बीजेपी और उसके आलाकमान मोदी-शाह की दो स्पष्ट नीतियां है कि कभी मुद्दे की बात मत करो और जहां उनकी सरकार नहीं है वहां उसे अस्थिर करके अपनी सरकार बना लो। इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसके लिए वे सत्ता और सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग और गोदी मीडिया के सहयोग से ऐसा भ्रम रच सकते हैं जिसमें गैर बीजपी शासित राज्य में एक गाय या हथिनी की मौत भी राष्ट्रीय दुख बन सकती है और बीजेपी शासित राज्य में सरकारी गौशाला में सैकड़ों गायों की मौत, सड़क चलते निर्दोष इंसानों की मॉब लिंचिंग तक हेडलाइन ख़बर नहीं बनती।
एक अभिनेता की आत्महत्या राष्ट्रीय बहस का हिस्सा और देश की टॉप जांच एजेंसियों की पहली चिंता बन सकती है, लेकिन रोज़ी-रोटी से मोहताज़ होकर महानगरों से गांव-घर लौटते मज़दूर-कामगारों की सड़क और रेल लाइनों पर मारे जाने की ख़बर का भी किसी पर असर नहीं पड़ता। ऐसे मज़दूरों के परिवार प्रधानमंत्री के एक ट्वीट को तरस जाते हैं।
ये कितना दुखद है कि आज जब हमें कोरोना के प्रतिदिन एक लाख के करीब पहुंच रहे नये मामलों पर चिंता और चर्चा करनी चाहिए, जीडीपी में करीब 24 फीसदी की गिरावट और बेरोज़गारी के संकट पर बात करनी चाहिए, हमारा तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया सत्ता के इशारे पर कभी सुशांत-रिया मामले को न केवल प्राइम टाइम न्यूज़ बनाता है, बल्कि 24 घंटे उसका प्रसारण करता है और कभी कंगना रनौत को लेकर हाय-हल्ला मचाता है। और हमें भी न चाहते हुए उस पर प्रतिक्रिया देनी पड़ती है।
चुनावी लिहाज से भाजपा के लिए तो आधा खट्टा-आधा मीठा रहा यह साल
चुनावी लिहाज से यह साल भाजपा के लिए तो आधा खट्टा-आधा मीठा रहा। लेकिन, कांग्रेस को इस साल भी कोई कामयाबी नहीं मिली। पिछले कई साल से चुनावी जीत के लिए तरह रहे कांग्रेस का सूखा इस साल भी बना रहा। इस साल दिल्ली और बिहार में दो बड़े चुनाव हुए। दिल्ली में तो भाजपा की करारी हार हुई, लेकिन बिहार में जदयू के साथ मिलकर सत्ता बचाई और सरकार बनाने में सफल रहे। राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार के अनुसार पार्टियों की अंदरूनी गतिविधियों पर नजर डालें तो मजबूत नेतृत्व की वजह से भाजपा में अनुशासन की समस्या नहीं रही, लेकिन कांग्रेस में उथलपुथल भी इस साल खूब मचा रहा।
कांग्रेस में एक नया समूह उभरा, जिसे जी-23 नाम दिया गया।इस समूह में कांग्रेस के बड़े नेता हैं, इसलिए ये मामला गंभीर हो गया। पार्टी में पीढ़ीगत फासला साफ दिखता है। इस साल राजस्थान में गहलोत और पायलट के बीच जबरदस्त सियासी उठापटक रही तो मध्यप्रदेश में उथलपुथल कांग्रेस के इसी पीढ़ीगत टकराव या फासले का उदाहरण है। कुल मिलाकर पार्टी के लिहाज से कांग्रेस के लिए अच्छा संदेश वाला साल नहीं रहा। कांग्रेस ने अपने बड़े नेताओं को भी खोया।
भाजपा सरकार के खिलाफ दो बड़े आंदोलन हुए
पर अहमद पटेल का निधन हो जाना पार्टी के लिए बड़ा झटका रहा। मुश्किलों से जूझ रही पार्टी के लिए बड़ा नुकसान रहा।एक मायने में अंतर भाजपा-कांग्रेस में देख सकते हैं। जहां कांग्रेस नेतृत्व का पार्टी के अंदर विरोध हुआ, वहीं भाजपा की एक मजबूत सरकार होने के बावजूद उन्हें बाहर से विरोध आंदोलनों के रूप में झेलना पड़ा। भाजपा सरकार के खिलाफ दो बड़े आंदोलन हुए। सीएए कानून के खिलाफ आंदोलन पिछले साल ही शुरू हुआ था, लेकिन इस साल खत्म हुआ। ये आंदोलन काफी लंबा चला और कोरोना की वजह से आपदा एक्ट की वजह से यह खत्म हुआ। भाजपा का सीएए एनआरसी का पूरा प्लान इससे प्रभावित हुआ।
भाजपा विरोधी लामबंदी भी हुई तेज
भाजपा विरोधी लामबंदी भी तेज हुई। किसान आंदोलन भी उसी ओर जाता नजर आ रहा है। भाजपा सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती है। ये आंदोलन भाजपा के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है। इससे कैसे निपटें, समझना मुश्किल हो रहा है।कहा जा सकता है कि भाजपा मजबूती से शासन में है। उनके नम्बर में कोई कमी नहीं है। संगठन को विस्तार और हर समय चुनावी तैयारी की रणनीति इस साल भी देखने को मिली। पार्टी कभी बैठती हुई नजर नहीं आती।
डीडीसी चुनाव में गुपकार ने किया अच्छा प्रदर्शन
लेकिन, संदेश के लिहाज से बड़े चुनाव की बात करें तो इस साल कश्मीर में डीडीसी चुनाव में भाजपा ने जम्मू में बेहतर किया। वहीं, कश्मीर में गुपकार ने अच्छा प्रदर्शन किया। लेकिन, यहां भी कांग्रेस बड़ी प्लेयर नहीं बन पाई। जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव के बाद भाजपा ने यहां कुछ क्रेडिट वाले अंक हासिल किए हैं। जम्मू कश्मीर में शांतिपूर्ण और निष्पक्ष चुनाव का क्रेडिट भाजपा को मिलेगा।भाजपा ने अपने विस्तार की रणनीति के तहत दक्षिण में भी ध्यान केंद्रित किया है।
हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में उन्होंने पूरी ताकत झोंकी। भाजपा का विस्तार बंगाल में होता हुआ दिख रहा है, लेकिन यह विचारधारा का विस्तार हो जरूरी नहीं है। कई वजहों से भाजपा की यहां बढ़त हो सकती है। खास बात ये है कि पार्टी ने इस साल भी दिखाया कि वह लगातार चुनावी रणनीति में व्यस्त रहती है। हारे या जीतें, वे बैठते नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस तैयारियों में भी कमजोर नजर आई।इंसाफ़ का तक़ाज़ा तो ये है कि हम हर उस ग़लत बात की आलोचना करें जो हमारे लोकतंत्र और संविधान को कमज़ोर करे।
रिया की मीडिया लिंचिंग
इसलिए किसी भी सरकार द्वारा नियम-कानून को ताक पर रखकर किसी के भी ख़िलाफ़ बदले की मंशा से कार्रवाई करने के तो हम विरोधी हैं और इसी वास्ते कंगना के भी अधिकार की वकालत करेंगे। जैसे हम रिया की मीडिया लिंचिंग के ख़िलाफ़ हैं, उसी तरह कंगना के ख़िलाफ़ इस तरह की मनमानी कार्रवाई पर हमें आपत्ति है, इसके लिए हम सरकार को संविधान में दायरे में रहने और किसी के भी ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई न करने की नसीहत देंगे, लेकिन इसके बरअक्स हम कंगना को न तो स्त्री होने का अतिरिक्त लाभ देंगे और न उनकी अमर्यादित भाषा-शैली और अलोकतांत्रिक कोशिशों का बचाव करेंगे।
इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि वे बीजेपी का एक मोहरा हैं और केंद्र की बीजेपी सरकार की ओर से महाराष्ट्र की शिवसेना के नेतृत्व की महा विकास अघाड़ी सरकार को अस्थिर करने की मुहिम का एक हिस्सा। बिल्कुल उसी तरह जैसे सुशांत-रिया केस बीजेपी के लिए बिहार चुनाव प्रभावित करने का एक अभियान है जिसमें रिया को शिकार बनाया गया है। बिहार में बीजेपी के चुनाव अभियान का एक पोस्टर ही उसकी मंशा को साफ़ कर देता है।