दिलचस्प है कि इस देश की राजनीतिक पार्टियां विपक्ष में रहते हुए तो जाति आधारित जनगणना की वकालत करती हैं, लेकिन सत्ता में आने पर उनके स्वर बदल जाते हैं
संसद में केंद्र सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना से इनकार के बाद जनता दल (यू) इस मुद्दे पर मुखर है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कह रहे हैं कि जाति आधारित जनगणना का निर्णय लेना और नहीं लेना केंद्र सरकार का विषय है, लेकिन हमें तो अपनी बात रखनी ही है। यह तस्वीर भी सामने आ रही है कि बिहार के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भी नीतीश कुमार के नेतृत्व में इस मुद्दे की समर्थक पार्टियां एकजुट हो सकती हैं। नीतीश कुमार के आगे आने के बाद देश के कई राज्यों में जाति आधारित जनगणना के तेज हुए हैं। महाराष्ट्र और ओडिशा में भी यह मांग शुरू हो गई है।
नीतीश कुमार जाति आधारित जनगणना के समर्थन में पहले भी आगे आए थे। अब जदयू ने नियोजित तरीके से इस विषय को उठाया है। जिस दिन संसद में जातिगत जनगणना नहीं कराने की बात आई, उसी दिन नीतीश कुमार ने मुखर होकर कहा कि यह जरूरी है और होना चाहिए। दिलचस्प यह रहा कि बिहार विधानसभा के मानसून सत्र में नीतीश कुमार के इस स्टैंड को विपक्ष का समर्थन मिल गया। तमाम मतभेदों को दरकिनार करते हुए नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने ही सबसे पहले सदन में यह कहा कि जाति आधारित जनगणना के मसले पर नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल प्रधानमंत्री से मिलकर इस संबंध में अपनी बात कहे। यहीं से इस मुद्दे का तूल पकड़ना शुरू हो गया है। नीतीश कुमार मानसून सत्र के दौरान ही विधानसभा स्थित अपने कक्ष में तेजस्वी यादव सहित कांग्रेस और वाम दलों से इस मुद्दे पर मिले। लंबी अवधि के बाद विपक्ष ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में किसी अभियान पर एकजुटता दिखाई।
विपक्ष के साथ हुई बैठक में यह तय हुआ कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री को इस मसले पर पत्र लिखेंगे और मिलने का समय मांगेंगे। जदयू ने 31 जुलाई को दिल्ली में संपन्न अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जाति आधारित जनगणना का प्रस्ताव भी ले लिया। उस दिन भी इस विषय पर नीतीश कुमार खुलकर बोले। उसके बाद जदयू के सांसदों ने इस मसले पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। फिर जदयू सांसदों के प्रतिनिधिमंडल ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भेंट की। गेंद अब केंद्र के पाले में है। नीतीश कुमार ने साफ कहा है कि क्या करना है और क्या नहीं, यह तो केंद्र जाने। जाति आधारित जनगणना के समर्थक दल कह रहे हैं कि इस बार नहीं हुआ तो फिर दस साल का इंतजार हो जाएगा, जो उचित नहीं है।
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने पिछले ही महीने लोकसभा में दिए जवाब में कहा कि फिलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है। पिछली बार की तरह ही इस बार भी एससी और एसटी को ही जनगणना में शामिल किया गया है, लेकिन विपक्ष सवाल उठा रहा है कि जो मोदी सरकार मंत्रिमंडल विस्तार के बाद खुद को ओबीसी मंत्रियों की सरकार कहते नहीं थक रही थी, जो सरकार नीट परीक्षा के आल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण देने पर खुद अपनी पीठ थपथपाती रही है, आखिर वही मोदी सरकार जातिगत जनगणना से क्यों डर रही है? खास बात यह है कि एनडीए के कुछ सहयोगी दल भी इस मुद्देे पर विपक्ष का साथ दे रहे हैं। वर्ष 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी। साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया जरूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया।
साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है, जनगणना में आदिवासी और दलितों के बारे में पूछा जाता है, बस गैर दलित और गैर आदिवासियों की जाति नहीं पूछी जाती है। इस वजह से आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के हिसाब से जिन लोगों के लिए सरकार नीतियां बनाती है, उससे पहले सरकार को ये पता होना चाहिए कि आखिर उनकी जनसंख्या कितनी है। जातिगत जनगणना के अभाव में ये पता लगाना मुश्किल है कि सरकार की नीति और योजनाओं का लाभ सही जाति तक ठीक से पहुंच भी रहा है या नहीं। ‘अनुसूचित जाति, देश की जनसंख्या में 15 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति 7.5 फीसदी है। इसी आधार पर उनको सरकारी नौकरियों, स्कूल, काॅलेज में आरक्षण इसी अनुपात में मिलता है।
लेकिन जनसंख्या में ओबीसी की हिस्सेदारी कितनी है, इसका कोई ठोस आकलन नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक कुल मिलाकर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इस वजह से 50 फीसदी में से अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण को निकालकर बाकी का आरक्षण ओबीसी के खाते में डाल दिया, लेकिन इसके अलावा ओबीसी आरक्षण का कोई आधार नहीं है। यही वजह है कि कुछ विपक्षी पार्टियां जातिगत जनगणना के पक्ष में खुल कर बोल रही हैं। कोरोना महामारी की वजह से जनगणना का काम भी ठीक से शुरू नहीं हो पाया है।
समय-समय पर उठती रही मांग
आज भले ही बीजेपी संसद में जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रही हो, लेकिन दस साल पहले जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसके नेता खुद इसकी मांग करते थे।
बीजेपी के नेता गोपीनाथ मुंडे ने 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को
सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएंगे। इतना ही नहीं पिछली सरकार में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस वक्त 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस रिलीज में सरकार ने माना था कि ओबीसी पर डेटा नई जनगणना में एकत्रित किया जाएगा। लेकिन अब सरकार अपने पिछले वादे से संसद में ही मुकर गई है।
दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की बात करें, तो 2011 में एसईसीसी यानी सोशियो इकोनाॅमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया था। चार हजार करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च किए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई।
साल 2016 में जाति को छोड़ कर एसईसीसी के सभी आंकड़े प्रकाशित हुए, लेकिन जातिगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हुए। जाति का डेटा सामाजिक कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया, जिसके बाद एक एक्सपर्ट ग्रुप बना, लेकिन उसके बाद आंकड़ों का क्या हुआ, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है। माना जाता है कि एसईसीसी 2011 में जाति आधारित डेटा जुटाने का फैसला तब की यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के दवाब में ही लिया था।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि देश की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां जातिगत जनगणना के समर्थन में हंै, ऐसा इसलिए क्योंकि उनका जनाधार ही ओबीसी पर आधारित है। इसका समर्थन करने से सामाजिक न्याय का उनका जो प्लेटफाॅर्म है, उस पर पार्टियों को मजबूती दिखती है। लेकिन राष्ट्रीय पार्टियां सत्ता में रहने पर कुछ और विपक्ष में रहने पर कुछ और ही कहती हैं।
विपक्ष में आने के बाद कांग्रेस ने भी 2018 में जाति आधारित डेटा प्रकाशित करने के लिए आवाज उठाई थी, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। ऐसे में सवाल उठता है कि सत्ता में आते ही पार्टियां इस तरह की जनगणना के खिलाफ क्यों हो जाती है?
जानकारों के मुताबिक जनगणना अपने आप में बहुत ही जटिल कार्य है। जनगणना में कोई भी चीज जब दर्ज हो जाती है, तो उससे एक राजनीति भी जन्म लेती है, विकास के नए आयाम भी उससे निर्धारित होते हैं। इस वजह से कोई भी सरकार उस पर बहुत सोच समझ कर ही काम करती है।
जाति आधारित जनगणना
देश में 1881 में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत हुई।
1931 में आखिरी बार जातिगत जनणगना हुई।
1951 से 2011 तक केवल एससी-एसटी के आंकड़े शामिल हैं।
1931 की जनगणना के अनुसार 52 फीसदी ओबीसी की आबादी।
2011 की जनगणना में जातिगत आंकड़े एकत्रित हुए पर प्रकाशित नहीं।
राजनीतिक पार्टियों की दिलचस्पी ओबीसी की सटीक आबादी जानने में है।