारित गणना कराने से राज्य की विभिन्न जातियों की स्थिति का ठीक-ठीक आंकड़ा उपलब्ध हो सकेगा। इससे विभिन्न जातियों की समुचित विकास के लिए योजनाएं तैयार कर उसके क्रियान्वयन में सुविधा होगी।
जातीय जनगणना से क्या होंगे फायदे
जातीय जनगणना की मांग करने वालों का मानना है कि जातिगत जनगणना से ये मालूम होता है कि कौन-सी जाति पिछड़ेपन की शिकार हुई है और कौन-सी नहीं। जनगणना आंकड़ों के माध्यम से पिछड़ी जातियों को आरक्षण दे कर सशक्त बनाया जा सकता है। इसके माध्यम से ही जातियों की शिक्षा, आर्थिक, सामाजिक स्थिति का पता लगाया जा सकता है। जिससे सरकार को योजनाएं बनाने में आसानी होगी। इस बार की जनगणना में मुसलमानों की जाति, उपजाति की भी गणना की जाएगी।
जातीय जनगणना के पक्ष और विरोध में तर्क
बिहार में जातीय जनगणना पर सर्वदलीय बैठक में आम सहमति का बनना राजनीतिक तौर पर एक बड़ा संकेत है। क्योंकि मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल लगातार इस मुद्दे को लेकर नीतीश सरकार को घेर रहा था लेकिन नीतीश की सहयोगी पार्टी बीजेपी इसके लिए तैयार नहीं थी। आरजेडी और जेडीयू का तर्क है कि जातीय जनगणना से यह साफ हो जाएगा कि किस जाति के कितने लोग हैं और उनकी क्या हालात है। इससे आरक्षण देने में सहूलियत होगी लेकिन जातिगत आरक्षण का विरोध करने वालों का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से सामाज का ताना-बाना बिखर जाएगा। विरोध करने वाले बार-बार सरदार वल्लभ भाई पटेल के उस बयान का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने वर्ष 1952 में स्पष्ट तौर पर देश का गृहमंत्री रहते हुए संसद में कहा था कि ‘अगर हम जातीय जनगणना करते हैं तो देश का सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा।’
जातिगत जनगणना को लेकर धरने पर बैठे ओबीसी (फाइल फोटो)
इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जाति आधारित जनगणना के मुद्दे को लेकर राजनीतिक पार्टियां अपने सियासी दांव पेच खेल रही हैं। जब मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी, तब भी यह मुद्दा बहुत अधिक हावी था लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि कई राज्यों में जातियों की स्थिति अलग-अलग है। जातिगत आधार पर आरक्षण से राजनीतिक लाभ तो लिया जा रहा है लेकिन इससे देश को नुकसान हो रहा है। अब नेताओं का बस यही नारा है जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी। आरक्षण का आधार आर्थिक पिछड़ापन होना चाहिए, जाति नहीं। ऐसी जनगणना से देश में भेदभाव, ईर्ष्या, वैमनस्यता के साथ-साथ जनसंख्या वृद्धि की संभावनाएं भी हो सकती हैं।
जातिगत जनगणना करने में कई समस्याएं पैदा होंगी। इसमें एक आशंका यह है कि ओबीसी की जनसंख्या बहुत अधिक होने पर इसके लिए अधिक आरक्षण की मांग उठेगी। यह आसानी से संभव नहीं है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण संभव नहीं है। जातिवार गणना के बाद विभिन्न जातियों, उप जातियों की शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति सामने आ जाएगी। इसके परिणाम स्वरूप विभिन्न जातियां अपने लिए अलग आरक्षण की मांग करेंगी। जातिगत जनगणना के बाद जातिगत विद्वेष बढ़ेगा, इससे सामाजिक समरसता भी प्रभावित होगी और देश की अखंडता एवं संप्रभुता पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा।